श्री राम जन्मस्थान के इतिहास के बारे में तरह तरह की धारणाएँ प्रचलित हैं, ऐसे में यह तय कर पाना मुश्किल है कि आख़िर सत्य क्या है। सत्य की पड़ताल करने के लिए कमज़कम 500 साल के इतिहास को पढ़ना-समझना और खंगालना अत्यंत दुसाध्य कार्य है किंतु यह उपक्रम किये बिना अंतिम सत्य तक पँहुचने की कल्पना भी व्यर्थ है। एक बार ये सब कर भी लिया जाय तो सदियों के इस विवादित मुद्दे को पाठकों की सुविधानुसार समेकित करना भी कम मुश्किल नहीं। इन्ही सब बातों को दृष्टिगत रखते हुए NII यानी न्यूज़ इंफोमैक्स इंडिया के चैनल हेड अनिल त्रिपाठी ने कड़ी मेहनत, लगन और प्रामाणिकता के साथ इस कार्य को अंजाम देने का प्रयास किया है। उनकी लिखी पुस्तक ‘श्री राम जन्मभूमि संक्षिप्त-समग्र इतिहास’ पूर्ण हो छपने को तैयार है। आप सुधि पाठकों के लिए इस पुस्तक पर आधारित श्रृंखला ‘श्री राम जन्मस्थान संघर्ष गाथा ‘ हम आज से अपने इस पोर्टल पर शुरू कर रहे हैं। पेश है इस श्रृंखला का पहला भाग-
वेद-पुराणों में उल्लिखित काल गणना के अनुसार भगवान विष्णु के सातवें अवतार भगवान श्री रामचन्द्र जी का प्रकाट्य त्रेतायुग के अंतिम चरण में आज से लगभग आठ लाख अस्सी हज़ार एक सौ कुछ वर्ष पहले हुआ था। कौशल्यानंदन बाल रूप में अवतरित हो रामराज्य की अवधारणा को चरित्रार्थ करने हेतु उनके पुनर्प्राकट्य के बारे में सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण के अनुसार आज से लगभग ग्यारह हज़ार वर्ष पहले वैवस्वत मनु के 9 पुत्रों में से एक सूर्यवंशी सम्राट रघु द्वारा स्थापित इक्षवाकु राजवंश की सत्तावनवीं पीढ़ी के कोशलपुर नरेश राजा दशरथ के राजमहल में चैत्र माह की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था।
इस सन्दर्भ में महर्षि बाल्मीकि कहते हैं –
ततो य्रूो समाप्ते तु ऋतुना षट् समत्युय: ।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पंचसु ।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥
प्रोद्यमाने जनन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
कौसल्याजयद् रामं दिव्यलक्षसंयुतम् ॥
प्राकट्य के समय कोशलपुर की राजधानी अयोध्या की पावन भूमि पर स्थित श्री राम जन्मभूमि स्थान एक विराट,सुवर्ण राजमहल के रूप में था। महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण मे जन्मभूमि की शोभा का बखान करते हुए इसे धन धान्य रत्नो से भरपूर,गगनचुम्बी भवनों और अतुलनीय छटा से आच्छादित दूसरे इंद्रलोक की संज्ञा दी है।
भगवान श्री राम के स्वर्ग गमन के पश्चात उनकी इकत्तीसवीं पीढ़ी के शासक कोशालराज वृहद्वल के शासनकाल तक अयोध्या और श्री राम जन्मस्थान की भव्यता अपनी पूर्ण आभा के साथ विद्यमान रही। किंतु महाभारत युद्ध में वीर अभिमन्यु के हाथों महाराजा वृहद्व्ल की मृत्यु के बाद इक्ष्वाकु वंश के अगले शासक महाराजा वृहत्रछत्र कोशलपुर राज्य और अयोध्या का वैभव बनाए रखने में सफल नहीं रहे। महाभारत युद्ध के बाद अयोध्या लगभग उजड़ सी गयी किंतु प्रभुकृपा से रामजन्मभूमि का अस्तित्व विद्यमान रहा। ईसा के लगभग सौ वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य ने दैवीय प्रेरणा से श्री राम जन्मस्थान का पूर्णोद्धार करते हुए वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया। ज्ञातव्य है महाराजा विक्रमादित्य ने उसी दौरान जन्मस्थान से पाँच सौ धनुष की दूरी पर गणेशकुण्ड सरोवर के ऊपर स्थित भगवान शेष के मन्दिर का भी जीर्णोद्धार करवाया था जिसे औरंगज़ेब ने सन 1675 में तोड़कर वहाँ शीश पैगम्बर नाम से एक मस्जिद बनवा दी थी जो आज भी स्थित है। महाराजा विक्रमादित्य के बाद लगभग बारह-तेरह सौ वर्षों तक हिन्दू सनातन परम्परा में आस्था के प्रतीक-केंद्र के रूप में श्री राम जन्मस्थान का महात्म्य निर्बाध रूप से कायम रहा।
इसका प्रमाण इस ऐतिहासिक तथ्य से मिलता है कि बारहवीं शताब्दी में कन्नौज के राठौर या गहरवाड़ राजवंश के शासक के रूप में राज्याभिषेक होने के बाद जब राजा जयचंद का अयोध्या आगमन हुआ तो राम जन्मस्थान मन्दिर में कुछ साज-सज्जा कराने के बाद उन्होंने सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति-स्तम्भ को उखाड़कर वहाँ अपना नाम लिखवा दिया। यही वो कालखण्ड था जब भारतीय राजपूत राजाओं में आपसी वैमनस्य और फूट के कारण लुटेरे मुस्लिम आक्रांताओं को भारत-भूमि में अपने पैर जमाने और पसारने का मौका मिला। जन्मस्थान के संक्षिप्त इतिहास के बाद अब एक नज़र डालते हैं जन्मस्थान के लिए हुए संघर्ष और बलिदान पर। इस संघर्ष गाथा के ऐतिहासिक प्रमाण उस कालखण्ड के लखनऊ, अयोध्या के गजेटियर, राजस्थान लाट, बाबरनामा, पँ. आर. जी पाण्डेय लिखित रामजन्मभूमि का इतिहास, लाला सीताराम लिखित अयोध्या का इतिहास, तुजुक बाबरी, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, प्राचीन भारत आदि ग्रंथों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में दर्ज़ हैं। हालाँकि भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा हिन्दू धर्मस्थलों के विध्वंस की शुरुवात तो सन 712 इस्वी में मुहम्मद बिन कासिम के आगमन के साथ ही हो गई थी।
एक बार मुग़ल आतताइयों का अधिपत्य मज़बूत हो जाने के बाद इन आक्रांता आतताइयों ने भारतीय मंदिरों और धर्मस्थानों में सिलसिलेवार विध्वंस और जम कर लूटपाट की। किंतु देश के अन्य भागों में स्थित मंदिरों पर अनेकों आक्रमण होने के बावजूद तमाम झंझावतो को झेलते हुए अयोध्या स्थित श्री राम जन्मभूमि मन्दिर पन्द्रहवीं शताब्दी तक किसी तरह बचा रहा। इसी शताब्दी के अंत में दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खां लोदी के बुलावे पर चंगेज़ खान और तैमूरलंग का उज़्बेकी वंशज ज़हीरुद्दीन मोहम्मद बाबर भारत आया। बाबर के द्वारा हिंदुस्तान में मुगल वंश की नीवं रखने के साथ ही शुरू होता है अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि की संघर्ष-गाथा का इतिहास। दरअसल बाबर के शासनकाल के साथ ही भारत में विध्वंस किये और क़ब्ज़ाए गए हिन्दू धर्म एवं सनातन प्रतीक स्तंभो-मंदिरों को जबरिया इस्लामिक ढांचे मे परिवर्तित करने के कुत्सित प्रयास बड़े पैमाने पर किये गए।
श्री राम जन्मभूमि पर मुस्लिम-अतिक्रमण के मूल में भी वही जानी-पहचानी इस्लामी प्रवृत्ति है,जिसके मूल अस्त्र हैं छल-कपट-प्रपंच और विश्वासघात। बाबर जब पहले मुगल शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय श्री रामजन्मभूमि महात्मा श्री श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। श्यामनन्द जी महाराज उच्च कोटि के ख्याति प्राप्त सिद्ध-योगी होने के साथ ही हिन्दुधर्म के मूल सिधान्तो के अनुसार किसी के भी साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न रखने वाले दयावान परोपकारी और अत्यंत सहृदय व्यक्ति थे। श्री श्यामनन्द जी महाराज की यही सहृदयता श्री राम जन्मभूमि के लिए हिन्दू धर्मावलमियों के छह-सात सौ सालों की संघर्ष-गाथा का कारण बनी। इतिहास में ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं जब समदर्शी-समभाव-सद्भाव के मौलिक हिन्दू सनातन सिद्धान्तों का खामियाज़ा पीढ़ियों को भुगतना पड़ा। हुआ कुछ यूँ कि ख़्वाजा कज़ल अब्बास मूसा आशिकान नाम का एक मुस्लिम फ़क़ीर महात्मा श्यामनन्द जी की विलक्षण सिद्धियों के बारे में सुनकर उनसे मिलने अयोध्या आया। वो महाराज जी से मिलकर इतना प्रभावित हुआ कि उनका शिष्य बन गया।
हालाँकि कहते हैं कि महात्मा जी के सानिध्य में रहते हुए रामजन्मभूमि के इतिहास महत्व और प्रभाव की जानकारी होने पर ख्वाज़ा कज़ल अब्बास के मन में प्रभु श्री राम और जन्मस्थान मन्दिर के प्रति अगाध श्रद्धा व्याप्त हो गई थी। कहते तो यहाँ तक हैं कि कज़ल अब्बास मूसा ने महात्मा श्यामनन्द से उनके जैसी दिव्य सिद्धियां प्राप्त करने के लिए यदि आवश्यक हो तो हिन्दू धर्म का वरण करना भी स्वीकार कर लिया था। (किंतु इस बात की तस्दीक़ उसके आगामी कृत्य कदापि नहीं करते।) महात्मा श्यामनन्द के स्थान पर यदि कोई और धर्मावलंबी होता तो किसी अन्य मतावलम्बी को अपने धर्म में परिवर्तित कराने में ज़रा भी देर नहीं करता किंतु महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाज़ा कज़ल अब्बास से कहा- ” मूसा तुम्हे अपना मज़हब छोड़ने की ज़रूरत नहीं, तुम इस्लाम और शरियत के अनुसार अपने ही मन्त्र ‘लाइलाह इल्लिलाह’ का मेरे बताए नियमानुसार जप-अनुष्ठान करो,मैं इसी के ज़रिये वो दिव्य सिद्धियां प्राप्त करने का मार्ग तुम्हे बताऊंगा।”
कहते हैं महात्मा श्यामनन्द महाराज की कृपा और बताए हुए मार्ग से ख्वाज़ा कज़ल अब्बास मूसा ने दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं। अब मूसा का नाम महात्मा श्यामनन्द जी के ख्यातिप्राप्त प्रिय-शिष्य के रूप में लिया जाने लगा। मूसा के बारे में जानकारी होने पर (या कौन जाने पूर्वनिर्धारित षड्यंत्र-योजनानुसार !) अब जलाल शाह नाम का एक और मुस्लिम फ़क़ीर महात्मा श्यामनन्द जी की शरण में आया उसने भी ठीक वही उपक्रम दोहराया जो सिद्धि प्राप्त करने के लिए मूसा पहले कर चुका था। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था। हर जगह बस इस्लाम का परचम बुलंद करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य था। जन्मभूमि की महिमा और महत्व को जानते हुए मन ही मन इस जगह पर ख़ुर्द या छोटा मक्का फ़रोग़ करने का इरादा ठान लिया।
क्रमशः – अगले भाग में….
(तथ्य संदर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)
(लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार)