(भाग -2 सिद्धियां धरी की धरी रह गईं.. से आगे)
थकहार के मीर बाकी ने इस समस्या के बारे में लिखते हुए बाबर को ख़त भेजा। मामले की जानकारी होने पर बाबर भी हैरान परेशान हो गया उसने मीर बाकी को मस्ज़िद की तामीर काम फ़ौरन बन्द करवा के वापस दिल्ली आने का हुक्म लिखवा भेजा। बाबर का इरादा बदलता देख जलालशाह और मूसा खान परेशान हो गए। जलालशाह ने बाबर को राणासांगा से युद्ध के समय दिए गए अपने आशीर्वाद का वास्ता और हिंदुस्तान में इस्लाम का परचम बुलन्द करने के उसके पक्के इरादे का हवाला देते हुए संदेश भिजवाया कि अगर बादशाह ख़ुद एक बार यहाँ आ जाएँ तो समस्या का हल निकल जाएगा। ये सन्देश पा कर बाबर अयोध्या आ पँहुचा।
ख्वाजा कज़ल अब्बास मूसा और जलालशाह ने बाबर से कहा उस काफ़िर महात्मा श्यामनन्द ने जाते जाते हमे श्राप दे दिया था इस वजह से हमारी सिद्धियां यहाँ काम नहीं कर रही हैं,कोई और इस्लामी तरतीब भी यहाँ काम न आएगी इसलिए अब हमे हिकमत से काम लेना होगा। दोनों ने अपनी योजना के बारे में बताते हुए कहा कि हिन्दू संतो की सिद्धियों से कुछ रास्ता निकल सकता है। आप बादशाह हैं आपके बुलावे पर वो आ सकते हैं। योजना के मुताबिक़ बाबर ने हिन्दू संतो के पास राम जन्मस्थान मन्दिर समस्या के हल के नाम पर वार्ता का प्रस्ताव भेजा।
जन्मभूमि मंदिर तो टूट ही चुका था, जलालशाह ने अयोध्या में पूजा-पाठ भजन-कीर्तन आदि पर प्रतिबन्ध लगवा दिया था। अयोध्या को ख़ुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाटने का सिलसिला भी जारी था। ऐसी विषम परिस्थितियों में यह सोचकर कि शायद जन्मभूमि के पुनरुद्धार का कोई रास्ता निकाल सके, हिन्दू संतो ने बाबर का वार्ता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
वार्ता शुरू हुई। योजना के मुताबिक़ बाबर ने धार्मिक सद्भावना के नाम पर झूठी कूटनीति का पासा फेंका ” जो होना था वह हो गया। आप सब तो जानते हैं आज की तारीख़ में सिर्फ़ जलालशाह और मूसा खान ही बाबा श्यामनन्द जी महाराज के स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं। श्यामनन्द जी का और कोई शिष्य तो बचा नहीं इसलिए यही इस ज़मीन के वारिस भी हैं। और ये यहाँ पर मस्ज़िद बनाने की ज़िद नहीं छोड़ रहे हैं, अब आप लोग ही कुछ रास्ता बताएं, हाँ मैं ये वादा करता हूँ कि उसके बदले में पूजा पाठ पर आयद की गई तमाम पाबंदियां हटा दी जाएंगी। हिंदुओं को अपने धरम-करम की पूरी आज़ादी होगी “। भीषण कत्लेआम के बाद दुःखी-असहाय हिन्दू संत महात्मा लड़ाई करने की स्थिति में तो थे नहीं, कोई विकल्प न होने की दशा में उन्होंने आपस में विचार विमर्श करके तय किया कि बाबर से सहयोग करके फ़िलहाल हिंदुओं को पूजापाठ की छूट मिल जाएगी साथ ही जन्मभूमि को किसी तरह बचाए रखने का शायद कोई उपाय निकले।
उन्होंने बाबर से कहा ” हम आपका सहयोग तो करें किंतु किसी भी दशा में जलालशाह यहाँ पूर्ण मस्ज़िद बनाने में कामयाब नहीं हो सकते। क्योंकि ये विष्णुअवतर भगवान राम का प्राकट्य स्थान है। राम भक्त हनुमान इस स्थान पर मात्र मस्ज़िद के नाम से कोई निर्माण नहीं होने देंगे। इसका प्रमाण मीर बाकी, जलाहशाह, मूसा खान समेत आपके सारे पहरेदार देख चुके हैं, हर उपाय कर के वो यहाँ एक दीवार तक खड़ी नहीं कर पाए।” बाबर ने कहा ‘ जलालशाह हमारे लिए सिद्ध पुरुष हैं उनके आशीर्वाद से मुझे जंग में जीत हासिल हुई थी, उनका अहसान मुझ पर कर्ज़ है इसलिए उनकी ज़िद पूरी करना मेरा फर्ज़ है। वो इस स्थान पर मस्ज़िद बनाकर उसमे नमाज़ अदा करने की अपनी ज़िद पर अड़े हैं, आप सबके पास बड़ी सिद्धियाँ हैं, अब आप ही कुछ उपाय बताएं जिससे कोई रास्ता निकल सके ‘।
संतों ने आपस में मंत्रणा करके कहा ” ये एक ही तरह से संभव है। यहाँ जो निर्माण हो उसे मस्ज़िद का रूप या नाम न दिया जाय। निर्माण सीता जी के नाम से कराया जाय। तभी इस स्थान पर किसी भवन का निर्माण हो सकता है। हिन्दू संत-महात्माओं को भी इस स्थान पर रामनाम जप और भजन कीर्तन करने की अनुमति हो। अब चूंकि जलालशाह की इस स्थान पर नमाज़ पढ़ने की ज़िद है तो वो हर शुक्रवार को अपने नमाज़ी साथियों के साथ यहाँ जुमे की नमाज़ अदा कर लें। बस यही एक रास्ता है जिसके द्वारा आप अपने ख़ासमख़ास की ज़िद पूरी कर सकते हैं “। हालाँकि जलालशाह को हिन्दू संतो का यह सुझाव फूटी आँख नहीं सुहा रहा था लेकिन बाबर के उसे एकांत में यह समझाने पर कि ” कलंदर जलालशाह आपकी सिद्धियाँ तो यहाँ नाकाम साबित हो चुकी हैं इसलिए हिंदू संतों की सिद्धियों का फ़ायदा उठाने के लिए हमारे पास उनकी बात मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं है “। जलालशाह यह सोचकर राजी हो गया कि चलो इस बहाने यहाँ इमारत बन के जुमे की नमाज़ तो शुरू हो,बाक़ी का काम बाद में देखा जाएगा। मंदिर निर्माण के नाम पर दीवार उठ गई। लकड़ी का दरवाज़ा बनवाकर उसके ऊपर फ़ारसी में लिखवाया गया ‘ सीता पाक स्थान ‘ मतलब सीता जी का पवित्र स्थान। आज जिसे सीता रसोई के नाम से जानते हैं।
ये निर्माण हुआ तो मंदिर के नाम से लेकिन निर्माणकार्य किया था शाही राजमिस्त्रियों ने मीर बाक़ी और जलालशाह के निर्देश के मुताबिक़ इसलिए ये जगह न तो पूरी तरह मन्दिर नज़र आ रही थी न ही मस्ज़िद। और समझौते के मुताबिक़ जहां हर शुक्रवार को मुसलमान वहाँ जुमे की नमाज़ अदा करते वहीं बाक़ी दिन हिंदुओं को भजन-कीर्तन की अनुमति थी। मतलब अब ये स्थान न तो पूर्णरूपेण मंदिर था न ही पूरी तरह मस्ज़िद। लेकिन इन बातों के बीच एक और सच था वो यह कि मुगल बादशाह बाबर ने अपनी कूटनीति से अयोध्या में राम जन्मभूमि पर एक ढांचा तैयार करने और वहाँ जुमे की नमाज़ भी शुरू कराने में सफलता प्राप्त कर ली। लंबे अरसे तक हमारे कुछ नादान भाई उसी ढाँचे को ‘ बाबरी मस्ज़िद ‘ का नाम देते रहे। इतिहास में क्या कहीं कोई नज़ीर मिलती है जहां किसी मस्ज़िद में भजन-कीर्तन की इजाज़त इस्लाम देता हो..! अलबत्ता मंदिरों या गुरुद्वारों के ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे जहाँ नमाज़ अदा करने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
इसलिए तथ्यात्मक रूप से यह स्थान कम से कम बाबर के शासनकाल में मस्ज़िद तो कभी रहा ही नहीं। हाँ कज़ल अब्बास मूसा और जलालशाह नाम के दो ‘ आस्तीन के साँपों ‘ द्वारा अपने गुरु महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के साथ किये गए छल-कपट विश्वासघात,मीर बाकी के बर्बर अत्याचार और धार्मिक-सदभावना के नाम पर की चली गई बाबर की कूटनीति चाल का स्मारक अवश्य कहा जा सकता है इसे।
हालाँकि राजा महताब सिंह के नेतृत्व में पौने दो लाख रामभक्तों के बलिदान और अन्य छल-प्रपंच से रामजन्मभूमि पर आक्रांता मुस्लिम आतताइयों का कब्ज़ा हो चुका था। संत महात्माओं ने भी खून का घूँट पीते विवशता में सह-अस्तित्व स्वीकार कर लिया था किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हिंदुओं ने राम जन्मस्थान पर अपना दावा छोड़ दिया था। इसका प्रमाण राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए समय समय पर हुए एक के बाद एक संघर्ष से मिलता है। जन्मभूमि से जुमे की नमाज़ की अज़ान की आवाज़ सुनके हिंदुओं का रक्त उबाल मारने लगता। अयोध्या से 8-10 किलोमीटर दूर स्थिति सनेथू गांव के पंडित देवीदीन पाण्डेय का सीना यह सब देख चाक हुआ जाता था।
उन्होंने सरांय सिसिंडा राजेपुर समेत आस पास के क्षेत्र के सूर्यवंशी क्षत्रियों को बुलाकर कहा ” आप लोग मुझे अपना राज पुरोहित मानते हैं। श्री राम आप सब के पूर्वज थे जबकि प्रभु श्री राम को तीर्थराज प्रयाग में दीक्षा देने वाले महर्षि भरद्वाज जी हमारे पूर्वज थे। श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ के दौरान दस हजार बीघे के रकबे वाला द्वेगाँवां नाम का गाँव हमारे पूर्वजों को दिया था। आज उन्ही मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि से अजान की आवाज़ गूँज रही है। ऐसी दशा में हमारे मूक दर्शक बने जीवित रहने से तो श्रेयस्कर है कि हम अपने आराध्य की जन्मभूमि के रक्षार्थ युद्ध करते वीरगति को प्राप्त हों “। पँडित देवीदीन पाण्डेय के इस आह्वान पर दो दिन के अंदर आसपास और दूर दूर के गांवों से करीब नब्बे हज़ार क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए। देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में इन्होंने तीन जून सन 1518 को जन्मभूमि पर ज़बरदस्त धावा बोल दिया।
अचानक हुए इस आक्रमण से पहले तो मीरबाकी घबरा उठा, लेकिन उसके पास साजोसामान से लैस शाही सेना का बड़ा संख्या बल था, भीषण युद्ध हुआ। युद्ध के सातवें दिन जब मीर बाकी और पँडित देवीदीन पाण्डेय का आमना सामना हुआ तो मीरबाकी के एक अंगरक्षक ने धोखे से एक लखौरी ईंट से देवीदीन जी के सिर पर वार कर दिया। देवीदीन पाण्डेय की खोपड़ी बुरी तरह फट गयी मगर वीर ब्राह्मण ने अपनी पगड़ी के कपड़े से खोपड़ी को बाँधकर अपनी तलवार के एक वार से उस कायर अंगरक्षक का सिर कलम करते हुए मीर बाकी को ललकारा। मीर बाकी तो किसी तरह बच निकला लेकिन पँडित देवीदीन की तलवार के वार से महावत सहित हाथी मारा गया। इसी बीच मीर बाकी की चलायी गोली पहले ही से बुरी तरह घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा के लिए लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए।
3 जून को शुरू हुए इस युद्ध की समाप्ति नौ जून की दोपहर पँडित देवीदीन के वीरगति को प्राप्त होने के साथ हुई। पूरे एक हफ़्ते तक कितना भीषण युद्ध हुआ इसका प्रमाण बाबर द्वारा लिखित ‘तुजुक बाबरी’ के पृष्ठ संख्या 540 पर अंकित है। यहाँ बाबर लिखता है ” जन्मभूमि को शाही अख़्तियार से बाहर करने के लिए जो चार हमले हुए उनमे सबसे बड़ा हमला देवीदीन पांडे का था। इस शख्स ने एक बार में सिर्फ़ तीन घंटे के भीतर गोलियों की बौछार के बावजूद,शाही फ़ौज के सात सौ आदमियों का क़त्ल किया। एक सिपाही के ईंट से किये वार से खोपड़ी चकनाचूर हो जाने के बाद भी वह अपनी खोपड़ी को पगड़ी के कपड़े से बांध कर ऐसे लड़ा जैसे किसी बारूद की थैली में पलीता लगा दिया गया हो। आख़िरकार वज़ीर मीर बाकी की गोली से उसकी मृत्यु हुई “।
क्रमशः
(तथ्य सन्दर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)
( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)