अंक- 1 : रणबांकुरों की प्रेम कहानी

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नरेश मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार

सम्पादक की कलम से…


इतिहास मानव को रास्ता दिखाने वाली मशाल है। पर जब हम इस मशाल की रोशनी को नजरअंदाज कर देते हैं तो अनर्थ होते हैं। इतिहास के आईने से अनोखी प्रेम कहानियों पर आधारित एक ऐसी सीरीज़ की शुरुआत हम कर रहे हैं जिनमें रोमांच है, नसीहत है और साथ ही है ऐसे वीर पुरुषों की गाथा जो इतिहासविदों की बौनी और पक्षपातपूर्ण दृष्टि का शिकार हो गुमनामी के वीराने में कहीं खो गए। ये ऐतिहासिक कहानियां वरिष्ठ पत्रकार नरेश मिश्र की हैं। नरेश मिश्र किसी परिचय के मोहताज नहीं। वे एक लीविंग लीजेंड है। 88 की उम्र, 100 से अधिक रचनाओं के सर्जक श्री मिश्र को भले ही उनका वाजिब हक नहीं मिला मगर उनकी कृतियां उन्हें कालजयी लेखक बनाने के लिए पर्याप्त हैं। इतिहास अपने को दुहराता है। वह सचेतक के रूप में मानवता को पतन के गर्त से बचकर निकल जाने की चेतावनी देता है, लेकिन उसकी आवाज बहुधा मनुष्य के कानों तक नहीं पहुंचती, पहुंचती भी है तो वह चेतावनी की उपेक्षा कर देता है या इतिहास की मनमानी व्याख्या करने में समय गंवा देता है। इसलिए मनुष्य की अपनी विद्वत्ता ही उसके लिए घातक सिद्ध होती है।

इस कहानी संकलन में आपको ऐसी ऐतिहासिक घटनाएं पढ़ने को मिलेंगी जो आपके मन में इतिहास के प्रति कौतूहल, जिज्ञासा का बीजारोपण करेंगी। इन कहानियों के कुछ पात्र अनगाए –अनचीन्हे हैं, कुछ के आधार किंवदंतियों से जुड़े हो सकते हैं किंतु सभी पात्र आपसे कुछ सार्थक बातें करना चाहते हैं। ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं का आधार लेकर उन्हें तोड़ मरोड़कर आज के संदर्भ में उनकी व्याख्या करने को बहुत से रचनाधर्मी तत्पर हैं। मैं इतिहास को पूर्वाग्रहों और निजी मान्यताओं के आधार पर रखने का समर्थक नहीं हूं। ऐतिहासिक घटनाओं में अकारण ठूंस-ठांस बहुत हुई है। यथार्थ के नाम पर नग्नता और पारंपरिक घृणा का प्रचार भी कम नहीं किया गया। इतिहास रचनाधर्मियों को यह सब करने से रोक नहीं सकता लेकिन इतिहास का सही रास्ता इन दोनों खतरनाक छोरों के बीच ही गुजरता है। आशा है कहानियां पढ़कर आप मुझसे सहमत होंगे। तो पेश है हमारी नई सीरीज ‘रणबांकुरों की प्रेम कहानी’ की पहली कहानी –


‘नाना की आदिला’


दूर दूर तक फैले लखपेड़ा बाग में अमा की काजर कारी रैन का बसेरा। एक कोने में चुपचाप उनींदे पानी की शांत चादर ओढ़े जलकुंभी भरी पोखरी और किनारे पर पानी में पांव डाले दो सन्नाटी आकृतियां जिनकी छाया बगल में खड़े कलमी आम की शाख को खामोश रहने का संकेत कर रही थी। पोखरी से उझक कर झांकते जलकुइयों को अभी अभी राहत मिली है, वरना पहर भर से इन उदास छायाओं को दिली कशमकश वाली मौन भाषा का माध्यम बनी पानी में वे बरबस लरज उठती थीं।

” आदिला.. हूँ

तुम अकेली जाओगी ना ?

क्यों पूछते हो ?

यूं ही सोचता हूं, अब तो तुम पेशवा के महल में जाकर … तुम्हें भूल जाऊंगी, गांव को भूल जाऊंगी, इस बाग, इस पोखर को भूल जाऊंगी, यही कहना चाहते हो न !”

आवेश में कांपती हुई पहली छाया की जरदोजी चूनर इस अंदाज में खिसकी कि दूसरी छाया में की देह में सिहरन उठाती, उसके बालों पर छा गई।

”भूलोगी नहीं तो याद भी नहीं कर पाओगी।”

दूसरी छाया की उसांस ने अलमस्त हवा के इठलाते डैनों में जंजीर बांध दी। तो इसमे कुसूर किसका है, उजागर दाऊ ही तो परदेश दे रहे हैं। जानती हूं उन्हें मेरा दहेली में रहना एक पल भी बर्दाश्त नहीं। कल ही करीमन बुआ से कह रहे थे। क्या ”

पहली छाया के उभरे नक्श पर लाज की शबनम छिटक आई।  ” कह रहे थे बुआ के साथ उनके जो रिश्ते हैं , उन्हें देखते हुए बुआ के भाई की लड़की आदिला उनके बेटे सूरज की बहन होती है और…’’

दूसरी छाया प्रश्नाकुल सी नजदीक खिंच आई तो पहली छाया की लाज डूबी आवाज सुनाई पड़ी – “और ये रिश्ते बदल कर कोई रंगीन नक्शा बदलना चाहते हैं। कुंअर की भीगी मसें किसी दूसरे अरमान की ताब ला रही हैं, आदिला भी बच्चों के खेल से दिल के खेल पर उतर …..वो जमींदार है ना आदिला, उनका हुक्म चलेगा ही, हर जात , हर आदमी और उनके दिल पर भी…”

दूसरी छाया ने नम आवाज में अपनी ओर संकेत किया।

“ये सूरज भी तो उन्हीं की जमींदारी में बसता है न।”

अंधेरे की काली चादर पर गोरा दाग बनी चूनर वाली छाया ने ढाढ़स देने के लिए दूसरी का कंधा सहलाना शुरू कर दिया। “कुछ सुनाओगी आदिला, आज आखिरी …”

अशुभ कार्य पूरा करने के पहले ही दूसरी छाया के मुंह पर उंगली पड़ गई। “क्या सुनोगे ? वही लागी नाहीं छूटे …..” और भीने भीने कंठ स्वर में बसी हवा धीरे धीरे भोर की ठंडी लहर बहाने लगी। मौन सहमति लेकर दोनों छायाएं विरोधी दिशाओं की ओर मुड़ीं, पर अजाने ही दोनों के पैर ठिठके और लौट पड़े। “एक बात कहूं आदिला आज विदा की बेर …”  हूं ”

दूसरी छाया अंदर ही अंदर थर्रा उठी। “तुम्हारा नाम आदिला है न इंसाफ करने वाली, लेकिन तुमने मेरे साथ इंसाफ नहीं किया, कभी नहीं वर्ना मैं इस तरह दूर दूर रहकर तुम्हें छोड़ने पर मजबूर न होता।”

दूसरी छाया कांपते पांवों काफी नजदीक खिसक आई। “और तुम हकीम कुंअर कहलाते हो न, तुमने गांव जवार में सबकी पीर सुनी, सबको दवा दी, पर मेरा रोग नहीं देखा। वह अब प्राण लेने पर उतारू है।”

प्रणय की जिंदगी में पहली बार सहारा देने की गरज से दूसरी छाया ने पहली को अपनी बांहों में सहेज लिया। उस्ताद जानबख्श और आदिला की छम छम में मदहोश बिठूर का पेशवा दरबार। तरुणाई की बगिया में बहार बनकर इठलाती नर्तकी के एक एक पाद न्यास पर दर्शकों के दिल की कलियां हजार हजार पंखुड़ियों में अंगड़ाई ले रही थीं। गणेशोत्सव के जगमगाते पर्व पर आयोजित नृत्य में पेशवा वंश की आखिरी हस्ती नाना, जरीदार पाग पर हाथ रखे, उसे निहारता ही रह गया। नागिन सी बलखाती आदिला के घुघरों को आज कोई संकोच नहीं था। दहेली में उसकी तानें भावना की बेलौस खुमारी में न डूब पातीं, उसके आलता रंगे पैरों की थिरकती चाल, हवा को मात न दे पाती, वजह थी बाप की जगह बैठे संरक्षक जमींदार उजागर लाल की तनी कमान सी भौहें और दादा बाबा की तरह गांव के बड़े बूढ़ों की नजरों का डर। लेकिन यहां उन नजरों की जंजीर नहीं थी जो नर्तकी के उन्मुक्त चरणों में संकोच का बंधन बन सके। यहां थी युवा नाना साहब की पारखी दृष्टि जो गणेशोत्सव के इस पुण्य पर्व पर इलाके की तमाम नर्तकियों के बीच एक राजनर्तकी को चुनना चाहती थी।

और पायलों के स्वर डूबे तो, दरबारियों से मौन सहमति पाने वाले नाना की आंखें , दहेली वाले जमींदारों की भेंट इस नयी तरुणी का मान बढ़ाने को उत्सुक दिखीं। राजनर्तकी चयन का आखिरी दौर था। राज पुरोहित की शकुन परीक्षा। भोर के फीके चांद की रोशनी में खड़ी शामियाने के नीचे खड़ी मंगला मुखियों को सामने तख्त पर रखी डिबियों में से एक एक उठा लेने का हुक्म दिया। पायलों की दबी सरगम गुंजाती आदिला, ने उत्सुकता दिखाए बिना एक कोने में पड़ी तांबे की जंग लगी डिबिया उठा ली। उसकी लापरवाह नजर पर अंदर ही अंदर निछावर होने वाला युवक नाना मूछें फरका कर खिल उठा। वह जानता था चांदी की डिबिया उठाने वाली नर्तकियों के भाग्य में गिन्नियों की नथ, बूंदे और पायलें बदा है, लेकिन आदिला … मोर्चा लगी डिबिया को दांत भींचकर खोलने वाली आदिला चुपचाप अपनी तकदीर का बुलंद दरवाजा सहेजने लगी। पांच बड़े बड़े मोती, दो मूंगे, दो पुखराज और एर चमकता हीरा।

“पुरोहित के शकुन और दरबार के फैसले ने तुम्हें राजनर्तकी का सम्मान दिया है आदिला”

दूसरी नाचने वालियों को बाहर जाने का संकेत कर नाना अपनी रोबीली आवाज में कृपा की बारिश घनी करने लगा, बोलो तुम्हें इस बारे में क्या कहना है नर्तकी ?”

आदिला की तिरछी भवें तनीं तो पेशवा को लगा कि वह इस बार एक पल भी सामना नहीं कर सकेगा। ”

मुझे इस लफ्ज से नफरत है श्रीमंत, मेरे गांव में मुझको किसी ने इस तरह गाली नहीं दी लेकिन हुजूर के दरबार में …… “ओह भूल हुई हमसे”

श्रीमंत संबोधन का भूखा कूटनीतिज्ञ सारी चालाकी भूलकर भावनाओं की सहस्र धार में बिखर गया। “मलिका आदिला के हुजूम में हम इस कुसूर के लिए माफी के तलबगार हैं। उम्मीद है नए खिताब से आपको कोई इन्कार नहीं होगा।”

आदिला रहस्यमयी मुस्कान बिखेर उठी। वह जानती थी अपने श्रीमंत पेशवा के खानदानी खिताब को बनाए रखने के लिए दिलेर नाना कंपनी सरकार से बराबर लड़ रहा है। अपनी वाकचतुरता से एक आला दिमाग देशी हुक्मरान को मात देने पर वह ईनाम पाने से ज्यादा खुश थी।

“तो आपके इस नए संबोधन की घोषणा कर दी जाय ?”

हां लेकिन एक शर्त है श्रीमंत, मैं मलिका पुकारी गई हूं तो आपके हुजूम में मलिका की तरह ही रहूंगी।” भला किस तरह ?”

नाना साहब अभी भी मुस्कराए जा रहा था। “ मेरे लिए महल, बांदियां, चाकर और सवारी भेंट का बदस्तूर इंतजाम होना चाहिए।
– बस, अरे ! वह तो हम करते ही।”

पेशवा लापरवाही से घूम पड़ा। “दरबारे आम में वह मेरा आखिरी नाच था। आइंदा मैं श्रीमंत की खिदमत दरबारे खास में ही कर सकूंगी, वह भी तब जब मेरी मर्जी हो। यह सब तो हो जाएगा ” नाना साहब का सांवला चेहरा अब भी विनोद के खिलते रंग से सराबोर था। ” पर एक बात बड़े अफसोस की है। वो क्या ? अभी-अभी कोई कह रहा था महफिल में जब तुम नाचती हो तो बिछावन झाड़ने के लिए जमींदार के नौकरों में झगड़ा हो जाया करता था। लेकिन यहां के सेवक सोने-चांदी के उस बरसाती ओले का बचा- खुचा टुकड़ा न बीन सकेंगे।” और जिंदगी में पहली बार प्रगल्भ हंसी से महल को विस्मित करता नाना बाहर चला गया।

“मेला तो जोरदार भरा है जीजा जी।“

तेलिया कुम्मैत घोड़े पर सवार बृजभूषण ने जोश से कहा। “ सफर अच्छा रहा .. हूं अच्छा रहा …”

बाजार की सड़क पर शानदार चाल चल रहे चमाचम पीतल जड़ी फिरक का रेशमी पर्दा हटाकर जमींदार सूरज प्रसाद ने गहरी सांस भरी।
– “मैं तो आखिरी बार टिकठी पर चढ़कर बिठूर आना चाहता था लेकिन तुम्हारी जिद.. बस यही दिल बुझी बातें तो सारा रंग किरकिरा कर देती हैं।“ अस्तंगत हिंदू पद पादशाही के कुहासे में ढके पेशवा महल को निहारकर ब्रजभूषण तेज आवाज में कहता गया “अगर इतनी ही तलब है तो घुस पड़ो उसकी हवेली में।किसी ने राह रोकी तो वहीं उसका सफाया कर आपके नमक से बेबाक हो जाऊंगा। नहीं भूषण”, युवक की रोबदार आंखें भावना तरंग में डूब गईं।

“मोहब्बत दिल वालों का सौदा है। वे महबूबा की मर्जी के खिलाफ उसकी शान पर डाके डालना नहीं सिखाता। आप कद में बड़े हों या पद में, लेकिन समझदारी में मुझसे हेठे ही निकलेंगे।”

बृजभूषण ने हाथ के इशारे से गाड़ीवान को धीरे चलने का संकेत दिया। “ घर बैठे कैसे जान लिया कि आपका आदिला के वहां जाना उसकी शान पर डाका होगा ? तुम नहीं समझते भूषन, अब वह राजनर्तकी ही नहीं पेशवा की मलिका भी है। और वह नाना की मलिका है या तुम्हारी आदिला, इसका फैसला अभी हुआ जाता है।” भूषण ने एक शानदार हवेली के फाटक पर पहुंचकर फिरक रुकवा दी। “ आओ जरा तकलीफ तो होगी। नहीं मैं वहां नहीं आऊंगा।”

सूरज का ललचता मन बृजभूषण के नाजुक संबंध और बचपन के साथी के परदेशी प्यार का संकोच कर रहा था। “ आप ठीक कहते हैं पहले आपका जाना ठीक नहीं है। एक बार मुझे हो आने दीजिए ताकि फैसला हो जाय कि वह मलिका है या आदिला।” और कार्तिकी पूर्णिमा स्नान को आए जमींदार सूरज का रईस दिल बढ़ी धड़कनों की आवाज से अपने को चोर साबित कर रहा था। “ पेशवा ने याद किया है मलका “ चूड़ी भरी कलाइयों पर मासूम चेहरा टिका किसी मध्यकालीन चित्र की विरहिणी राधा बनी आदिला अतृप्त सी खीझ उठी।

” जाओ कह दो अभी नहीं आऊंगी मैं।“ हैरत में पड़ी बंदी हुक्म पाकर भी नाफरमानी से सर झुकाए खड़ी रही। उसकी सकपकाई आंखें रह रहकर चमकदार पाग और रुपहले अंगरखे वाले उस जमींदार की निगाहों से मिल रही थीं, जिसने मलका के महल में बैठकर पहली बार उस पलंग पर बैठने की इजाजत पाई थी जिसे नाना के सिवा कोई दूसरा छूने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। “ कोई खास बात लगती है, आप सुन आइए न।“

सूरजमुखी से समर्पित आदिला के चेहरे को अपनी ओर झुकता देख जमींदार ने इशारे से पीछे खड़ी बांदी का भान कराया। “ ओह फिर वही..आप , मैं नहीं सुनूंगी, नहीं सुनूंगी।” विह्वल राजनर्तकी का मन आज कर्तव्य को कोई प्रोत्साहन नहीं देना चाहता था। “ अच्छा माफ करो आदिला, अब सुनाओ। “ अतृप्त आंखों से बेचैनी बिखेरती आदिला बांदी को तैश भरी निगाहों से घूरकर बगल के दीवानखाने में चली गई। “ ´कौन सी कहर बरपा हो गई पेशवा पर जो हरकारे पर हरकारा भेज रहे हैं। मलका जाने।”

वितृष्ण निगाहों से सकपकाई बांदी अंगूठे को फर्श से रगड़ रही थी। ” कह रहे थे सूबेदार टिक्का सिंह और राजा सती प्रताप आए हैं। कर्नल ह्वीलर के बारे में जरूरी मशविरा करना है।  “ हूं.. और कौन कौन था उनके पास? कोई नहीं सरकार। यूं ही कहने लगे जंग का मामला है। जरूरी मशविरा.. कोई मशविरा नहीं। कोई काम नहीं। मुझे कुछ लेना देना नहीं है। अंग्रेजी और देशी ताकतों के झगड़े से। जा कह दे हम नहीं आ सकते अभी। समझी। जी “

मलका के क्रोध भरे संकेतों पर बांदी थरथराते कदमों से बाहर जाने लगी। “ठहरो तो” आदिला के बेपनाह गुस्से भरे चेहरे पर विवेक की छीटें पड़ीं।  “ सच सच बता ये बार बार तलबी का हुक्म क्यों आ रहा है।  जी….. जी ….मलका,  बेखौफ बयान कर।”

आश्वासन देने के लिए आदिला ने बांदी के कांधे पर हाथ रख दिया। “कुसूर माफ हुजूर…. दो काना मीर मुंशी….उसकी खिचड़ी दाढ़ी पर खुदा की आग पड़े, जाने क्या क्या जड़ दिया है पेशवा हुजूर से। क्या? यही कि आप एक गंवार रईस के लिए शाही महल के तौर तरीके भूलकर बदहवास हवेली के फाटक तक दौड़ गईं…..उसका हाथ पकड़कर इत्मीनान से हवेली के अंदर ले गईं।” घबराई बांदी की दबी आवाज सुनने के लिए आदिला को उसके नजदीक खिसकना पड़ा।  “अच्छा … और जान की अमान पाऊं तो… बयान कर …..।  और आप उसे बेखौफ पेशवा की जगह बैठाकर.. हां हां बोल”

आदिला की भवें चढ़ी थीं या रीढ़ तानकर डसने को तैयार नागिन का तिरछा फन। “ नहीं आगे का बयान कनीजा की ताकत से बाहर है।“ बांदी ने लाज और घबराहट से सिर झुका लिया। “ये मीर मुंशी का बच्चा…. पता नहीं उसे इंतजाम करने के लिए रखा गया है या जासूसी…। उस बदगुमान से कह दे हम अब आगे उसे दुनिया की कोई चीज नहीं देखने देंगे।” तैश से सिंगारदान ढकेलते हुए आदिला चीख पड़ी – “और पेशवा से जाकर साफ साफ कह देना हमारे गांव के मालिक आए हैं हम अभी उठकर कहीं जा नहीं सकते। जो हुक्म …”

बांदी करीब करीब दौड़कर दरवाजा पार कर गई। “और सुन नायक दलगंजन सिंह से कह दे हमारे सिपाहियों को हथियार बंद करके हवेली पर तैनात कर दें। जो भी आए उसे रोक लिया जाय। हुक्म उदूली करने पर गिरफ्तार कर लिया जाय।” रुको तुम लोग अंदर नहीं जा सकते। मलिका का हुक्म है। “हमलोग श्रीमंत पेशवा के हुक्म से हवेली में छिपे एक चोर को गिरफ्तार करने आए हैं ठाकुर।“

पेशवाई सवार मुस्कराता हुआ नजदीक आ गया। “तुम तो जानते हो बिठूर में पेशवा के ऊपर कोई हुक्म नहीं चलता। मैं किसी को नहीं जानता।“ बैसवारे का ठाकुर दलगंजन सिंह गुस्से से उबल पड़ा। “मुझे सिर्फ मलिका का हुक्म बजाना है। आड़े आओगे तो नतीजा भुगतना पड़ेगा। ओह इतने सूरमा हो ?”

तलवार खीचकर पेशवाई टुकड़ी का नायक झपट पड़ा। और तलवारों की सपासप और बंदूकों की धांय धांय में हवेली के अंदर कहकहों का आदान-प्रदान करते दो बिछड़े मीतों के रंग में भंग हो गया। सूरज के सामने लापरवाह मुस्कान बिखेरने वाली आदिला भी झपट की आवाज बढ़ती देख बेचैन हो उठी। शायद दलगंजन को कुचलकर पेशवाई सवार अंदर न आ जाएं। पर थोड़ी देर तक कोई नहीं आया तो उसे विश्वास हो गया कि बैसवारे के ठाकुर ने उसके नमक का पूरा पूरा मोल चुकाया है।

कुछ देर बीता। हवेली के फाटक पर बंदूकों की बाढ़ आई। विभोर आदिला ने पतले होठों पर पैने दांत गड़ाकर झरोखे से निहारा तो पेशवाई दस्ते के आगे खुद बिठूर का श्रीमंत अपनी सेना का संचालन करता दिखा। पेशवा की मलका बेमौसम सिहर उठी। पलंग पर बैठे सूरज ने आदिला का कंपन तो भांप लिया पर यह न समझ सका कि इसकी जड़ में बेलगाम क्रोध या बेतरह घबराहट है। मौन भैरवी का रूप बनी आदिला की थरथराती उंगलियों से खिंचता वह दालानों गलियारों के पार एक सूने भाग में पहुंच गया। “ तुम यहीं ठहरोगे जब तक मैं वापस न आ जाऊं,” आदिला ने क्रोध से कहा। “ क्यों तुम कहां जा रही हो ? बिठूर के पेशवा को उसके रिश्ते का हिसाब सौंपने।“

आदिला ने तेजी से घूमकर अपने कलाइयों के कंगन फर्श पर फेंक दिए। “ अब मैं यहां एक पल भी नहीं ठहरूंगी। पर सुनो तो आदिला ……।“ सूरज की आवाज बीच में ही डूब गई। वह जानता था कि आदिला जब कुछ कर गुजरने की ठान लेती है तो उसे समझाना मुश्किल हो जाता है। “अब जी कैसा है मलका “ तलवार पर छिटके रक्त बिंदुओं को पोंछकर उसे म्यान में डालने वाले नाना की आवाज में कहीं कोई उत्तेजना नहीं थी। “श्रीमंत की नजरे इनायत है।“

काले लिबास में झांकती हुई आदिला की तटस्थ दृष्टि भी पेशवा को किसी अनोखे सौंदर्य का बोध करा रही थी। “ हमने तुम्हें याद किया था बांदी के जरिए।“ नाना की तिरछी निगाहें आदिला के झुके बालों पर जमी थीं लेकिन आवाज में अस्वाभाविकता की गंध भी नहीं थी। “ हमने भी जवाब भेज दिया था पेशवा के हुजूर में । कुछ सवार भी भेजे गए थे। हां कुछ सरकश सिपाही आए जरूर थे लेकिन उन्होंने मलकए पेशवा की शान में गुस्ताखी की।“

आदिला ने सिर उठाकर नाना की ही अनजान अदा लौटा दी। “ हमारे सिपाहियों ने गिरफ्तार कर लिया होगा उन्हें। हम पेशवा से उन बदगुमानों को कड़ी सजा देने की दरख्वास्त करेंगे। पेशवाई हुक्म बजा लाना कुसूर नहीं मलका।“ नाना ने आगे बढ़कर खून भरा हाथ आदिला की काली साड़ी पर रख दिया। ” वे सिपाही हमारे हुक्म से एक चोर ….। चोर! कौन चोर ?” छिपी मार से तड़पा आदिला का अहं तेजी से भड़क कर आड़े आया। “ एक चुगलखोर कारिंदे पर यकीन कर हुजूर अपनी मलिका की शान को सरेआम कीचड़ में घसीट रहे हैं।“

वाकपटु नाना ने अनुभव किया पीछे खड़े सिपाहियों के सामने ऐसी बात कहना पागलपन है। इशारे से उसने सिपाहियों को बाहर जाने का संकेत कर अपनी जीभ को मधुपात्र में डुबो दिया। “ सचमुच मीर मुंशी का बयान काबिले यकीन नहीं था मलिका, भला तुम्हारे सामने कोई गुस्ताख हमारी जगह पर बैठने की जुर्रत कर सकता है?  अजीज..”

नाना हैरत से घुटे सिर पर हाथ फेरने लगा। “ जी हां मेरा अजीज दहेली का जमींदार सूरज प्रसाद।“ ओह भूल हुई” नाना ने चौड़ी हथेलियों वाले हाथ आपस में रगड़ डाले माफी की दरखास्त करते हुए।… “ माफी हुजूर को दी जा सकती है न कि उस चुगलखोर मुंशी को।“ गुस्से से अंगार बनी आदिला ने तीखे स्वर में कहा। ” हमने उस गुस्ताख की दूसरी आंख भी निकाल लेने का फैसला किया है। आपको इसे अंजाम देना होगा।” यह नहीं हो सकता आदिला। दो क्षणों पहले नम्र हुआ नाना फिर तन गया। “आंखों देखे नजारे का बयान करना कोई जुर्म नहीं जो …गोया हममें और कोई दूसरी नाचने वालियों में कोई फर्क नहीं श्रीमंत।”

गुस्से की तेजी में राजनर्तकी चीख पड़ी। “ हमारी हवेली में मीर मुंशी और हर अदना सिपाही बेखौफ घुस सकता है !  नहीं मलिका तुम समझने की कोशिश करो। कोशिश की जरूरत नहीं बड़ी आसानी से समझ में आ गया श्रीमंत।” आदिला ने दौड़कर बाक्स से वह तांबे की डिबिया निकाल ली जो कभी उसके मलका पद की शानदार निशानी बनी थी। “ ये संभालिये अपने मुकद्दस खिताब की निशानी। आपकी मलका आदिला मर गई आज से। अब सिर्फ तवायफ आदिला बची है। कभी हमारा नाच देखना हो तो हमारे ठिकाने पर तशरीफ लाइएगा।

आदिला तुम उस गंवार रईस के साथ जाना चाहती हो ? शिष्टता की नकाब उतर जाने पर उसे दुबारा ओढ़ना नाना के नाटक में अस्वाभाविकता लाता जो कभी उसे स्वीकार नहीं था। तांबे की डिबिया को मौज से उछालता वह खलनायकों के स्वर में बोला- ” लेकिन तुम्हारा जाना इतना आसान नहीं है। बिठूर के राजमहल ने तुम्हें इतनी बेवफाई से नहीं अपनाया जो तुम इसे यूं ही छोड़ दो।

शुक्रिया हुजूर, अभी तक हम बिठूर ही छोड़ना चाहते थे लेकिन आपकी इल्तजा है तो हमें सूरज का घर भी आबाद करना होगा।
– ह ह ह खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो- क्यों ? पेशवा ने तांबे की डिबिया से आदिला के फड़कते होठों पर थपकी दे दी। “अब तो जिद पर अड़े हैं। देखें कौन जीतता है।”

राजनर्तकी का कुंठित अहं चिन्गारी बनकर सुलगता रहा। बिठूर की मलका अपनी ही हवेली में कैद होकर नाना के चाक चौबंद सिपाहियों को कहर बरपाने वाली निगाहों से घूरती रही। हवेली के अंदर फंसे सूरज प्रसाद और बृजभूषण में बांदी के जरिए बातें चलती रहीं और एक रात ये सारी बातें सिमटकर भयंकर विस्फोट बन गईं। हवेली की पिछली दीवाल फांदकर आदिला और सूरज दहेली की नामी गिरामी उस फिरक पर जा बैठे जिसमें जुटे कद्दावर बैलों की जीवट भरी चाल एक दिन में जमींदार दहेली को उनके घर से उड़ाकर प्रयागराज में बुड़की लगवाती थी। जिसके पहियों में बंधे घी के कुप्पे उन बैलों की गिजा बनते थे। और वह भोर की रात पेशवा नाना के हठी व्यक्तित्व के लिए एक चुनौती बन गई। अंग्रेजों के अलावा किसी देशी ताकत ने उसके अहं को चुनौती दी थी। पेशवाई घुड़सवारों ने पंख लगाकर फिरक का पीछा किया। आगे आगे उड़ती जमींदार हकीम जू की गुलाबी पर्दों वाली फिरक और पीछे पीछे दौड़ने वाले नाना के घुड़सवार जिन्होंने एक क्षण के लिए भी अपने घोड़ों की बाग खींचने की कसम खा रखी थी।

आखिरी लम्हे में पीछा करने वाले हार गए। कठारा गांव लांघते ही जमींदार ने फिरक मोड़कर पेशवाई घुड़सवारों को संकेत कर दिया कि यहां से उसके ताल्लुके की हद है और इसमें घुसने पर कोई भी सिपाही नाना को अपनी करुण कथा बताने के लिए शेष नहीं बचेगा। सवार निराश लौटे तो छोटी आंखों वाले नाना ने गुस्से से अंगार बनकर अपने दुश्मनों की सूची में एक नाम और जोड़ लिया। पेशवाई छीनकर बिठूर के घसियारों तक पर टैक्स लगाने वाले फिरंगियों ने उसकी रीढ़ तोड़ दी थी। बुझती महाराष्ट्र राजवैभव की आखिरी लौ नाना के पास कोई शासकीय शक्ति नहीं बची थी। जो थोड़े से पैदल और घुड़सवार सिपाही थे उनकी गिनती कंपनी सरकार के कागजों में घरेलू नौकरों के रूप में लिखी थी। उधर सूरज जमींदार था। वह अंग्रेजों का मित्र और विश्वासपात्र माना जाता था।

दोनों ओर से जोड़ तोड़ घात-प्रतिघातों का दौर-दौरा चला तो सालों तक लगातार चलता रहा। पेशवाई सवारों ने कई बार सूरज की जमींदारी की सीमा भौती गांव तक लांघी, दो एक बार दहेली के तालाब और लखपेड़ा बाग की हद भी रौंद गए, पर जमींदार हर झपट पर भारी पड़ा।
नाना के जासूसों ने खिदमतगारों, गंधियों, गवैयों, सर्राफों का वेष बदलकर दहेली के कोट दीवानखाने और जनानी ड्योढ़ी तक पर पैनी निगाहें दौड़ाई लेकिन आदिला की गंध तक नहीं मिली। हठी नाना जिंदगी में पहली बार हार बैठा। सत्तावन का विप्लव सूर्य बन आसमान तक चढ़ चुका था। कानपुर में सिपाहियों की आवेशभरी फुसफुसाहटें आए दिन असंतोष भरी गुर्राहटों का रूप ले लेती थीं। विचलित पेशवाई वैभव की पुनर्प्रतिष्ठा का संकल्प लेने वाला नाना बराबर अनुभव कर रहा था कि भावना और कर्तव्य के मोर्चे पर एक साथ नहीं लड़ सकता। टूटे दिल की बुझी भट्ठी से बगावत के शोले नहीं दहक सकते। स्वातंत्र्य युद्ध के सैनिकों का नेतृत्व एक निराश प्रेमी की कुंठित तलवार नहीं कर सकती।
और गर्मी से झुलसती एक दोपहर को वह अचानक दहेली कोट के सामने घोड़े से उतरा।

पेशवा का नाम सुनकर जमींदार सूरज नंगे पांव फाटक की तरफ दौड़ पड़ा। “ हम आज खुद तुमसे फैसला करने आए हैं।”

हकीम जरीदार पगड़ी में उंगली उलझाकर नाना प्रणाम करने झुके जमींदार से बोला। “ प्रीत की तरह बैर भी बराबर वालों में होता है श्रीमंत “ सूरज के स्वर में शबनम की नरमाई थी। “आप चरणों की धूल को सिर के बराबर क्यों उठाना चाहते हैं। तुम्हारी बातों और कारगुजारियों में जमीन आसमान का अंतर है।”

नाना की तिरछी निगाह अपने प्रतिद्वंद्‌वी की प्रगल्भता थहाने लगी। – “दहेली से हाथ मलकर लौटने वाले पेशवाई सिपाही इस बात का जिंदा सुबूत हैं।“ वह और बात थी श्रीमंत” सूरज ने झुककर रास्ता दिखाते हुए उलझे शब्दों में कहा – “ वह कूबत नहीं दिलों का मोर्चा है। वहां तो वही जीतेगा जो… लेकिन हम नहीं मानते सूरज प्रसाद”

भावावेश से रुके नाना ने जमींदार का कंधा थाम लिया,.. “ हमें तुम्हारी बात से पूरा पूरा इन्कार है। तुमने हमारी आदिला को बहकाया,. हमारे झगड़े से नाजायज फायदा उठाते हुए उसे …। अफसोस यह झूठ है पेशवा।”

सूरज की आंखों में नाना की भरी आंखों के लिए हमदर्दी थी। “आप अब भी मलिका को समझा सकते हैं। वे राजी हों तो मैं बिठूर तक खुद चलकर उन्हें पहुंचा सकता हूं। ओह भगवान के लिए नाम मत लो..मत लो हकीम,”

नाना ने पीड़ा से घबराकर सिर थाम लिया। “हम सिर्फ उनसे एक बार मिलने के तलबगार हैं। तुम उसे सिर्फ एक बार दिखला दो, अगर वह सचमुच तुम्हारी है तो पेशवा बाजीराव की तलवार की आन , उसे खुशी खुशी सौंपकर रास्ते से अलग हो जाएंगे।”

बगल में लटकी जड़ाऊ तलवार की मूठ पर हाथ फेरकर पेशवा वंश के अंतिम गर्व चिन्ह ने आंखें मूंद लीं। चारो ओर बियाबान अंधेरा। हाथ को हाथ न सूझने वाले रास्ते पर धीमी चाल से चलता नाना लंबे तहखाने के एक जगमगाते कक्ष में पहुंचा दिया गया। उसे द्वार तक पहुंचाकर सूरज अंधेरे रास्ते में खो गया। नाना ने लंबी सांस खींचकर तहखाने की चौखट का सहारा ले लिया – फानूसों की कंदीलों की रोशनी में झुककर आदाब बजाने वाली आदिला सिर से पैर तक नगजड़े जेवरों और बनारसी साड़ी में दमकती आदिला, जिसकी उलझी आंखें धरती पर बिछे कीमती कालीन के बूटे गिनने से फुरसत नहीं पा रही थीं।

ये आदिला उनकी मलिका नहीं सिर्फ आदिला थी पर.. “अच्छी तो हो आदिला ?

श्रीमंत पेशवा की नजरे इनायत…’ – चुप..चुप..ये मनहूस नाम अब नहीं सुनना चाहते हम।” नाना ने विरोध करने के लिए दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए। ” पहले तुम्हारे इस शानदार संबोधन से नाना के निराश दिल में उत्साह की बिजलियां कौंधती थीं, उसकी खानदानी तलवार पर पानी चढ़ता था लेकिन अब..!, अब यह उसके टूटे दिल पर हिकारत भरी हंसी हंसता है। जंगे आजादी के रणचढ़े सिपहसालार को इस कदर दिल छोटा नहीं करना चाहिए श्रीमंत।”

आदिला ने कुर्सी खिसकाने के बहाने मुड़कर अपना कांपता चेहरा छिपा लिया। “ मलका की हैसियत से नहीं तो एक अदनी रियाया की हैसियत से मैं आपके इस पाक खिताब को याद कर सकती हूं।” उलझी पेशानी वाला नाना आदिला के मुंह से हम के बजाय मैं सुनकर अंदर ही अंदर तड़प उठा। वह साफ साफ देख रहा था, इस नए संबोधन से आदिला अपनी बेगानी हस्ती का इजहार कर रही है और इस इजहार के अंदर फैले काले कोसों की दूरी शायद उसकी प्रणय यात्रा को कभी मंजिल न मिलने देगी।

“ बगावत का ऐलान कब कर रहे हैं पेशवा?” राजनर्तकी ने बरबस बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा। ” हम वो लड़ाई हार गए आदिला, हमारी बांहों की कूबत तो तुम्हारे ही साथ विदा हो गई। ऐसा न कहिए हुजूर, एक कनीज को नजरेइनायत के तीर से इस कदर घायल मत कीजिए। तो क्या कहें आदिला” रूठे प्रणय को एक बार पूरी ताकत से मनाने के लिए नाना ने आदिला की बसंती चूड़ियों को अपने गर्म पंजों से ढक लिया। “ आज तुम खुद फैसला कर दो तुम्हारे जज्बात की महफिल में इस दीवाने की क्या कीमत थी। कीमत तो बहुत बड़ी थी लेकिन वो नहीं जो आप समझते थे श्रीमंत।”

आदिला की आवाज सूने तहखाने की दीवारों में प्राण फूंकने लगी। “ मैंने अपने मन मंदिर का देवता मानकर आपको पूजा, पर देवता के बाद भी एक औरत को एक इंसान की गरज होती है। वह इंसान आप नहीं थे। उस जगह पर हकीम सरकार पहले ही काबिज हो चुके थे। यह बात दूसरी है कि जमाने की गर्दिश ने उस मूरत पर कुछ दिनों के लिए धूल डाल दी थी। बस तुमसे हम यही जानना चाहते आदिला। नाना ने झटके से अपनी भूतपूर्व मलिका का हाथ छोड़ दिया।  “लाख लाख शुक्र तुमने मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी पहेली हल कर दी। “आपको मेरी बातों से चोट पहुंची होगी श्रीमंत ! बेशक, लेकिन हम उस चोट की शिकायत नहीं करेंगे तुमसे।” नाना ने अपने कमरबंद से तलवार खोलकर आदिला के सामने बढ़ा दी। “कभी की अपनी और आज की बेगानी आदिला से हमारी एक प्रार्थना है। पेशवा बाजीराव की यह तलवार उसे भेंटकर हम उसके सरताज जमींदार सूरज प्रसाद से दोस्ती का ऐलान करते हैं। क्या हम आदिला से यह उम्मीद करें कि वह सारा गिला भूलकर आजादी की लड़ाई में शामिल होने की सलाह देगी। बेशक पेशवा, हकीम सरकार सरे मैदान आपके साथ खून बहाएंगे। सो हमें इजाजत दो आदिला।”

नाना का दो क्षणों पहले गंभीर हुआ व्यक्तित्व फिर अपनत्व के मोह में फंस गया। “सात समंदर पार वाले इन फिरंगियों के खिलाफ हमारे दिल में बगावत का पौधा रोपने के लिए तुम एक हद तक जिम्मेदार हो पर आज उसमें फसल आने को है, उसे सींचने की जरूरत है तो उस पौधे को मुरझाता छोड़कर तुमने हाथ खींच लिया। अब यही दुआ करो कि बीती यादों का नशीला जाम पीकर हम रणभूमि में मतवाले हो सकें। हम अपने खून की एकएक बूंद की मंहगी कीमत वसूल सकें। ऐसा न कहिए श्रीमंत “ आवेश में आदिला ने नाना के बाहर मुड़े कदम रोककर उसके मुंह पर हाथ रख दिया। “हमने ऐसा कोई पाप नहीं किया जिससे हमारे मालिक को मैदानेजंग में जिस्मानी खतरा झेलना पड़े। आदिला की मुहब्बत सच्ची है तो उसकी दुआएं अपने मालिक की हर अंधेरी राहें रोशन करेंगी।“ नाना की कृतकृत्य आंखों में खुशी की बूंदें थीं। पल भर के लिए उसका मन हुआ कि हम का दुबारा इस्तेमाल कर अपनत्व का मुहर लगाने वाली आंखें मूंदकर दुआ के लिए हाथ उठाने वाली इस अपनी पराई को छूकर उसकी पवित्र समाधि भंग कर दे, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। गुजरे गवाह और हारे हुए जुआड़ी की मिली जुली चाल चलता वह अंधेरे रास्ते में खो गया।

छह जून 1857। कानपुर के आलसोल गिरजाघर पर विद्रोही नाना की तोपें ध्वंस का स्वर बनकर ब्रिटिश कंपनी की सौदागर सरकार का कलेजा दहलाने लगीं। दहेली का मानिंद जमींदार अस्तव्यस्त हो उठा। वह नाना की भेंट पेशवा बाजीराव की वह तलवार उठाता तो पेशवाई से टकराने वाले अंग्रेजों से दगाबाजी होती और फिरंगियों का साथ देता तो आदिला के आक्रोश भरे रणचंडी रूप का सामना कैसे करता !
दो नावों पर पैर रखे जमींदार अव्यवस्थित हो दहेली से भाग निकला।कानपुर में राजतिलक पाने वाले नाना का रण आह्वान उसके कानों तक नहीं पहुंच सका। 16 अगस्त 1857 का वह भयंकर संग्राम। बिठूर का पेशवा जनरल हैवलाक की गोलीबारी किर्ची की गुत्थमगुत्था में मैदान छोड़कर भाग चला। आदिला की अपनी दुआ रंग लाई। रणभूमि की जलती आग ने पेशवा वंश की पवित्र निशानी को छूने का दुस्साहस नहीं किया। मन से मरी राजनर्तकी का टूटा तन भी डगमगा गया।

बरसाती धार की तरह फूटते सरगम और ताताथेई के मौज भरे बोल अखंड मौन के खड्ड में गिरकर विलीन हो गए। बीच बीच में साज विहीन सूने स्वर उठते भी तो मन फूला फूला फिरे के निर्गुन बोल निकालते। और उस रात…. मत्युशैया-ग्रस्त आदिला की नाड़ी पकड़कर दुआरी गांव के नामी गिरामी वैद्य अयोध्या प्रसाद ने निराशा में सिर हिला दिया। हकीम फूट फूटकर रोने लगा। मृत्यु यंत्रणा के बीच राजनर्तकी ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी बांहें थाम लीं। “रोते क्यों हो हकीम कुंअर …हकीम जू ! मेरी जान प्यारी थी तो मेरी आन न लुटने देते। भला ऐसी दागभरी जिंदगी लेकर पेशवा को कैसे मुंह दिखाऊं। वे मालिक हैं, श्रीमंत हैं फिर माफ कर देंगे तो मेरी जिंदगी मौत से भी बदतर ….” और हिचकी के साथ मौत ने जमींदार के बलिष्ठ हाथों से आदिला को छीन लिया। लखपेड़ा बाग का मिलन सुवास से बसा बगीचा आदिला की अनंत निद्रा का बिस्तर बना। हकीम जू से हकीम बाबा बनने वाले सूरज प्रसाद ने चिराग की धीमी लौ के बीच उसमें जो समाधि लेख लिखवाया उसके एक एक शब्द में वेदना की सहस्र धार फूट पड़ी।

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