(आज़ादी के बाद भी कई बार शिया समुदाय के कुछ नेताओं ने इसे अपनी मस्ज़िद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन देने की बात करके इस विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान की कोशिश की….से आगे -)
इस बीच भारत के आज़ाद होने के हालात बनने लगे। इसी सुगबुगाहट के बीच सन 1946 में गोरक्षनाथ पीठाधीश्वर महंत दिग्विजय नाथ जी ने अखिल भारतीय रामायण महासभा के नाम से एक संगठन बना कर राम जन्मभूमि मंदिर के मुक्ति का आंदोलन छेड़ दिया। इसी दौरान देश आज़ाद हो गया। दिग्विजय नाथ जी के नेतृत्व में राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन जारी रहा।
जुलाई 1949 में रामभक्तों ने उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर मंदिर निर्माण की अनुमति माँगी। उत्तर प्रदेश सरकार के उप-सचिव केहर सिंह ने 20 जुलाई 1949 को फ़ैज़ाबाद डिप्टी कमिश्नर के.के नायर से राजस्व भू अभिलेखों का अध्ययन कर शासन को रिपोर्ट देने को कहा कि सम्बंधित ज़मीन नजूल की है या नगरपालिका की। साथ ही मौका मुआयना कर वास्तविक स्थित से भी अवगत कराने को कहा।
10 अक्टूबर को सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने मौका मुआयना कर कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट देते हुए कहा कि ” मौक़े पर मस्ज़िद और मंदिर अगल-बगल स्थिति हैं। हिन्दू इस मंदिर को ही राम जन्मस्थान मानते हैं और इसलिये हिंदू समुदाय इस मंदिर को सुंदर,विशाल और भव्य रूप देना चाहता है। सिटी मजिस्ट्रेट ने भू-अभिलेखों के अध्ययन के आधार पर यह भी बताया कि सम्बंधित भूमि नज़ूल अर्थात सरकारी है इसलिए यहाँ मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है।” मंदिर निर्माण के लिए अनुकूल रिपोर्ट मिलने के बाद भी सरकार अगले डेढ़ महीने तक इसके प्रति उदासीन रहते हुए चुप्पी साधे रही। आंदोलनकारियों का धैर्य जवाब दे रहा था। सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से हिंदू वैरागियों ने 24 नवंबर 1949 से मंदिर के आसपास स्थित क़ब्रिस्तान को साफ़ करके वहाँ शुद्धि-यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया।
तनाव के अंदेशे के मद्देनज़र ज़िला प्रशासन ने वहाँ एक पुलिस चौकी बनाकर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए अर्धसैनिक बल की तैनाती कर दी। इसी दौरान 23 दिसंबर 1949 की भोर अचानक शोर मचा कि कथित मस्ज़िद के अंदर रामलला की मूर्ति प्रकट हो गई है। हालाँकि कुछ लोगों के मुताबिक़ दिग्विजय नाथ जी ने ही रामलला की मूर्तियां विराजमान कर यह हल्ला मचवाया था, तो कुछ लोग कहते हैं कि मूर्तियां रखने का काम अभय रामदास और उनके साथियों ने किया था तो कुछ का मानना था कि मूर्तियां दिगंबर अखाड़ा के महंत श्री रामचंद्र परमहंस जी ने रखी। बहरहाल ये ख़बर जंगल में आग की तरह फ़ैलने लगी कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर स्वयं अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है।
मौके पर तैनात सिपाही माता प्रसाद की सूचना पर अयोध्या कोतवाली के तत्कालीन इंचार्ज रामदेव दुबे ने इस घटना पर एक मुक़दमा क़ायम करते हुए लिखा कि कुछ लोगों ने मस्जिद का ताला तोड़कर वहाँ मूर्तियाँ रख दी हैं। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए शांति व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत तत्काल कुर्की का नोटिस जारी कर दिया।
इस घटना से देश में हड़कम्प मच गया। घबराए प्रधानमंत्री पँडित नेहरू ने मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के मार्फ़त आनन फ़ानन फैज़ाबाद के कलेक्टर श्री के.के. नैयर को फ़ौरन मूर्ति हटाने के आदेश दिए मगर श्रीमान नैयर ने ऐसा करने पर क़ानून व्यवस्था की स्थिति अनियंत्रित हो जाने का हवाला देते हुए यह आदेश मानने से इंकार कर दिया।
उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को लखनऊ बुलाकर डाँट लगाई और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और फिर सुबह मूर्तियाँ क्यों नहीं हटवाईं? इस संदर्भ का उल्लेख करते हुए ज़िला मजिस्ट्रेट श्री नायर ने मुख्य सचिव भवान सहाय को एक पत्र लिखते हुए कहा कि ” इस मुद्दे को व्यापक जन समर्थन प्राप्त है। इसे रोक पाना प्रशासन के थोड़े से लोगों के वश की बात नहीं अगर हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता तो स्थिति और भी बिगड़ जाती।” इसके बाद भी नेहरू के निर्देश पर जब प्रशासन ने मूर्तियां हटाने के लिए दबाव बनाया तो श्री नायर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि ” स्थानीय स्थितियों की वास्तविकता का ध्यान रखते हुए स्वयं वह और ज़िला पुलिस कप्तान मूर्ति हटाने के विचार से बिल्कुल सहमत नहीं हैं,इसके बावजूद अगर सरकार किसी भी क़ीमत पर ऐसा करना ही चाहती है तो उन्हें वहाँ से हटाकर कोई दूसरा अफ़सर तैनात कर के मूर्तियां हटवा दे।”
नेहरू और के.के नैयर
उन्हें आदेश न मानने पर नौकरी से बर्खास्त करने की धमकी दी गई। इससे पहले कि इस धमकी पर अमल हो श्री नायर नौकरी छोड़कर हिंदू नेता बन गए। यकीन मानिए अगर पँडित नेहरू ने हिंदू संवेदनाओं से खिलवाड़ न करते हुए दूरदृष्टि और सूझबूझ दिखाई होती तो सोमनाथ मंदिर की ही तरह अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण आज़ादी के बाद ही हो गया होता। यही नहीं अयोध्या के साथ ही काशी और मथुरा के मसले भी हल हो गए होते जहां ये जानने के लिए किसी सुबूत की ज़रूरत नहीं कि मंदिर तोड़कर ही वहाँ विवादित मस्जिदें बनाई गई हैं। खुली आँख वाला कोई भी व्यक्ति ये सत्य वहाँ देख सकता है।
आज़ादी के बाद कश्मीर समेत यह सब विवादित मुद्दे विरासत में भारत को किसकी देन हैं आज देश और दुनिया सब इससे परिचित हैं। हमारे वो मुस्लिम भाई जिन्होंने अदालत से विवादित स्थल की खुदाई करवा के ये सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया था कि विवादित ढाँचे के नीचे कभी कोई मन्दिर था, क्योंकि लगातार उनकी ये दलील रही थी कि उनकी कथित मस्ज़िद तो समतल भूमि पर बनाई गई थी उसके निर्माण से पहले वहाँ कभी कुछ और नहीं था। खुदाई के बाद ये साफ़ हो जाने के बाद कि मन्दिर को ज़मीदोज़ करके उसके ऊपर ही मस्ज़िद बनाई गई थी,क्या अब कभी किसी अदालत में ये गुहार भी लगाएँगे कि कोई राष्ट्रीय डी.एन.ए. आयोग गठित करके ये पता लगाया जाय कि इस्लाम क़ुबूल कर परिवर्तित होने से पहले वो किस धर्म-जाति से थे ! ये सुनिश्चित करके उन्हें उनकी मूल जातियों में परिवर्तित किया जाय।
बहरहाल इस बिंदु के विस्तार में जाने से भटकाव हो जाएगा इसलिए वापस मूल विषय पर चलते हैं। तो शांति व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के तहत कुर्क होने के बाद विवादित परिसर पर अब ज़िलाप्रशासन का नियंत्रण हो चुका था। हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट मार्कण्डेय सिंह द्वारा की गई कुर्की की यह कार्यवाही हिंदुओं के कब्ज़े को वैधानिकता प्रदान करने के उद्देश्य से ही की गई थी। किंतु कोई भी संवेदनशील और समझदार व्यक्ति ये अंदाज़ लगा सकता है कि उसी समय विशुद्ध धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा होने और उसके बाद बने पाकिस्तान से हिंदुओं की कटी हुई लाशों से भर भर आई गाड़ियों के साथ ही देश के कई भागों में हुए दंगों में हुए क़त्ल-ए-आम के दृश्य देखने के बाद इन स्थितियों में यदि हिन्दू उग्र होते हुए प्रतिक्रियावादी हो जाता तो देश में बचे उन मुसलमानों का क्या हाल होता ! जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के प्रबल विरोध के बावजूद मात्र गाँधी जी और पँडित नेहरू के हठ के कारण हिंदुस्तान में रह गए थे।
बहरहाल अब वहाँ रामलला विराजमान थे और परिसर प्रशासन के नियंत्रण में था इसलिए नगरपालिका चेयरमैन श्री प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त करके वहाँ रखी मूर्तियों की पूजा और भोग आदि की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी उन्हें दी गई।
इस मुद्दे पर पँडित नेहरू की सोच क्या थी इसका अंदाज़ इस दौरान मुख्यमंत्री पंत को लिखे उनके पत्र के मज़मून से लग जाता है। इस पत्र में उन्होंने लिखा था ” इस घटना का पूरे देश, विशेषकर कश्मीर पर बुरा असर पड़ेगा,जहाँ की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी ने भारत के साथ रहने का फ़ैसला किया है। मेरा गृह राज्य होने के बावजूद उत्तर प्रदेश में मेरी बात न सुनते हुए स्थानीय कांग्रेस नेता सांप्रदायिक होते जा रहे हैं “। स्पष्ट है पँडित नेहरू को देश भर और ख़ासकर कश्मीर के मुसलमानों की भावनाओं की तो चिंता सता रही थी किंतु उनके लिए धार्मिक आधार पर अपना ही अंग कटवा कर हासिल हुए अपने देश के हिंदुओं की भावनाओं का कोई मोल-महत्व नहीं था। वो मुसलमानों की चिंता करते हुए भी धर्मनिरपेक्ष थे किंतु उन्ही की पार्टी के अन्य नेता अगर हिंदू भावनाओं का आदर कर रहे थे तो वो उनकी निगाह में साम्प्रदायिक थे। इससे पता चलता है आज़ाद हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता की विकृत परिभाषा के सूत्रधार पँडित नेहरू ही थे।
क्रमशः –
(तथ्य सन्दर्भ –प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,साहिफ़ा-ए-चिली नासाइ बहादुर शाही, बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)
( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)