(….इससे पता चलता है आज़ाद हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता की विकृत परिभाषा के सूत्रधार पँडित नेहरू ही थे, …से आगे)
नेहरू के सुर में सुर मिलाते हुए फ़ैज़ाबाद ज़िला कांग्रेस महामंत्री अक्षय ब्रह्मचारी ने इस घटना के विरोध में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री को ज्ञापन दिया। विधानसभा में यह मुद्दा उठने पर सरकार ने एक लाइन का जवाब दिया कि मामला न्यायालय में है इसलिए इस मामले में कुछ कहना उचित नहीं। इस बीच यह ख़बरें भी आईं कि कुछ मुस्लिम विवादित परिसर से मूर्तियां हटाने का उपक्रम कर रहे हैं। इन खबरों के बीच गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी 1950 को ज़हूर अहमद और अन्य ( कुछ मुसलमानों ) के खिलाफ़ सिविल जज की अदालत में वाद दायर करते हुए माँग की कि जन्मभूमि में विराजमान श्री राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए। साथ ही उन्होंने यह माँग भी की कि उन्हें व अन्य हिंदुओं को वहाँ जाने और दर्शन-पूजा आदि करने से न रोका जाए। सिविल जज ने मामले की सुनवाई करते हुए उसी दिन सम्बंधित स्थागनादेश जारी कर दिया। इस स्थागनादेश को बाद में कुछ संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित किया।
दूसरे पक्ष द्वारा इस स्थगनादेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी गई। यह मामला इलाहाबाद में पाँच साल तक लंबित रहा। इस बीच के.के नायर तो जा चुके थे उनके स्थान पर नए जिला मजिस्ट्रेट जे.एन उग्रा की तैनाती कर दी गई थी। ज़ाहिर है श्री उग्रा की तैनाती पँडित नेहरू की मंशा को मूर्तरूप देने के लिए हुई थी सो उन्होंने आते ही सिविल कोर्ट में इस बारे में अपना पहला जवाबी हलफ़नामा दाख़िल करते हुए कहा – “ विवादित संपत्ति बाबरी मस्ज़िद के नाम से जानी जाती है। मुसलमान इसमें लंबे समय से नमाज़ पढ़ते आ रहे हैं। इसे राम चन्द्र जी के मंदिर के रूप में इस्तेमाल करने के प्रमाण नहीं हैं। 22 दिसंबर 1949 की रात वहाँ चोरी-छिपे श्री रामचंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गई थीं ”। आप इस हलफनामे का अध्धयन करें तो पाएँगे कि इसकी भाषा मन्तव्य सब कुछ बिल्कुल वही हैं जो 1877 में अंग्रेज़ कमिश्नर की रिपोर्ट में शामिल थे। तब अंग्रेज़ कमिश्नर ने पहली बार ‘ बाबरी मस्ज़िद ‘ का नाम देते हुए इस मसले को उलझाते हुए हिन्दू-मुस्लिम के बीच बांटो और राज करो का दाँव खेला था। वास्तविकता की अनदेखी करते हुए ठीक उसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति इस हलफ़नामे के ज़रिये की गई थी।
इस हलफ़नामे के दाख़िल होने से खिन्न होकर दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस दास जी ने इसे बकवास बताते हुए दूसरा सिविल वाद दायर किया।
मामले की सुनवाई के बाद अदालत ने एक बार पुनः मन्दिर से मूर्तियाँ न हटाने और पूजा-पाठ जारी रखने की यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। हालाँकि परमहंस जी के इस मामले की सुनवाई जारी रही। 1989 में रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल जी द्वारा स्वयं भगवान राम की मूर्ति को एक ‘न्यायिक व्यक्ति’ क़रार देते हुए नया मुक़दमा दायर किये जाने के बाद परमहंस जी ने अपना केस वापस ले लिया।
1951 में निर्मोही अखाड़ा ने एक अन्य वाद दायर करते हुए माँग की कि जन्मस्थान मंदिर का प्रबंधक होने के नाते जन्मस्थान मंदिर में पूजापाठ और प्रबंधन का अधिकार उसे दिया जाय। इसके बाद 1961 में नौ स्थानीय मुसलमानों को साथ लेकर सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की ओर से इस मामले में चौथा मुक़दमा दायर करते हुए मस्जिद के साथ ही इसके अगल-बगल स्थित क़ब्रिस्तान की ज़मीनों पर भी मालिकाना हक़ का दावा किया गया। ज़िला अदालत ने इन चारों मुक़दमों को ‘क्लब’ करते हुए एक साथ सुनवाई करने का निर्णय लिया।
इस उच्च विवादस्पद और बेहद तनावपूर्ण मामले से सम्बंधित मुकद्दमे में अगले लगभग दो दशक की सुनवाई के दौरान एक ऐसी नज़ीर देखने को मिली जो सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही सम्भव है। दरअसल इस मामले में हिंदुओं की तरफ़ से पक्षकार थे महंत श्री रामचन्द्र परमहंस तो मुस्लिम पक्ष के पैरोकारी कर रहे थे जनाब हाशिम अंसारी। गंगा-जमुनी तहज़ीब की जैसी मिसाल इन दोनों ने पेश की वो कहीं मिलना मुश्किल है। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ मुकद्दमे की सुनवाई के दिन दोनों ही पक्षकार एक दूसरे के घर पँहुच कर उन्हें आवाज़ देकर बुलाते और एक ही गाड़ी या कभी कभी रिक्शे पर भी बैठकर हँसते-बतियाते कचहरी पँहुचते।
यही नहीं दोनों ही जब-तब बेहिचक रात-बिरात भी एक दूसरे के घर पँहुच जाते थे। मुझे याद है महंत श्री रामचन्द्र परमहंस जी के देहावसान पर मीडिया चैनल को प्रतिक्रिया देते हुए हाशिम अंसारी की आँखों से आँसू छलक पड़े थे। उन्होंने कहा था ” आज मैंने अपना सबसे अच्छा दोस्त खो दिया। ” इन दोनों विभूतियों की इस दोस्ती का करिश्मा था कि लंबे अरसे तक रही तनावपूर्ण स्थिति के बावजूद अयोध्या के स्थानीय हिंदू और मुसलमान अच्छे पड़ोसी की तरह रहे। आज़ादी के बाद वहाँ कभी कोई साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। हालाँकि अयोध्या में शांति और यथास्थिति तो कायम रही किंतु लंबे समय से इस मसले का समाधान न निकलते देख देश भर में आक्रोश बढ़ता जा रहा था।
इस विषय पर चिंतन के लिए विश्व हिन्दू परिषद की तरफ़ से 7 और 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन किया गया। इस धर्म संसद में श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या,श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा और काशी स्थित श्री बाबा विश्वनाथ मंदिर की भूमि को मुक्त कराने का प्रस्ताव रखा गया। 18 जून 1984 को लक्ष्मण किला, अयोध्या में संत-महात्माओं एवं विश्व हिन्दू परिषद की बैठक संपन्न हुई और सबसे पहले श्रीराम जन्मभूमि को मुक्त कराने का निर्णय लिया गया। 27 जुलाई 1984 को अयोध्या के वाल्मीकि भवन में ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ का गठन किया गया जिसमे मौजूद संतो समेत सभी लोगों ने श्री गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत श्री अवेद्यनाथ जी महाराज को सर्वसम्मति से इस समिति का अध्यक्ष घोषित किया।
इस समिति के प्रति समर्थन और मुक्तियज्ञ में जनसहभागिता के उद्देश्य से रामजानकी की झाँकी से सुसज्जित एक मोटर-रथ का निर्माण हुआ। 25 सितंबर को यह रथ बिहार के सीतामढ़ी से रवाना हुआ,आठ अक्टूबर को अयोध्या पहुँचते-पहुँचते विराट जन समर्थन के ज़रिए इस जनजागरण यात्रा ने वृहद जन आंदोलन का रूप ले लिया। मंदिर निर्माण के लिए सम्बन्धित भूमि हिंदुओं को सौंपने की माँग के साथ साधु संतों ने राम जन्मभूमि न्यास का गठन किया। इस न्यास के गठन के बाद अभूतपूर्व जन समर्थन जुटाते यह यात्रा लखनऊ होते हुए 31 अक्टूबर को दिल्ली पहुँची। दुर्योग से उसी दिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली समेत देश के अन्य हिस्सों में अत्यंत दुःखद और भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई। अराजकता का आलम यह था कि दिल्ली की सड़कों गली-मोहल्लों में कांग्रेसियों और उनके खूँखार साथियों ने घूम घूम कर सिख भाइयों का खुलेआम कत्लेआम किया। सिख भाइयों के गले मे टायर डालकर उन्हें ज़िंदा जला देने तक की अनेक हृदयविदारक घटनाएं समाचारों की सुर्खियां बनीं। इंदिरा गाँधी की दुखद मृत्यु और उसके बाद कांग्रेस प्रायोजित इस अशांति के कारण न्यास ने दो नवंबर को प्रस्तावित विशाल हिंदू सम्मेलन समेत अपने अन्य कार्यक्रम स्थगित कर दिए।
इसके एक वर्ष बाद 31 अक्टूबर और 1 नवम्बर 1985 को उडुपी में आयोजित धर्म संसद में यह निर्णय लिया गया कि अगली महाशिवरात्रि यानी छह मार्च 1986 तक यदि श्रीराम जन्मभूमि का ताला नहीं खोला जाता, तो देश भर के संत-धर्माचार्य 09 मार्च से अनिश्चितकालीन सत्याग्रह शुरू कर देंगे। इस देशव्यापी सत्याग्रह के संचालन का दायित्व भी महंत श्री अवेद्यनाथजी महाराज को ही दिया गया। इसी दौरान राम मन्दिर आंदोलन को नई ऊर्जा और धार देने के लिए बजरंग दल का भी गठन किया गया। आंदोलनकारियों के तीखे तेवर और जनभवनाओं में आते उबाल को देखते हुए उत्तर प्रदेश की तत्कालीन वीर बहादुर सिंह सरकार ने विवादित स्थल के पास लगभग 42 एकड़ भूमि अधिग्रहित कर विशाल राम कथा पार्क के निर्माण का ऐलान करने के साथ ही सरयू नदी से अयोध्या के पुराने घाटों तक नहर बनाकर राम की पैड़ी बनाने का काम भी शुरू करवा दिया। किंतु रामभक्तों को इस झाँसे में फँसने से इंकार करते हुए आंदोलन स्थगित करने से मना कर दिया।
इस बीच 21 जनवरी 1986 को एक स्थानीय युवा वकील उमेश पांडे ने फ़ैज़ाबाद सदर के मुंसिफ मजिस्ट्रेट की अदालत में एक अर्ज़ी लगाई कि मुकदमा संख्या- 02/1950 में वर्णित व्यवस्था के अनुसार श्रीराम जन्मभूमि पर ताला लगाना और सशस्त्र पुलिस तैनात करके लोगों को आने-जाने से रोकना अवैध है। इसलिए तत्काल ये ताला खोला जाना चाहिए। मामले की सुनवाई शुरू हुई। मामले के निस्तारण के लिए पहले यह जानना आवश्यक था कि 1949 में मूर्तियां प्रकट होने या रखने के बाद ये ताला आख़िर लगा कब और कैसे ? इस बारे में तत्कालीन जज या सक्षम अधिकारी का आदेश क्या है ? मुंसिफ सदर ने तत्कालीन सिटी मजिस्ट्रेट सभाजित शुक्ला से इस मामले में रिपोर्ट तलब की। सिटी मजिस्ट्रेट ने 1949 से लेकर 1985 तक के रिकॉर्ड की सघनता से जांच की। मामले की सम्वेदनशीलता को देखते हुए रिकॉर्ड्स को कई कई बार खंगाला गया। लेकिन नतीजा आष्चर्यचकित करने वाला था। सिटी मजिस्ट्रेट की जांच में ये तथ्य सामने आया कि किसी अदालत या ज़िला प्रशासन ने विवादित स्थल पर ताला बंद करने का कोई आदेश तो कभी दिया ही नहीं।
ऐसे में ये सवाल उठना लाज़मी था कि जब ताला बंद करने का कोई आदेश कभी हुआ ही नहीं तो फिर इतने लंबे अरसे से रामलला आख़िर क़ैद में क्यों हैं ! हालाँकि कयास ये लगाया गया कि मंदिर में मूर्तियां स्थापित होने के बाद तत्कालीन परस्थितियों में सुरक्षा को ध्यान रखते हुए ताला बंद कर दिया गया होगा,किंतु किसी सामान्य व्यक्ति के लिए भी उस तथ्य के आलोक में यह अंदाज़ लगाना कठिन नहीं कि पँडित नेहरू इस घटनाक्रम से ख़ुश नहीं थे,इसलिए उनकी इच्छानुसार बिना किसी क़ानूनी प्रक्रिया के यहाँ ताला लगा दिया गया होगा। हालाँकि ताला खोले जाने के लिए सिटी मजिस्ट्रेट की ये रिपोर्ट काफी थी किंतु इसपर करवाई नहीं हुई। याची अधिवक्ता उमेश पांडे ने सिटी मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट का हवाला देते हुए मुंसिफ मजिस्ट्रेट की अदालत में एक बार फिर विवादित स्थल का ताला खोलने की गुहार लगाई , जिसे मुंसिफ मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट लखनऊ में होने का हवाला देते हुए खारिज़ कर दिया।
इसके बाद मामला ज़िला जज श्री के एम पांडे की अदालत में पँहुचा। ज़िला जज में मेरिट के आधार पर तत्परता दिखाते हुए अपनी सुनवाई करीब एक महीने में ही पूरी कर ली। आदेश पारित करने से पहले उन्होंने क़ानून व्यवस्था के मद्देनज़र फैज़ाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान को अपनी अदालत में तलब किया। ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान ने ज़िला जज की अदालत में उपस्थित होकर अदालत को आश्वस्त किया कि ताला खुलने की स्थिति में नगर की शांति व्यवस्था क़ायम रखने में कोई परेशानी नहीं होगी। इस अवश्वान के बाद अब रामलला को क़ैद में रखने का कोई औचित्य नहीं था। 1 फरवरी 1986 को ज़िला जज के.एम पांडेय की अदालत ने विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश दिया।
आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि 1949 के बाद तीन दर्जन से ज़्यादा सालों के दौरान फैज़ाबाद की अदालत में एक दर्जन से ज़्यादा ज़िला जज आए लगभग सभी ने इस मामले की सुनवाई भी की,रामलला को क़ैद से मुक्त करने की बात उन सबके सामने भी आई ही होगी। लेकिन किसी ने इस तथ्य को जानने की कोशिश नहीं की कि रामलला ताले में बंद हैं तो आख़िर किसके किस आदेश के तहत ! सब के सब इस मामले में सिर्फ़ तारीख़ पे तारीख़ वाली खानापूर्ति करते हुए स्थानांतरित होकर या अपना कार्यकाल पूरा करके चले गए। किसी ने भी इस मुकदमे में कोई फ़ैसला लेने की हिम्मत नहीं दिखाई। किंतु विद्वान न्यायाधीश श्री के.एम पांडे ने फैज़ाबाद के ज़िला जज की कुर्सी पर बैठने के एक साल के भीतर ही मात्र एक महीने की सुनवाई के बाद अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुना दिया।
कुछ लोग राम जन्मभूमि का ताला खोले जाने का श्रेय राजीव गाँधी को देते हैं। जबकि इसके पीछे का वास्तविक कारण बताते हुए न्यायाधीश श्री के.एम पांडेय जी के साथी रहे फैज़ाबाद के तत्कालीन चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट श्री सी.डी राय ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था –
‘ फैज़ाबाद ज़िला जज का पदभार ग्रहण करने के बाद श्री पांडेय जी सबसे पहले रामलला का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए श्री राम जन्मभूमि दर्शन करने गए। दर्शन के बाद वापस लौटते हुए उन्होंने मन्दिर के नज़दीक खड़े एक साधु से रामलला के ताले में बंद होने के बारे प्रतिक्रिया जाननी चाही। निर्भीक साधु का बेबाक़ जवाब था – ‘ रामलला को ताले में क़ैद रखने के ज़िम्मेदार राजनेता,अदालत और आप हाकिम लोग हैं ‘। साधु ने पांडेय जी को चुनौती भरे अंदाज़ में आगे कहा ‘ हिम्मत है तो आप ही इस मामले में फ़ैसला सुना दीजिये ‘। राय साहब के मुताबिक़ साधु की इस बेबाक़ टिप्पणी ने श्री पांडेय जी को कहीं अंदर तक झकझोर दिया। उन्होंने सम्भवतः उसी समय ये संकल्प ले लिया था कि वो जल्दी से जल्दी इस मामले में सुनवाई पूरी करते हुए अपना फ़ैसला सुनाएँगे।’
इस बात की तस्दीक़ इस तथ्य से होती है कि श्री पांडेय जी ने इस मामले में मात्र एक महीने की सुनवाई करने के बाद अपना फ़ैसला सुना दिया। इस तरह राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने का श्रेय यदि किसी व्यक्ति को जाता है तो बजाय राजीव गाँधी के वो हैं वो निर्भीक साधु। क्योंकि न्यायाधीश श्री पांडेय जी तो निष्ठापूर्वक मात्र अपने न्यायिक दायित्व का निर्वहन ही कर रहे थे,जबकि उन्हें फ़ैसला करने को प्रेरित करने वाले थे वो साधु महाराज। इस संदर्भ में राजीव गाँधी का सच तो यह है कि इस फ़ैसले के बाद संतुलन साधने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव पर विशुद्ध मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक-संवैधानिक फ़ैसले को पलटने के लिए आनन फ़ानन संसद में क़ानून पारित करा दिया। मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की ऐसी दूसरी मिसाल ढूँढने से भी शायद ही मिले। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजीव गाँधी के इस शर्मनाक निर्णय की तीखी आलोचना हुई। बहरहाल राम जन्मभूमि का ताला खुलना आज़ाद हिंदुस्तान में संतों रामभक्तों समेत तमाम हिंदुओं की पहली न्यायिक और निर्णायक जीत थी।
इस फ़ैसले के बाद इस चिरप्रतीक्षित प्रकरण का पटाक्षेप हो सकता था किन्तु इसी बीच मुस्लिम समुदाय ने कथित मस्ज़िद की रक्षा के नाम पर मोहम्मद आज़म खान और ज़फ़रयाब जिलानी की अगुआई में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर आंदोलन शुरू करते हुए मुद्दे को नई हवा दे दी। इसकी प्रतिक्रिया में अप्रैल 1986 में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति समिति के अध्यक्ष महन्त श्रीअवेद्यनाथ जी महाराज ने राजस्थान के नागौर में घोषणा की कि जब तक श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को पूर्णरूपेण नहीं सौंपी तब तक समिति का संघर्ष जारी रहेगा। समिति ने अन्य हिन्दू संगठनों के साथ मिलकर हिन्दू समाज को पुनर्जागृत करते हुए 29 मार्च 1987 से एक आक्रामक आंदोलन की शुरूआत जिसकी अनुगूँज लोकसभा तक पहुंची। लोकसभा में इस मसले पर 1 अप्रैल 1987 को तीखीं झड़पें हुईं। कुछ सदस्यों ने विवादित ढाँचे के पक्ष में बोलते हुए विवादित स्थल के अलावा अन्य स्थान पर राम मन्दिर बनाए जाने का सुझाव रखा। विवादित परिसर में विराजमान रामलला समेत अन्य मूर्तियों को भी वहाँ से हटाने के भी सुझाव दिए गए। ऐसे सुझावों का जवाब देते हुए महंत श्री अवैद्धनाथ जी महाराज ने गोरखपुर में कहा कि सामान्य मन्दिर-मस्जिद का स्थान तो बदला जा सकता है किंतु श्रीराम का जन्म स्थान कैसे बदला जा सकता है।
क्रमशः –
(तथ्य सन्दर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,साहिफ़ा-ए-चिली नासाइ बहादुर शाही, बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)
( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)