- क्या है सावन के सोमवार का महत्व ?
- 14 जुलाई दिन गुरुवार से 12 अगस्त दिन शुक्रवार तक श्रावण मास
- इस वर्ष श्रावण मास में रहेंगे चार सोमवार
आखिर भगवान शिव को श्रावण मास कितना अधिक प्रिय क्यों है? और वे इस समयावधि में पृथ्वी पर आकर क्यों रहते हैं? शिव के लिंग रूप का प्राकट्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को हुआ था। श्रावण मास में उनसे संबंधित किसी भी लीला का वर्णन नहीं मिलता है। फिर भगवान शिव की बृहद स्तर पर श्रावण मास की उपासना क्यों की जाती है? इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है। पुराणों में चार माह का विशेष महत्व बताया गया है यह महीने क्रमशः कार्तिक, माघ , वैशाख और श्रावण हैं। श्रावण मास भगवान शिव की पूजा उपासना और व्रत के लिए महत्वपूर्ण है। भगवान शिव ने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार की जिज्ञासा को शांत करने के लिए कहा था कि” वर्ष के 12 माह में श्रावण मास मुझे अधिक प्रिय है।” सती ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपना शरीर होम करने के पश्चात हिमाचल की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया। तब उन्होंने पार्वती रूप में श्रावण मास में ही भगवान शिव की उपासना की थी। जिसके कारण भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया। यही कारण है कि भगवान शिव को श्रावण मास अति प्रिय है। भगवान शिव ने यह बात स्वयं कहा है।
प्रथम सोमवार 18 जुलाई
इस दिन पूर्वा भाद्रपद और उत्तराभाद्र नक्षत्र को सुयोग तथा चन्द्रमा की स्थिति मीन राशि है। राशि स्वामी बृहस्पति देव रहेंगे। शोभन योग होने से इस दिन का व्रत शुभता की अभिवृद्धि करने वाला रहेगा। पूर्व पापों का उपशमन करके सद्गुणों की ओर ले जाने वाला है।
द्वितीय सोमवार 25 जुलाई
इस दिन मृगशिरा नक्षत्र सम्पूर्ण दिन और रात्रि शेष तक है।राशि स्वामी शुक्र और बुध दोनों ही हैं। ये दोनों ही ग्रह शुभ हैं। आनन्द नामक औदायिक योग भी है। अतः इस दिन के व्रत से धर्म और अर्थ के क्षेत्र में अभ्युदय प्रदान करने वाला रहेगा।
तृतीय सोमवार पहली अगस्त
इस दिन पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी दोनों नक्षत्रों का सुयोग है। चन्द्रमा की स्थिति कन्या राशि है और राशि स्वामी व्यापार की वृद्धि करने वाले बुध ग्रह है। इस दिन ध्वज नामक औदायिक योग है। यह चतुर्दिक उन्नति के साथ धन धान्यादि में वृद्धि कारक रहेगा। व्यापार में आने वाली बाधाओं का निराकरण करने वाला रहेगा।
चतुर्थ सोमवार 8 अगस्त
इस दिन ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र की स्थिति है। नक्षत्र स्वामी भौम और बृहस्पति दोनों है। परन्तु सोमवार के दिन प्रातः काल ज्येष्ठा नक्षत्र होने से पद्म नामक औदायिक योग है। इस दिन का व्रत सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहेगा।इस दिन के व्रत से चतुर्थ पुरुषार्थ सहित समस्त कामनाओं की सम्पूर्ति होगी। यह आध्यात्मिक सोच को भी विकसित करने वाला रहेगा। सनातन धर्म में चैत्रादि द्वादश मास के आध्यात्मिक महत्व को स्पष्ट किया गया है। उसमें किए जाने वाले व्रत और नियमों को उल्लिखित किया गया है। इन व्रत नियमों का सामंजस्य प्रकृति और ऋतुओं के अनुसार है। इन सभी में श्रावण मास का विशेष महत्व है । श्रावण मास के दौरान संपूर्ण भारतवर्ष में वर्षा का मौसम रहता है। इस दौरान भगवान शिव का पृथ्वी पर आगमन होने के कारण सभी शिव भक्तों द्वारा उनकी विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। उनके भक्त अनुष्ठान के सभी नियमों का पालन करते हुए मास पर्यंत उनकी विशेष पूजा उपासना करते हैं। सभी शिवालयों में शिव के वैदिक और पौराणिक मंत्र गुंजायमान होते हैं। कावड़ यात्री अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए सिद्ध जलाशयों से या पवित्र नदियों से जल लाकर शिवालय में अर्पित करते हैं।
श्रावण मास तथा श्रवण नक्षत्र से भगवान शिवशंकर का गहरा सम्बंध है। इसी काल में वे श्री हरि के साथ मिलकर पृथ्वी पर लीलाएं रचते हैं।इस मास की यह विशेषता है कि इसका कोई भी दिन शून्य नहीं रहता है। प्रत्येक दिन और तिथि का अपने आप में विशेष महत्व है।इस महीने में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, शतरुद्रि पाठ और पुरुष सूक्त का पाठ एवं पंचाक्षर,साक्षर, शिव मंत्रों व नाम जप जब विशेष फल देने वाला है। श्रावण मास का महत्व सनने अर्थात श्रवण योग्य होने से इस मास का नाम श्रवण हुआ। पूर्णिमा तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने से इसका इस मास श्रावण नाम रखा गया जो सामान श्रवण (सुनने) मात्र से सिद्धि देने वाला है। सोम का दूसरा नाम चन्द्रमा है जिसे भगवान शिव अपने ललाट में धारण किए रहते हैं।इस दिन का शिव जी से अभिन्न सम्बन्ध है। सोमवार भगवान भोलेनाथ का ही स्वरुप ही है। श्रावण मास के प्रथम सोमवार से प्रारंभ कर 16 सोमवार व्रत करने का निर्देश शास्त्रों में वर्णित है। यदि सोलह सोमवार न रख सकें तो इस मास में आने वाले सोमवार व्रत का ही आयोजन करें। श्रावण मास की प्रत्येक तिथि परम पावन है और भगवान शिव जी के सहित अन्य देवताओं के लिए समर्पित है।
इस महीने में भक्तगण शिव की आराधना में संलग्न होकर प्रतिदिन जलार्पण का संकल्प लेते हैं। इस माह में जल भी सुगमता से उपलब्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव जी इसी महिने में समुद्र मंथन के दौरान विषपान किए थे और उनके ताप का शमन करने के लिए देवगणों ने जल से उनका अभिषेक किया था। प्रकृति और स्वयं मेघ द्वारा भी निरन्तर भगवान शिव जी का अभिषेक होता रहता है। प्रकृति के साथ सहयोग करते हुए भक्त जन भी अभिषेक में सहयोग करते रहते हैं। इसी कारण भगवान शिव भूतल पर आ जाते हैं और अपने भक्तों को विशेष आशिर्वाद प्रदान करते हैं। ऐसा नहीं है कि श्रावण मास में अन्य देवी देवताओं के निमित्त व्रत नहीं होते हैं लेकिन इस मास में किए जाने वाले व्रतों में अधिकांश व्रत भगवान शिव को समर्पित है।।
सावन महीने में सोमवार को सोमवारी व्रत होता है। इसे रोटक व्रत कहतें हैं। सोमवार का दिन शिव को अत्यंत प्रिय है। मंगलवार को मंगला गौरी व्रत, बुधवार को बुध गणपति व्रत , बृहस्पतिवार को बृहस्पति देव व्रत , शुक्रवार को जीवंतिका देवी व्रत, शनिवार को बजरंगबली व नरसिंह व्रत और रविवार को सूर्यव्रत होता है। प्रतिपदा को अग्नि व्रत, द्वितीया को ब्रह्मा, तृतीया के गौरी, चतुर्थी के गणनायक ,पंचमी के नाग देवता, सृष्टि के स्कन्द भगवान ,सप्तमी के शीतला, अष्टमी के शिव जी, नवमी के दुर्गा, दसवीं के यम, एकादशी के स्वामी विश्वदेव हैं। इसी तरह द्वादशी के भगवान श्री हरि ,त्रयोदशी के कामदेव, चतुर्दशी के शिव , अमावस्या के पितर और पूर्णिमा की स्वामी चंद्र देवता है ।श्रावण शुक्ल पक्ष के व्रत इसके बारे में कहा गया है कि- द्वितीया को औदुंबर व्रत, तृतीया को गौरी व्रत, चतुर्थी को दूर्वा गणपति व्रत, पंचमी को उत्तम नाग पंचमी व्रत , षष्ठी को सुपौदन व्रत, सप्तमी को शीतला देवी व्रत, अष्टमी और चतुर्दशी को देवी व्रत नवमी को नक्त व्रत दसवीं को आशा व्रत, एकादशी को भगवान हरि व्रत, द्वादशी को श्रीधर व्रत, त्रयोदशी को प्रदोष व्रत, चतुर्दशी को माहेश्वर व्रत, अमावस्या को पिठोरा,कुशोत्पाटन और बृषभो का अर्चन करें। श्रावण पूर्णिमा को उत्सर्जन,उपागम सभा, दीप उपाकर्म की सभा, में रक्षाबंधन, श्रावणी कर्म, सर्प बलि तथा हयग्रीव नाम के सात व्रत सावन पूर्णिमा को किए जाते हैं।
श्रावण मास श्रवण नक्षत्र के स्वामी चंद्र और चंद्र के स्वामी भगवान शिव श्रावण मास के अधिष्ठाता देवाधिदेव त्रयंबक शिव ही हैं। श्रावण में एक मास तक शिवालय में स्थापित प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग, धातु से निर्मित शिवलिंग का गंगाजल व दूध से अभिषेक करें। रुद्राभिषेक करने से शिव जी की पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त होती है। वहीं उत्तरवाहिनी गंगा जल, पंचामृत का अभिषेक भी महाफलदायी है। कुशोदक से व्याधि शांति, जल से वर्षा, दही से पशुधन,ईंख के रस से लक्ष्मी, मधु से धन, दूध से एवं एक हजार मंत्रों सहित घी की धारा से पुत्र व वंश वृद्धि होती है । श्रावण मास में द्वादश ज्योतिर्लिंग के उपर उत्तरवाहिनी गंगाजल कांवर में लेकर पैदल यात्रा कर अभिषेक करने मात्र से अश्वमेध यज्ञ के समान फल मिलता है। उं नमः शिवाय- मंत्र के जप से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है।
शिवजी का श्रावण में जलाभिषेक प्रसंग कथा इस प्रकार है। सतयुग में देव दानव के मध्य अमृत प्राप्ति के लिए सागर मंथन हो रहा था । अमृत कलश से पूर्व कालकूट नामक विष निकला था। उसकी भयंकर लपट होने के कारण सभी देवगण ब्राह्मा जी के पास गये । ब्रह्मा जी ने अपने तपोबल से कहा कि अब शिव जी ही सृष्टि को बचा सकते हैं। सभी देव गणों की प्रार्थना पर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें वस्तुस्थिति को जान कर, पश्चात ब्रह्मा जी के अनुरोध पर संसार के रक्षा हेतु तुरंत विष को एकत्रकर पी गये। और संसार से बच गया। विष को अपने कंठ में अवरुद्ध कर लिया। अतः उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ का कहलाए। इसी से इनका नाम शिव के साथ नीलकण्ठ भी है। समुद्र मंथन से निकले उस विष पान के बारे में मान्यता है कि उस समय श्रावण का ही महीना था और इस विषय को शांत करने के लिए देवताओं ने तापनाशक बेलपत्र चढ़ाकर गंगाजल से शिव का पूजन व जलाभिषेक किया था।तभी से जलाभिषेक की परंपरा का श्रीगणेश हुआ।शिव का एक अर्थ जल होता है और यही जल प्राण है। शिवलिंग पर जलाभिषेक करने का अर्थ है अपने प्राणों का विसर्जन कर परम तत्व में समर्पण कर देना।