आज 2 अगस्त (मंगलवार) को नागपंचमी का त्योहार है।इस दिन सूर्योदय 5 बजकर 25 मिनट पर और शुक्र पंचमी तिथि का मान सम्पूर्ण दिन और रात्रि 2 बजकर 25 मिनट पर्यन्त,इस दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र दिन में 3 बजकर 47 मिनट, पश्चात हस्त नक्षत्र है। इसी प्रकार शिव योग भी सांयकाल 5 बजकर 53 मिनट तक विद्यमान है।इस दिन दाता नामक शुभ औदायिक योग भी है। चन्द्रमा की स्थिति कन्या राशि पर है जिसका स्वामी बुध नामक सौम्य ग्रह है।दोनों योग शुभ होने से इस दिन नागदेवता के पूजन और शिव के अर्चन से राहु केतु सहित काल सर्प के दोषों के उपशमन के लिए अत्यंत प्रशस्त दिन के रुप में मान्य रहेगा।
ऐसे जाने कुंडली में कालसर्प योग :
यद्यपि राहु और केतु भौतिक पिण्ड के रुप में नहीं है।ये छाया ग्रह हैं। फिर भी देखा गया है कि इन दोनों छाया ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है।यदि कुण्डली में राहु और केतु के घेरे में अन्य सभी ग्रह आ जाते हैं तो उसका नकारात्मक प्रभाव परिलक्षित होता है।इसकी शान्ति प्रतिष्ठित शिवलिंगों पर या कहीं भी पवित्र देव स्थल पर किया जाता है।इसके लिए वर्ष में कई दिन निर्धारित रहते हैं परन्तु नागपंचमी का दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है।यदि उस दिन श्रेष्ठ योग हो तो उस दिन को अति उत्तम दिवस के रुप में माना जाता है।इस वर्ष नागपंचमी पर शुभ योग बन रहा है। इसलिए इस दिन कालसर्प योग की शान्ति के लिए उत्तम दिवस है।
सावन में शिव के साथ नाग की करें विशिष्ट पूजा :
इस व्रत के विषय में कहा गया है कि इस व्रत को चतुर्थी से युक्त न ग्रहण करें।जिस दिन पंचमी और षष्ठी तिथि का सम्मिलन हो ,उस दिन ही इस व्रत का आयोजन किया जाए।यदि सूर्योदय के पश्चात 6 घटी अर्थात 2 घंटा 24 मिनट तक ही पंचमी तिथि हो तो भी उसी दिन इस पूजन अर्चन किया जाए।इस व्रत में उपवास का विधान नहीं है। उपवास केवल पूजन के समय तक ही रखा जाए।इस पंचमी के दिन नाग देवता का विशिष्ट पूजन होता है। श्रावण के महीने में भगवान शिव की उपासना का विधान है।नाग देवता भी शिव परिवार से सम्बन्धित है।कहा जाता है कि भगवान विष्णु का शयन नाग पर ही है।वे अनन्तशयनम् कहलाते हैं।उनकी शैय्या ही नाग है। भगवान शिव के गले में ये शोभा के रुप में प्रतिष्ठित हैं। नागों का सम्बन्ध प्रायः सनातन धर्म के सभी देवी देवताओं से होने से, उनके पूजन के साथ इनका भी पूजन हो जाता है परन्तु इनकी विशिष्टता के कारण वर्ष में एक बार इनकी विशेष पूजा की जाती है। ज्योतिष शास्त्र में पंचमी तिथि के स्वामी नाग देवता को ही माना गया है।
नाग पंचमी पूजन की विशिष्ट परंपराएं:
अनेक अंचलों में नाग पूजन की विधियों में कुछ अन्तर रहता है परन्तु हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में इस दिन दीवार पर गाय के गोबर से नौ या आठ नाग की आकृतियों का चित्रांकन कर उसे पूजा जाता है।यह कार्य प्रातः काल किया जाता है। महिलाएं अपने परिवार की प्रसन्नता के लिए धान का लावा और दूध नाग बाबा को अर्पण करती है। वहां मीठा और फल भी रखने की परम्परा कुछ स्थानों में है। कहीं -कहीं घर के अन्दर चूल्हा चौकी पर भी इनकी आकृति निर्माण कर पूजन किया जाता है।इस दिन को शक्ति और शौर्य दिवस के रुप में भी जाना जाता है। कहीं कहीं दंगल के आयोजन का कार्यक्रम भी रखा जाता है।भोजपुरी अंचल में इस दिन को पंछी का दिन भी कहा जाता है।सांप की बांबी के निकट भिगोया चना और दूध रखने की परम्परा है।
नागों की उत्पत्ति की कथा :
उत्सवप्रियता भारतीय जीवन की प्रमुख विशेषता है। देश में समय-समय पर अनेक पर्व एवं त्योहारों का भव्य आयोजन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग देवता का पर्व, नागों को समर्पित है। इस त्यौहार पर नागों का अर्चन पूजन होता है। वेद और पुराणों में नागों की उत्पत्ति उद्भव महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से माना जाता है। नागों का मूल स्थान पाताल लोक प्रसिद्ध है।पुराणों में ही नाग लोककी राजधानी के रूप में भोगवती पूरी विख्यात है। संस्कृत कथा साहित्य में विशेष रुप से कथासरित्सागर नाग लोक और वहां के निवासियों की कथाओं से ओतप्रोत है। गरुड़ पुराण भविष्यपुराण, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भाव प्रकाश आदि ग्रंथों में नाग संबंधी विविध विषयों का उल्लेख मिलता है।पुराणों में यक्ष किन्नर और गन्धर्वों के वर्णन के साथ नागों का भी वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शैय्या की शोभा शेषनाग ही बढ़ातें है। भगवान शिव और गणेश जी के अलंकरण में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है ।योग सिद्धि के लिए जो कुंडलिनी शक्ति जागृत की जाती है उसको सर्पिणी कहा जाता है। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में द्वादश नागों का उल्लेख मिलता है, जो प्रत्येक मास में उसके रथ के वाहक बनते हैं ।इस प्रकार अन्य देवताओं ने भी नागों को धारण किया है। नाग देवता भारतीय संस्कृत में देव रूप में स्वीकार किए गए हैं।
कश्मीर के जाने-माने संस्कृत कवि कल्हण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक राज तरंगिणी में कश्मीर की संपूर्ण भूमि को नागों का अवदान माना है। वहां के प्रसिद्ध नगर अनंतनाग का नाम इसका ऐतिहासिक प्रमाण है देश के पर्वतीय प्रदेशों में नाग पूजा बहुतायत से होती है।यहां नाग देवता अत्यंत पूज्य माने जाते हैं। हमारे देश के प्रति ग्राम -नगर में नाग देवता और लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। नागदेवता के पूजा स्थल भी हैं। भारतीय संस्कृति में प्रातः भगवत स्मरण के साथ अनंत और वासुकी आदि पवित्र नागों का नामस्मरण किया जाता है। इसेसे नागभय से रक्षा होती है तथा सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। देवी भागवत में प्रमुख नागों का नित्य स्मरण करने के विषय में निर्देश दिया गया है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने नागपूजन में अनेक व्रत विधान- और पूजन का निर्देश दिए हैं। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी नागों को अत्यंत आनंद देने वाली है। नागानामानन्दकरी- पंचमी तिथि को नाग पूजा में उनको गाय के दूध से स्नान कराने का विधान है। कहा जाता है कि एक बार मातृशाप से नागलोक जलने लगा। इस दाह पीड़ा की निवृति के लिए नाग पंचमी को गो दुग्ध स्नान जहां नागों को शीतलता प्रदान करता है, वही भक्तों को सर्प भय से मुक्त भी करता है। नाग पंचमी की कथा के श्रवण का बड़ा महत्व है। इस कथा के प्रवक्ता सुमंत मुनि थे तथा श्रोता पांडव वंश के राजा शतानिक थे।
नागों की अनेक प्रजातियां :
नागों की अनेक जातियां और प्रजातियां हैं। भविष्य पुराण में नागों के लक्ष्मण, नाम, स्वरूप एवं जातियों का विस्तार से वर्णन मिलता है। भारत धर्म प्रदेश है। भारतीय चिंतन प्रणाली समस्त प्राणियों में आत्मा और परमात्मा का दर्शन करता है। यह एकता का अनुभव कराता है। पतंग,जीव- सभी में ईश्वर के दर्शन करने की अवधारणा हमारे धर्म शास्त्र में हैं ।जीवो के प्रति आत्मीयता और दया भाव को विकसित करने का कार्य नाग पूजन है। नाग हमारे लिए पूज्य और संरक्षणीय हैं। प्राणी शास्त्र के अनुसार नागों की अनेक की संख्याएं और प्रजातियां हैं, जिन में विष भरे नागों की संख्या बहुत कम है। यह नाग हमारी कृषि संपदा का संवर्धन और कृषि नाशक जीवो से रक्षा करते हैं। पर्यावरण रक्षा तथा वन संपदा में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। नाग पंचमी का पर्व नागों के प्रति सम्मान ,उनके संवर्धन एवं संरक्षण की प्रेरणा देता है। यह पर्व प्राचीन समय के अनुरूप आज भी प्रासंगिक है, आवश्यकता है हमारी अंतर्दृष्टि की।
सर्वे नागा प्रीयन्तां में ये केचिद् पृथ्वीतले।ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिता। ये नदीषु महानागा ये सरस्वती गामिन:। ये च वापीतडागेषु येसु सर्वेषु वै नमः।।- इस प्रकार की प्रार्थना भविष्य पुराण में वर्णित है। भाव यह है कि जो नाग पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, सूर्य की किरणों, सरोवरों, कूप तथा तालाब, नदियों आदि में निवास करतें हैं,वे हम पर प्रसन्न हों। हम उनको बार- बार नमस्कार करतें हैं।
कथा इस प्रकार है -एक बार देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन द्वारा 14 रत्नों में ऊच्चैश्रवा नामक अश्व प्राप्त किया था। वह श्वेत वर्ण का था। उसे देखकर नाग माता कद्रू का नागों की विमाता विनीता से अश्व की रंग के संबंध में वाद- विवाद हुआ। कद्रू ने कहा कि अश्व श्याम वर्ण का हैं। यदि मैं अपने कथन में असत्य सिद्ध होऊं तो मैं तुम्हारी दास हुई बनूंगी, अन्यथा तू मेरी दासी बनोगी। कद्रू ने नागों से सूक्ष्म बनकर अश्व के शरीर में आवेष्ठित होने का निर्देश किया, परंतु नागों ने अपनी असमर्थता प्रकट की। जिस पर कद्रू ने क्रुद्ध होकर नागों को श्राप दिया कि पांडव वंश के राजा जन्मेजय यज्ञ करेंगे और उस यज्ञ में तुम सब जलकर भस्म हो जाओगे।
नागमाता के शाप से भयभीत होकर ब्रह्मा की शरण में गए। उन्होंने ने पार्टी के नेतृत्व में ब्रह्मा जी से इस शाप से मुक्त होने का उपाय पूछा तो ब्रह्मा जी ने कहा कि यायावर वंश में उत्पन्न तपस्वी जरत्कारु तुम्हारे बहनोई होंगे। उनका पुत्र आस्तिक तुम्हारी रक्षा करेगा। ब्रह्मा जी ने पंचमी तिथि को नागों को यह वरदान दिया तथा इसी तिथि पर आस्तिक मुनि ने नागों का परिरक्षण किया भी किया था। इसलिए नागपंचमी का पर्व ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। हमारे ग्रंथों में श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पूजन का विधान है। व्रत के साथ एक बार भोजन करने का नियम है। पूजा में पृथ्वी पर या दीवार पर नागों का चित्रण किया जाता है। स्वर्ण, रजत, काष्ठ पर नागों का चित्रण कर पुष्प, धूप दीप से नागों का पूजन होता है।