राखी 11 अगस्त को भद्रा समाप्त होने के बाद (8 बजकर 25 मिनट शाम के बाद) और 12 अगस्त को प्रातःकाल 7 बजकर 16 मिनट के पूर्व ही बांधी जाएगी।
वाराणसी से प्रकाशित ऋषिकेश पंचांग के अनुसार 11 अगस्त को सूर्योदय 5:30 और चतुर्दशी तिथि का मान प्रातः काल 9:05 तक ,पश्चात पूर्णिमा तिथि है। इस दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र प्रातः 6 बजकर 42 मिनट पश्चात धनिष्ठा नक्षत्र विद्यमान है। इसी तरह आयुष्मान योग सांयकाल 4 बजकर 43 मिन, पश्चात सौभाग्य योग है। गुरुवार को चतुर्दशी तिथि में उत्तराषाढ़ नक्षत्र होने से सौम्य नामक औदायिक योग निर्मित हो रहा है। महा उद्योग निर्मित हो रहा है। पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्द्ध में भद्रा की स्थिति रहती है और रक्षाबंधन का कार्य भद्रारहित पूर्णिमा में ही सम्पन्न होता है। 11 अगस्त को रात्रि को 8 बजकर 25 मिनट तक भद्रा है। रक्षाबंधन का कार्य भद्रारहित श्रावण पूर्णिमा में सम्पन्न होता है। पूर्णिमा का मान 12 अगस्त को प्रातःकाल 7 बजकर 16 मिनट तक होने से रक्षाबंधन 11 अगस्त के सायंकाल से 12अगस्त के प्रातः काल 7 बजकर 16 मिनट के अन्दर सम्पन्न होगा।
विधि। पूर्णिमा तिथि के दो दिन पूर्व, सुपारी में गणेश जी और श्रवण नक्षत्र की स्थापना करनी चाहिए। इसके लिए दो सुपाड़ी का प्रयोग किया जाए।सविधि इनमें प्राणप्रतिष्ठा कर पूजन करें।भद्रा रहित श्रावण पूर्णिमा को इन दोनों का पूजन कर रक्षासूत्र को इन दोनों के पास स्थापित कर रक्षित होने के लिए प्रार्थना करें। वहां जल अर्पण कर श्रीगणेश जी को अर्घ्य प्रदान कर राखी को श्रीगणेश जी के उपर स्थापित कर दें। इस दिन हनुमान जी व पितरों के निमित्त जल,रोली,मौली, धूप, फूल, फल,चावल, प्रसाद, नारियल, सुपाड़ी,राखी, दक्षिणा चढ़ाकर दीपक जलाएं।घर में पूजागृह में जाकर विशेष पूजा सम्पन्न करना चाहिए।उस समर्पित राखी को उठाकर बहने अपने भाई और पुरोहित अपने यजमानों को रक्षाबंधन का कार्य करें।
भाई अपनी बहनों को उपहार में फल और दक्षिणा दें।राखी का पैसों से बदला नहीं चुकाया जा सकता है। इस दिन बहनें भाईयों को राखी बांधकर अपनी जीवन रक्षा का दायित्व उन पर सोनपरी हैं। प्रत्येक भाई का कर्तव्य हो जाता है कि राखी के महत्व को समझे और संकट के समय अपनी बहन की रक्षा करें।इस दिन पुरोहित ब्राह्मण भी लोगों के हाथ में राखी बांधते हैं। पुरोहित या ब्राह्मण निम्न मन्त्र से राखी बांधते हैं । येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे माचल माचल। सम्पूर्ण भारत के चार राष्ट्रीय त्योहार हैं। रक्षाबंधन, विजयादशमी, दीपावली और होली। वेदों के समय से ही कार्यशैली की दृष्टि से समाज चार भागों विभक्त रहा है जिसको चार वर्ण कहते हैं।
इन चार वर्णों में से ब्राह्मणों का प्रधान त्योहार रक्षाबंधन और उपाकर्म है। उपाकर्म ब्राह्मणों के प्रधान कार्य वेदाध्ययन से सम्बन्ध रखता है और रक्षाबंधन समय शुभाशंसा से ब्राह्मणों का प्रधान कर्त्तव्य है। विजयादशमी क्षत्रियों का प्रधान त्योहार है, उसमें अस्त्र शस्त्रादि के पूजन की प्रमुखता है। दीपावली वैश्यों का प्रधान त्योहार है, इसमें लक्ष्मी पूजन प्रधान है और होली समाज में पिछड़े वर्ग का त्योहार है। इसमें मनोविनोद सहित पारस्परिक सम्पर्क की प्रमुखता है। इन समस्त त्योहारों में भारत के प्रत्येक व्यक्ति का समादर है, क्योंकि संगठित समाज में किसी भी अंग का कार्य समग्र समाज का ही कार्य होता है।इस उत्सव के दिन रक्षाबंधन और उपाकर्म दोनों होते हैं।
रक्षाबंधन से कई पौराणिक कथाएं जुड़ी है लेकिन कुछ ही कथाओं के विषय में चर्चा कर रहा हूं। इसमें पहली कथा का धार्मिक महत्व है। इसे पूजन के साथ संपन्न किया जाता है। शेष कथाएं भाई बहन के प्रेम प्रतीक और महत्ता से संबंधित है। एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि मुझे रक्षाबंधन की कथा सुनाइए, जिसे मनुष्य का दुख समाप्त हो जाए। इस पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा -” हे पांडव श्रेष्ठ! एक बार दैत्यों और देवताओं में युद्ध छिड़ गया। यह लगातार 12 वर्षों तक चलता रहा ।असुर देवताओं को पराजित करके उनके राजा इंद्र को भी पराजित कर दिए। पश्चात देवताओं सहित इन्द्र अपनी राजधानी अमरावती पुरी को छोड़कर पलायन कर गए। दैत्य पति बलि ने तीनों लोकों को अपने वस में कर लिया ।उसने राजपद से घोषित करवा दिया कि इन्द्र इस लोक में प्रवेश न करें और देवता तथा मनुष्य यज्ञ कर्म बंद कर दें। सभी लोग मेरी पूजा करें।इस प्रकार से यज्ञ,वेद और उत्सव आदि समाप्त हो गए। धर्म के नाश से देवताओं का बल घटने लगा।
इस आसन्न संकट से दु:खी होकर इन्द्र अपने गुरु बृहस्पति के पास गए तथा उनके चरणों में गिर कर निवेदन करने लगे कि परिस्थित ऐसा निर्मित हो गया है कि उसे प्राण त्यागना पड़ेगा। अब मैं न भाग सकता और न ही युद्ध भूमि में ही टिक सकता। कोई उपाय बताएं, जिससे दु:ख दूर हो जाए। बृहस्पति जी ने इंद्र की वेदना सुनकर रक्षा विधान करने को कहा। श्रावण पूर्णिमा को प्रात: काल रक्षा विधान किया गया। इंद्राणी ने सश्रावण पूर्णिमा के पावन अवसर पर ब्राह्मणों को स्वस्तिवाचन करवा कर राखी का धागा लेकर इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधकर युद्ध भूमि में लड़ने के लिए भेजा। रक्षाबंधन के प्रभाव से दैत्य डरकर भाग खड़े हुए और इंद्र की विजय हुई। राखी बांधने की प्रथा का आरंभ यहीं से हुआ है – ऐसी मान्यता है।
इस दिन भगवान हयग्रीव का प्रकटीकरण हुआ था। ब्राह्मणों द्वारा उपाकर्म नामक वैदिक संस्कार सम्पन्न होता है। यज्ञोपवीत धारण करने वाला व्यक्ति मन,वचन और कर्म से पवित्रता का संकल्प लेकर यज्ञोपवीत बदलता है।इस दिन ब्राह्मणों को दान देने और उन्हें सात्विक भोजन से तृप्त करने का विधान है, साथ ही साथ लक्ष्मी नारायण के पूजन का भी शास्त्रीय उल्लेख है। लक्ष्मी – विष्णु के दर्शन से सुख,धन और समृद्धि की प्राप्ति होती ह होती है। इस पवित्र पर्व के दिन देवताओं को रक्षासूत्र अर्पण करना चाहिए।एक शास्त्रीय मान्यता के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन अमरनाथ की पवित्र छड़ी यात्रा का आरम्भ करें और यह श्रावण पूर्णिमा के दिन सम्पन्न करें।इस दिन कांवड़ियों द्वारा शिवलिंग पर जलार्पण किया जाता है।रूई की बत्तियों को पंचगब्य में डुबोकर शिव पर चढ़ाया जाता है,इसे पवित्रारोपण कहा जाता है।
उपाकर्म के कई अवसर है परन्तु श्रावण शुक्ल पूर्णिमा ही उपाकर्म का प्रसिद्ध काल है। लेकिन यदि श्रावण पूर्णिमा के दिन चन्द्रग्रहण या सूर्य की संक्रान्ति हो तो उपाकर्म नहीं करना चाहिए। वेद परायण के शुभारंभ को उपाकर्म कहते हैं।इस दिन यज्ञोपवीत के पूजन का विधान है। ऋषि पूजन और पुराना यज्ञोपवीत उतार कर नया धारण करने का कार्य किया जाता है। प्राचीन। काल में यह कार्य गुरु अपने शिष्यों के साथ करते थे।यह उत्सव द्विजों के वेदाध्ययन का और आश्रमों के पवित्र जीवन का स्मारक है। इसकी रक्षा ही नहीं,वरन् इसका यथार्थ रुप में पालन हमारा परम धर्म होना चाहिए। यह पवित्र सरोवरों या नदियों के तट पर सम्पन्न होता है।