अंगारकी संकष्टी श्रीगणेश व्रत, 10 जनवरी को

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आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र

अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी

भगवान श्री गणेश जी की कृपा से होता है सम्पूर्ण कष्टों का शमन

हृषीकेश पंचांग के अनुसार 10 जनवरी दिन मंगलवार को सूर्योदय 6 बजकर 45 मिनट पर और माघ कृष्ण तृतीया तिथि का मान प्रातः काल 9 बजकर 35 मिनट, पश्चात सम्पूर्ण दिन और रात्रि पर्यन्त चतुर्थी तिथि है। इस दिन श्लेषा नक्षत्र प्रातः काल 7 बजकर 11 मिनट, पश्चात मचा नक्षत्र, दिन में 10 बजकर 3 मिनट तक प्रीति योग, पश्चात आयुष्मान योग और आनन्द नामक औदायिक योग भी है। इसी दिन संकष्टी अंगारकी श्रीगणेश चतुर्थी व्रत का आयोजन किया जाएगा।

चतुर्थी तिथि के स्वामी भगवान गणेश को ही माना जाता है‌। श्री गणेश जी विघ्न विनाशक, बुद्धि, सम्पन्नता और समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले देवता हैं। उनकी पूजा केवल मनुष्य ही नहीं करते हैं, प्रत्युत देवगण भी प्रत्येक कार्य के आरंभ में करते हैं। भगवान शंकर ने त्रिपुर दैत्य के उपर विजय प्राप्त करने के लिए, भगवान विष्णु ने बलि को बांधने के लिए, ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के लिए, शेष जी ने पृथ्वी धारण के लिए, देवी दुर्गा जी ने महिषासुर के वध के लिए और सिद्ध लोग अपने सिद्धि के लिए और कामदेव ने विश्व विजय के लिए श्रीगणेश का ध्यान, पूजन और व्रत किया था।गणेश जी की ऋद्धि और सिद्धि नामक दो स्त्रियां और शुभ तथा लाभ नाम दो पुत्र हैं।इस प्रकार पांच सदस्यों वाला श्रीगणेश जी का परिवार है।

इस दिन के व्रत को संकष्टी व्रत कहा जाता है। श्रीगणेश जी की प्रसन्नता के लिए प्रातः काल स्नान के अनन्तर व्रतोपवास का संकल्प करके दिनभर संयमित रहकर श्रीगणेश जी का स्मरण चिंतन एवं भजन करना चाहिए। दिन में गणेश मन्त्र का जप, गणेश जी स्त्रोतों का पाठ, गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ, गणेश चालीसा का पाठ करना चाहिए।इस दिन चन्द्रोदय होने पर श्रीगणेश जी को अर्घ्य देने का विधान है। धर्मशास्त्र के अनुसार श्रीगणेश जी की मिट्टी की मूर्ति का निर्माण कर आराधना करनी चाहिए। यदि मिट्टी की मूर्ति न निर्माण कर सके तो सुपाडी में ही गणेश जी स्थापना कर पूजा सम्पन्न करें। गणेश जी साथ उनके आयुध और वाहन भी होना चाहिए। उक्त मृन्मयी मूर्ति या सुपारी में निर्मित गणेश जी की षोडशोपचार विधि से भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए।

आचमन करके प्रदक्षिणा और नमस्कार करके पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिए। इस व्रत में अर्घ्यं का बड़ा महत्व है। तिथि की अधिष्ठात्री देवी एवं रोहिणी पति चन्द्रमा को प्रत्येक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश पूजन के अनन्तर अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। चन्द्रोदय काल में गणेश के लिए तीन, तिथि के लिए तीन और चन्द्रमा के लिए सात अर्घ्य देना चाहिए। नैवेद्य में तिल के लड्डू और शकरकंद अर्पित करने का भी विधान है। श्रीगणेश जी पृथ्वी तत्त्व के देवता हैं, अतः उन्हें पृथ्वी के अन्दर पैदा होने वाले मीठे कन्दमूल से बहुत प्रेम है। शकरकंद कन्दमूल उस श्रेणी में आता है, इसलिए उनके नैवेद्य में शकरकंद को सम्मिलित किया जाता है।श्री गणेश जी का पूजन करने के बाद नैवेद्य रुप में तिल के लड्डुओं को भी अर्पित किया जाता है। यह मौसम के अनुरूप भी है।

कृष्ण पक्ष की चतुर्थी चन्द्रोदय व्यापिनी ग्रहण की जाती है।इस दिन चन्द्रोदय होने पर पूजन और अर्घ्य देने के पश्चात ही कुछ ग्रहण करने का विधान है। कृष्ण पक्ष की सभी चतुर्थी तिथियां कष्ट निवारण करने वाली होती हैं। मंगलवार से युक्त चतुर्थी तिथि का अमित माहात्म्य है।इस प्रकार एक अंगारकी चतुर्थी व्रत का सविधि पालन करने से वर्ष भर की समस्त चतुर्थी व्रतों का फल प्राप्त होता है।

अर्घ्य का समय

हृषीकेश पंचांग के अनुसार इस दिन रात को 8 बजकर 22 मिनट पर चन्द्रोदय का समय है। इसी समय अर्घ्य दिया जाएगा। माघ कृष्ण चतुर्थी के अर्घ्य में जल में लाल चन्दन, पुष्प, दूर्वा, तिल, शमीपत्र और गाय के दूध- दही का प्रयोग किया जाता है।

अंगारकी चतुर्थी व्रत का माहात्म्य

गणेश पुराण के उपासना कांड के 60 अध्याय में इसके माहात्म्य की कथा वर्णित है। कथा इस प्रकार है – पृथ्वी ने भरद्वाज जी के जपापुष्प ( अड़हुल के पुष्प के रंग) तुल्य पुत्र अरुण पुत्र का पालन किया। सात वर्ष के बाद उन्होंने उस पुत्र को महर्षि के पास पहुंचा दिया। महर्षि ने अत्यंत प्रसन्न होकर अपने पुत्र का आलिंगन किया और उसका सविधि उपनयन कराकर, उसे वेद शास्त्र का अध्ययन कराया। पुनः अपने उस पुत्र को गणेश जी का मन्त्र देकर आराधना करने लिए कहा।मुनिपुत्र ने अपने पिता जी के चरणों में प्रणाम किया और गंगा जी के तट पर जाकर गणेश जी के मन्त्रों का जप करते हुए आराधना करने लगे। वह बालक एक हजार वर्ष तक गणेश जी की आराधना में मन्त्र जपता रहा।माघ कृष्ण चतुर्थी के दिन चन्द्रोदय होने पर दिव्य देहधारी गणेश जी प्रकट हुए।

उन्होंने अनेक शस्त्र धारण कर रखे थे। वे विविध अलंकारों से विभूषित, अनेक सूर्य के समान दीप्तिमान थे। उनको देखकर उस मुनि पुत्र ने उनका स्तवन किया। गणेश जी ने उस मुनि पुत्र से कहा –” मैं तुम्हारे कठोर तप और स्तवन से पूर्ण प्रसन्न हूं। तुम इच्छित वर मांगो। मैं‌ उसे अवश्य पूरा करुंगा।” – पृथ्वी पुत्र ने निवेदन किया -“प्रभो, मैं आपका दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो गया हूं। मेरी माता पृथ्वी, मेरे पिता, मेरा तप, मेरे नेत्र, मेरी वाणी, मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। मैं स्वर्ग में जाकर देवताओं के साथ अमृत का पान करना चाहता हूं। मेरा नाम तीनों लोकों में कल्याण करने वालें मंगल के रुप में विख्यात हो। मुझे आपका दर्शन इस माघ कृष्ण चतुर्थी के दिन हुआ, अतः यह चतुर्थी नित्य पुण्य देने वाली और संकटों को हरने वाली हो। इस दिन जो व्रत करें, आपकी कृपा से उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाता करें।”

सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं इस व्रत से

गणेश जी ने उसे वर प्रदान कर दिया और कहा-” से पृथ्वीपुत्र, तुम देवताओं के साथ अमृत का पान करोगे।तुम्हारा मंगल नाम सर्वत्र व्याप्त होगा। तुम पृथ्वी के पुत्र हो और तुम्हारा रंग लाल है, अतः तुम्हारा नाम अंगारक भी होगा। पृथ्वी पर जो मनुष्य इस दिन व्रत करेंगे, उन्हें एक वर्ष पर्यंत चतुर्थी व्रत का फ़ल प्राप्त होगा और उसके किसी कार्य में विघ्न उपस्थित नहीं होगा। तुमने सर्वोत्तम व्रत किया है, अतः तुम जयन्ती नगर में परंतु नामक राजा होकर सुख प्राप्त करोगे। इस व्रत की अद्भुत महिमा रहेगी। इसके कीर्तन मात्र से मनुष्य की सभी कामनाएं पूर्ण हो जाएगी।”- ऐसा कहने के बाद वह अंतर्धान हो गए। मंगल ने एक मन्दिर बनवाकर दशभुज गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कराई।उसका नामकरण किया मंगलमूर्ति।यह गणेश विग्रह समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा अनुष्ठान पूजन और दर्शन करने से सबके लिए मोक्षप्रद रहेगा। पृथ्वी पुत्र ने मंगलवारी चतुर्थी के दिन व्रत करके श्रीगणेश जी की आराधना की। उसका आश्चर्यजनक फल प्राप्त हुआ कि वह सशरीर स्वर्ग चले गए और देवताओं के समुदाय के साथ अमृत पान किए और यह परम पावनी अंगारकी चतुर्थी के नाम से ख्यात हुई।

 

 

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