हिटलर कहा करता था कि यदि एक झूठ को हजार बार किसी के समझ कहा जाए तो पहले तो उसका मन उस झूठ को मानने के तैयार नहीं रहता है लेकिन उसकी हजारों आवृत्ति होने पर वह झूठ उसे सत्य प्रतीत होने लगता है। झूठ को सत्य मान लेता है और सत्य तिरोहित हो जाता है। यदि किसी जाति या समूह को किसी दुष्प्रवृति में लगाना हो तो पहले उसकी मानसिकता और शिक्षा में परिवर्तन किया जाए और उसको किसी अमानवीय विचारधारा से आरोपित किया जाए, पुनः वह पाप कर्म या अमानवीय कर्म में नही हिचकेगा। दुनिया में बहुत से तानाशाह हुए, जिन्होंने दुनिया में बहुत मारकाट को अंजाम दिया है।वे अपने लोगों को सिखाते रहे हैं कि वे ही श्रेष्ठ है और उनकी ही विचार सर्वोत्तम है।शेष लोग जो सोचते हैं,वह भ्रामक और मिथ्या है।इस तरह अपने विचार के आधार पर वे क्रूरता को अंजाम देते रहे और धरती पर बहुत लहू बहाया। प्रसिद्ध तानाशाह हिटलर ने इसी तरह जर्मनी को बहकाया और नाजी सेना का निर्माण कर सम्पूर्ण संसार पर विजय अभियान चलाया था।वह कहां करता था कि जर्मन लोग ही सर्वोत्तम है।वे विशुद्ध आर्य है और संसार पर राज्य करने का अधिकार केवल आर्यों यानि सा जर्मन लोगों का है।पहले उसने अपने पड़ोसी देशों पर आक्रमण किया ,उसने उसे जर्मनी में आत्मसात किया , पुनः आगे अपने सीमा के विस्तार के लिए प्रयास बढ़ाया था। हिटलर को यहूदियों से बहुत घृणा थी,वह कहां करता था कि यहूदी दुनिया की सबसे निकृष्ट जाति है और इनका पृथ्वी पर रहने का कोई अधिकार नहीं है।कहा जाता है हिटलर ने जर्मनों को बहकाकर यहूदियों की सामूहिक हत्या करवाई थी।जर्मन यहूदियों से घृणा करने लगे और उनके विनाश के कारण बने थे।
मध्य पूर्व के देशों में जन्मे हुए- सेमेटिक धर्म (यहूदी, ईसाईयत और इस्लाम) तीनो ही असहिष्णु धर्म है। क्योंकि इनका जन्म कबिलियाई वातावरण में हुआ है।उस समय वे अपने कबिले और अपने विचार धारा को सर्वोपरि मानते थे और दूसरे कबीले को लोगों को मिटाकर अपना वर्चस्व स्थापित करते थे। इसलिए उनका धर्म और उनकी विचारधारा हिंसा और क्रूरता पर आधारित हो गई।एक कबीले का सरदार या जिसे उस युग में पैगम्बर या नबी कहा जाता था ,वह दूसरे वर्ष कबीलों को घृणा की दृष्टि से देखा करता था। ओल्ड टेस्टामेंट में अनेकों बार शैतान,इबलिस,बेलजेबुब का नाम आया है और इन्हें बुराई का जनक माना गया है।ये तीनो नाम घृणित है। परन्तु इतिहासकारों का कथन है कि ये तीनों तीन सभ्यताओं के उपास्य देव थे।जिसे समारी धर्म (यहूदी, ईसाई और मुस्लिम) के मानने वालों ने बुलाई का प्रतीक माना लिया था।आज जब कुछ किसी गैर धर्म वालों के विषय में कमेंट करना होता है तो मुसलमान उसके लिए इन्ही शब्दों का प्रयोग करते हैं कि वह शैतान से प्रभावित हैं या वह हमारे मजहब पर कटाक्ष कर रहा है इसलिए वह शैतान का शिष्य हैं। दुनिया में और भी लोग हुए जो अपने मत, मजहब को श्रेष्ठ मानकर दुसरे धर्म और जाति के लोगों पर बहुत अत्याचार किए हैं। इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता सकता है। इस्लाम के नाम पर जितनी हत्याएं और अत्याचार हुए, उससे इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। इस्लाम श्रेष्ठ है जो मुसलमान नहीं हैं,वह अपवित्र और काफिर हैं और उन पर ज्यादती करना मुसलमानों का मजहबी अधिकार है।इस तरह के विचारों के आधार पर बहुत कुछ अतीत में गैर मुस्लिमों के उपर अत्याचार किए गए और आज भी पाकिस्तान जैसे मजहबी देशों में इसे अंजाम दिया जा रहा है।
चीन में एक गुरु कन्फ्यूसियस हुए हैं। उन्होंने ईश्वर की कहीं चर्चा नहीं की है। सदाचार पर जो दिया है।इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि उनके लिए सदाचार ही ईश्वर है।यदि मानवता का पोषण किसी धर्म या मजहब से नहीं होता है तो उसे धर्म की श्रेणी में हम कैसे रख सकते हैं जिस अन्य लोगों के लिए नफरत के वाक्य हों, क्या वह ईश्वर का वाक्य हों सकता है? निश्चय ही पाखंडियों ने अपने मतलब के लिए उसे लिखकर ईश्वर द्वारा प्रणीत माना होगा। मारकाट, हिंसा, उत्पीड़न, अन्य क़ौम की स्त्रियों का अपहरण,उनका देह शोषण को क्या आप धर्म कहेंगे? इसे मान्यता देने वालों को क्या पवित्र या मोमीन कहेंगे? क्या जो एक मत को नहीं मानता है वह क्या अपवित्र है।इन सब असंगत और अतार्किक बातों में क्या कोई बुद्धिमान मनुष्य विश्वास करेगा? दुनिया में धार्मिक कट्टरता तब तक नहीं समाप्त होगी,जब तक यह नहीं बताया जाएगा कि धर्म के विचारों का उदय किस प्रकार हुआ है।आज आवश्यकता धर्म शास्त्र के वैज्ञानिक विवेचन की है।जब वैज्ञानिक विवेचन से धार्मिक सिद्धांतो के उदय के विषय में जितना जाएगा तो धार्मिक कट्टरता स्वयं ही तिरोहित हो जाएगी।
मध्य युगीन विचारधारा का आज के विचारों से क्या तालमेल है? या नहीं है,?इसे जानने की जरुरत है।बड़ी गली विचारधाराओं को ढोने का तात्पर्य एक मुर्दा को ढोने का। जिसमें जीवन नही है, केवल पुतला भर विद्यमान है। कृष्णमूर्ति जी कहा करते थे जब तक हम मान्यताओं को तर्कसंगत तरीके न समझे ,तब तक हमारे उपासना का कोई मतलब नहीं है। आखिर हमारी धर्म के लोग अपने धर्म और मजहब को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक तरीके से क्यों नहीं समझना चाहते हैं?क्या उन्हें इससे भय है कि उनका बना बनाया महल धराशाई हो जाएगा। लेकिन प्रश्न है कि यदि बुनियाद मजबूत है और दीवारें भी सशक्त है तो उन्हें धराशाई करना आसान न होगा, लेकिन उन्माद और अंधविश्वास पर आधारित होगा तो निश्चय ही ध्वंस हो जाएगा। यह पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में धर्म और मजहब के नाम पर नित्यप्रति गैर मुस्लिमों पर ज़ुल्म हो रहे हैं।क्या यह उचित है? क्या उन्हें यह सब करने का अधिकार ईश्वर ने दिया है। बहुत सी हिन्दू और ईसाई युवतियों को अगवाकर वहां के धर्मान्ध ले जाते हैं और उनका जबरन इस्लाम के नाम पर मुस्लिम युवकों से निकाह करा देते हैं। कुछ मीडिया में शोरगुल होता है, पुनः मामला शांत हो जाता है।वहां की सरकार, कट्टरपंथी और आम जनता भी मुस्लिम युवकों के समर्थन में खड़ी हो जाती है।
पाकिस्तान में जो शिक्षा दी जा रही है, वही समस्त दंगा फसाद का कारण बन रही है। शिक्षा का मानसिकता से गहरा सम्बन्ध है। किस समाज के लोगों की कैसी मानसिकता होगी,यह वहां के तालीम पर निर्भर है। भारतीय समाज और परम्परा में सहिष्णुता विद्यमान है। भारतीय धर्म और समाज के लोगों ने कभी भी विचारधाराओं में भिन्नता के कारण एक दूसरे पर अत्याचार नहीं किया है।यही कारण है कि यहां बौद्ध, जैन, सांख्य, मीमांसा, न्याय, वेदांत सहित और भी बहुत से मतों का विकास हुआ है। यहां तक कि यहां नास्तिक दर्शन चार्वाकों को भी मान्यता मिली। चार्वाक इसी संसार को सब कुछ मानते हैं वे ब्राह्मण धर्म और श्रमण धर्मों – दोनों को बकवास मानते रहे। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रामाणिक ग्रंथ वेद को चुनौती दी है।फिर भी कहीं इनके ऊपर अत्याचार या हिंसा का विवरण हमारे इतिहास में नहीं है।पूर्वी देशों से उत्पन्न धर्मों में सहिष्णुता कूट- कूट कर भरी है।यदि आज कुछ हिन्दू असहिष्णु होते जा रहें हैं तो उसका कारण असहिष्णु धर्मों का कट्टरपन है। वे अपनी रक्षा में ऐसा कदम उठा रहे हैं।
मुसलमानो को भी सभी मतों का समादर करना चाहिए और सभी धर्म की पुस्तकों को पवित्र मानकर उनका अध्ययन करना चाहिए।जब तक वह ऐसा नहीं करेंगे, विश्व में शांति कायम नहीं हो सकती है।यदि वे इस्लाम को शांति का धर्म मानते हैं तो शांत होकर अपने मजहब का पालन करना चाहिए और दूसरे के मतों के प्रति दुराग्रह नहीं रखना चाहिए।अपने मजहब में जो भी बुराईयां है उन्हें समय के अनुसार परिमार्जन करना चाहिए। महिलाओं के अधिकारों की भी हिमाकत करना चाहिए।मौन भी स्वीकार का समर्थन माना जाता है।यदि हिन्दुस्तान का मुसलमान पाकिस्तान में चल रहे अन्याय और प्रतिकार के विरुद्ध नहीं बोलता है तो उसे उसकी सहमति ही माना जाएगा। कहा जाता है कि वहां के पाठ्यक्रम में हिंदुओं और ईसाईयों के प्रति नफ़रत का पाठ पढ़ाया जाता है।यदि हम पाकिस्तान के पाठ्यक्रम का सर्वेक्षण करें तो पाएंगे कि इस नफरत का कारण वहां का पाठ्यक्रम और वहां दी जाने वाली तालीम है।उनके पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं कि हिंदुओं ने मुस्लिमों पर बहुत अत्याचार किया है।इसी तरह का मिलता जुलता पाठ्यक्रम बांग्लादेश में भी है।वे इतिहास के उपर पर्दा डालकर झूठ का सहारा लेते हैं। वहां के मस्जिदों और मकतबों में तो पूरा अन्य धर्मों के लोगों के लिए घृणा के वाक्य है।