आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र
अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी
भारतीय संस्कृति में परशुराम जी का बड़ा महत्व है। ऊन्होंने एक बहुत बड़ी धर्म सेना का गठन किया था और पृथ्वी पर अत्याचारी राजाओं का सफाया किया था। सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो उन्होंने दक्षिण भारत का व्यापक दौरा किया और अपने शिष्यों के साथ जाकर वैदिक धर्म का प्रसार किए थे। अनार्यों को आर्य बनाए और अनेक लोगों को वैदिक ज्ञान देकर उन्होंने ब्राह्मण बनाए थे।ऐसा इतिहासकारों का कथन है। कोंकण क्षेत्र में इन्होंने अपने अध्ययन और अध्यापन का केन्द्र स्थापित किए थे। उत्तर भारत की अपेक्षा परशुराम जी को दक्षिण भारत में ज्यादा सम्मान दिया गया था।यह कहना उचित नहीं है कि परशुराम जी पौराणिक काल्पनिक पुरुष हैं।वे ऐतिहासिक पुरूष थे जिन्होंने वैदिक धर्म की पताका सर्वत्र फैलाई थी और भारतीय संस्कृति की रक्षा और प्रवर्धन के लिए बहुत कुछ किया था।यही कारण है कि उनके इन अच्छे कृत्यों के लिए उन्हें चिरंजीवी पुरुष की संज्ञा दी गई है। नर्मदा नदी के तट पर महर्षि जमदग्नि का आश्रम था। श्री हरि विष्णु ने महर्षि जमदग्नि की पत्नी राजा प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका के गर्व से वैशाख शुक्ल तृतीया- अक्षय तृतीया- को जन्म दिया। उनका नाम राम रखा गया। ये माता पिता की पांचवीं संतान थे। इनके चार बड़े भाई भी थे। विष्णु अवतार बालक राम बड़े होने पर सब कुछ समझने लगे और पिता से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिए। तब उन्होंने पिता के समक्ष धनुर्विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की।
महर्षि ने उन्हें इसके लिए हिमालय जाकर शिव जी की तपस्या करने को कहा। हिमाचल जाकर उन्होंने वर्षो तपस्या की। इस बीच असुरों से त्रस्त देवता शिव जी के पास पहुंचे और असुरों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। तब शिवजी ने तपस्या में बैठे राम को बुलाया और असुरों का सर्वनाश करने का आदेश दिया। शिवजी ने उन्हें अपना कोई अस्त्र दिए बिना भेज दिया। शिवजी के विश्वास पर राम खरे उतरे और सभी असुरों का वध कर पुनः शिव जी के पास पहुंच गए ।उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर देवाधिदेव ने उन्हें वर और अस्त्र शस्त्र प्रदान किया। इन्हीं शस्त्रो में भी एक था परशु और वह उनको अधिक प्रिय था। इसे प्राप्त करते ही राम का नाम परशुराम हो गया।शिव जी की कृपा से धनुर्विद्या में भी वे अद्वितीय बन गए। वहां से जब वह आश्रम लौटने लगे तब मार्ग में उनका एक शिष्य बना उसका नाम अकृतवर्ना था।
भगवान श्री परशुराम का जन्म धरती पर राजाओं के बढ़ते अत्याचारों को रोकने, अत्याचारियों के विनाश कर, जनकल्याण करने और धर्म की पताका सर्वत्र हराने के लिए हुआ था। भगवान विष्णु के परशुराम अवतार के संबंध में दो कथाएं पुराणों में मिलती है पहली कथा हरिवंश पुराण के अनुसार यह है कि महिष्मति नगरी पर शक्तिशाली हैयय वंशीय क्षत्रिय कार्तवीर्यार्जुन का शासन था। वह बहुत अभिमानी और अत्याचारी था। एक बार अग्निदेव ने उसे भोजन कराने का आग्रह किया, तब सहस्त्रबाहु ने दंभ में भरकर कहा -आप जहां से चाहे भोजन प्राप्त कर सकते हैं मेरा ही सर्वत्र राज्य है इस पर अग्नि देव ने वनों को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे।
अग्नि उनके आश्रम को भी अपना निवाला बना डाला। इस पर आपव कुपित हुए और सहस्त्रबाहु को श्राप दिए- कि एक दिन महाविष्णु श्री परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न केवल सहस्रार्जुन का सर्वनाश करेंगे बल्कि समस्त शक्तियों का अभिमान को चूर चूर कर देंगे। इसके परिणामस्वरूप भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया था। एक अन्य कथा यह कि क्षत्रिय राजाओं के अत्याचारों से पृथ्वी माता इतनी त्रस्त हो गई कि वह गाय के रूप में भगवान विष्णु के पास गई। और आततायियों से मुक्ति दिलाने का उनसे अनुरोध कीं। इस पर भी उन्होंने वचन दिया कि वह शीघ्र ही जनकल्याणार्थ और धर्म संस्थापनार्थ महर्षि जमदग्नि के पुत्र के रूप में अवतार लेकर आततायियों का सर्वनाश करेंगे। कहा जाता है कि परशुराम ने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने आधिपत्य में ले लिया था और उसे कश्यप को दे दिये थे और अपने रहने के लिए समुद्र को पीछे ढकेल कर भूमि प्राप्त किए थे।यही क्षेत्र कोंकण क्षेत्र कहलाता है और अपने रहने के लिए महेन्द्र गिरि पर्वत का चयन किए थे।आज भी क्षेत्र में उनके मन्दिर देखें जा सकते हैं।
महर्षि जमदग्नि के अंतिम संस्कार की तैयारी की जाने लगी लेकिन उसी समय शुक्राचार्य जी उधर आए और उन्हें मृत संजीवनी विद्या से पुनर्जीवित कर दिया। इधर कामधेनु भी किसी तरह से आश्रम लौट आई। लेकिन उसका बछड़ा वहीं रह गया। तब परशुराम अपने प्रथम शिष्य अकृतवर्ना के साथ सहस्त्रबाहु की राजधानी महिष्मति पहुंचे। वहां उन्होंने सहस्त्रबाहु को ललकारा। सहस्त्रबाहु ने सोचा कि इस ब्राह्मण के लिए तो कुछ सैनिक ही बहुत है। उसने जो सैनिक भेजे उन्हें ही नहीं अपितु परशुराम ने उसकी पूरी सेना को मार डाला अंत में सहस्त्रबाहु आया तो भगवान परशुराम ने उसके हजारों हाथों को काट कर उसका वध कर दिया और कामधेनु का बछड़ा वापस आश्रम ले गए। सहस्त्रबाहु के वध के बाद पिता महर्षि जमदग्नि ने भगवान परशुराम को महेंद्र गिरी पर्वत पर जाकर तपस्या करने की आज्ञा दी थी। परशुराम जी महेंद्र गिरी चले गए उसके बाद सहस्त्रबाहु के पुत्र शुरासेना ने मौके का फायदा उठाया और जमदग्नि के आश्रम पर हमला बोल दिया। महर्षि का सिर धड़ से अलग कर अपने पिता के वध का प्रतिशोध लेने की अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। माता रेणुका भी पति के चिंता के साथ सती हो गई। सूचना पाते ही भगवान परशुराम तुरंत आश्रम लौट आए।
पिता की हत्या और माता के सती होने से परशुराम जी के मन में अत्याचारी क्षत्रियों के प्रति सुलग रही चिंगारी धधक उठी और वे पूर्ण क्रोधावेश में परशु लेकर क्षत्रियों के खात्मे की अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए निकल पड़े। उन्होंने एक विशाल सेना तैयार की। उनके मार्ग में जो भी राज्य और राजा आए, उसे उन्होंने खत्म कर दिया ताकि शक्तियों का वंश ही न चल सके। इस तरह से वध किए उनके अभियान को देखकर उनके स्वर्गवासी दादा ऋचिक सहित उनके अन्य पूर्वजों ने आकाश में प्रकट होकर उन्हें वध अभियान को रोकने को कहा। तब तक उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी थी। शिव जी का आशीर्वाद प्राप्त हो गया, लेकिन अभी वह कार्य तो शेष था जिसके लिए भगवान श्री हरि ने परशुराम जी के रूप में अवतार लिया था। उस दिशा में परिस्थितियां स्वत: बनती गई। एक दिन राजा सहस्त्रबाहु शिकार के लिए उसी वन में आया, जहां परशुराम जी के पिता जमदग्नि का आश्रम था। जंगल में ही रात्रि होने के कारण सहस्त्रबाहु सेना सहित उनके आश्रम में पहुंचा। महर्षि जमदग्नि ने उसकी और उसकी पूरी सेना की अच्छी आवभगत और भोजन आदि की व्यवस्था की। इससे आश्चर्य में पड़े सहस्त्रबाहु ने महर्षि के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की।
उन्होंने बताया कि आश्रम में स्थित कामधेनु सुशीला नामक गाय के प्रसाद से ही ऐसा संभव हो पाया है। इस पर सहस्त्रबाहु की नियत खराब हो गई और उसने कामधेनु सुशीला गाय ऋषि से मांगा। ऋषि जमदग्नि ने यह कहते हुए कामधेनु देने से मना कर दिया कि इसी गाय के कारण उनके आश्रम की व्यवस्थाएं चलती है। इस पर सहस्त्रबाहु क्रुद्ध हो गया उसके मंत्री चंद्रगुप्त ने जबरदस्ती कामधेनु हासिल की। इतना ही नहीं उसकी आज्ञा से सैनिकों ने आश्रम तहस-नहस कर दिया। महर्षि जमदग्नि कामधेनु के लिए विलाप करते हुए पीछे दौड़ने लगे। चंद्रगुप्त ने उन्हें बुरी तरह से पीट पीट कर मार डाला। परशुराम जी की माता रेणुका पीछा करते हुए वहां पहुंची और पति का शव देखकर करुण क्रंदन करने लगी। उन्होंने विलाप करते करते अपनी छाती 21 बार पीटी, इसलिए वहां पहुंचे परशुराम जी ने 21 बार क्षत्रियों का पृथ्वी से नामोनिशान मिटाने का संकल्प किया। इस संबंध में एक कथा और भी प्रचलित है कि भगवान परशुराम ने पिता के शव पर एक 21 घाव देखकर पृथ्वी से 21 बार क्षत्रियों को समाप्त करने की प्रतिज्ञा की थी।
भगवान प्रभु परशुराम की भगवान कृष्ण से दो बार मुलाकात और श्रीराम जी से एक बार का विवरण पुराणों में मिलता है। महाविष्णु के इन दोनों अवतारों की पहली मुलाकात तब हुई, जब जनकपुर में भगवान राम ने शिव जी धनुष तोड़ा था। कृष्णा अवतार में श्री कृष्ण और बलराम जब गोमंतक पर्वत पर गए थे, तब वहां तपस्या कर रहे भगवान परशुराम से यह दोनों भाई मिले थे। परशुराम ने श्री कृष्ण से कहा वह करवीर के अत्याचारी राजा श्रृंगाल वासुदेव का वधकर जन कल्याण करें।उनकी दूसरी मुलाकात हस्तिनापुर में हुई, जब श्री कृष्ण पांडव का संदेश लेकर कौरव की सभा में जा रहे थे। श्रीकृष्ण को उस समय मार्ग में साधकों का एक समूह मिला । परशुराम जी उसी में थे। उसी समूह में परशुराम जी थे ।श्री कृष्ण ने पहचान प्रणाम किया। तब परशुराम ने उनसे कहा कि कौरवों के समक्ष यथार्थ प्रस्तुत करें, साथ ही पांडवों के सफल होने का आशीर्वाद भी दिए थे।