हरीतिमा संवर्द्धन – मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक

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Dr. BK Singh
डॉ0 बी0 के0 सिंह

पूर्व जोन प्रबंधक, पशुधन विकास परिषद्, गोरखपुर जोन, गोरखपुर


देश की सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक उत्थान में देश में उपलब्ध जल, जीव, जन्तु, जमीन तथा धरती पर उपलब्ध संसाधनों का क्रियाशील होना एवं गुणात्मक स्वरूप का विकास होना अत्यंत महत्व रखता है। भारतीय सामाजिक एवं अर्थव्यवस्था में धर्म एवं रिश्तों के आधार पर प्रत्येक मजहब के लोगों ने जल, जीव, जन्तु, जमीन को एक साथ बाँधते हुए पारस्परिक स्नेह को बढ़ा कर फूलने-फलने का मौका दिया और पीढ़ी दर पीढ़ी निरन्तरता के लिए मर्यादित ढंग से धर्म में पिरो कर मानव समाज को एकजुट करने के लिए बाध्य किया। परन्तु आज मानव सबको भुलाते हुए अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहा है। अंधाधुंध पशुबध, उजड़ते वन, गिरती पशुधन संख्या, टूटते मानवीय रिश्ते, बढ़ते रेगिस्तान के फलस्वरूप असंतुलित होता हुआ वन, मानव और जीव-जन्तुओं का पारस्परिक संबंध पृथ्वी के विनाश में एक अहम् भूमिका निभा रहे हैं। हम अपने अस्तित्व को समाप्त कर रहे हैं। हम अपने पीढ़ी को रेगिस्तान, बढ़ते हुए कंकरीट के दीवार, दम घुटता वातावरण, अस्वच्छ जल एवं पारस्परिक वैमनस्य दे रहे हैं, जो घातक हैं। मानव जीवन का आदिकाल से वन्य जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों से अभिन्न एवं अटूट संबन्ध रहा है। ये एक दूसरे के पूरक रहे हैं। देश की नैसर्गिक सुषमा, वन सम्पदा, दुर्लभ वन्य प्राणियों और पालतु पशुओं का प्रकृतिदत्त वरदान प्राप्त रहा है और ये पूज्यनीय एवम् सम्मानजनक रहे हैं और आज भी हैं, अन्तर केवल इतना है कि आज की भौतिकवादी, भोग विलासी, सुविधा भोगी लालच ने इनके अन्दर निहित अमूल्य गुणों से परखने की क्षमता को दूर कर मनुष्यों को मतिभ्रम कर दिया है।

हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों, ऋषि-मुनियों ने इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया और देवी देवता का निवास एवं वाहन रूप में प्रतिष्ठित कर मानव प्राणी ने आत्मसात किया। मानव-मात्र अपने स्वयं की सुविधा में इस कदर व्यस्त है कि उसने अपने कृत्यों से पृथ्वी पर परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से कितना भयंकर कुप्रभाव डाल रहे हैं, के प्रति अज्ञान सा हो गया है। यह धु्रव सत्य है प्रकृति के जीवन जन्तुओं का, वृक्षों का वातावरण के साथ मनुष्य का अस्तित्व जुड़ा है। सभी एक दूसरे पर सहकारिता एवम् सहभागिता के आधार पर इस पृथ्वी ग्रह पर अपना जीवन संचालन एवम् जीवन यापन कर रहे हैं। किसी एक के असंतुलन से सम्पूर्ण जीवन नष्ट हो जायेगा, न रहेगी यह स्वर्ण मयी धरती। विनाश के कारण होंगे प्रबुद्ध प्राणी (मानव समाज)। प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है कि वे सचेत होवें, प्रत्येक को बतायें, जो अज्ञानता वश, क्षणिक लोभ वश इस धरती की धरोहर को विनाश करने में संलिप्त हैं। वृक्षों की महत्ता को, उसकी जीवन दायिनी उपयोगिता को हमारे वैदिक ऋषियों (वैज्ञानिको) ने भलीभाँति जाना था और उस समय के अज्ञानी अशिक्षित समाज से इस महत्वपूर्ण  सम्पदा को बचाने के लिए धर्म से जोड़ कर, मानव को सामाजिक मर्यादा में बाँध कर दूरदर्शिता का परिचय दिया था।

प्राणि जगत के लिये प्रदूषण नियंत्रण, ऑक्सीजन (प्राण वायु) निर्माण, आर्दता नियंत्रण, मिट्टी, संरक्षण, पशु पक्षी संरक्षण एवं संवर्धन, जैव प्रोटीन, जल क्रम निर्माण आदि के आधार पर यदि एक वृक्ष का मूल्यांकन किया जाये तो वह करीब 20 लाख रूपये का बनता है। आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, वैज्ञानिक प्राण रक्षा उपयोगिता आदि सभी में वृक्ष अत्यन्त उपयोगी तथा मानव जीवन की आवश्यक्ता है। जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कारों में पेंड़ किसी न किसी रूप मे काम आते हैं। वृक्षों की महत्ता एवं मानव हितकारी होने का प्रमाण है कि एक हेक्टेअर खेत में सघन पेड़ एक वर्ष में साढ़े तीन टन (3.5 टन) कार्बन डाई ऑक्साइड (दूषित हवा) को सोख कर लगभग दो टन (2टन) ऑक्सीजन (प्राण वायु) छोड़ते हैं। एक साधारण वृक्ष दो परिवारों द्वारा निष्काषित कार्बन डार्इ ऑक्साइड (दूषित हवा) को अन्दर सोख कर उतनी ऑक्सीजन (प्राण वायु) परिवर्तित करता है जितना दो परिवारों के लिये पर्याप्त है।

एक पीपल का वृक्ष जिसका फैलाव 162 वर्ग मीटर है, 1712 किलोग्राम प्रति घण्टे की दर से ऑक्सीजन (प्राण वायु) देता है तथा 2252 किलोग्राम प्रति घण्टे की दर से कार्बन डाई ऑक्साइड (अशुद्ध हवा) सोखता है। 50-100 मीटर चौड़ा हरित क्षेत्र शहरों में 3.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान कम करता है। औसतन 0.2 से 0.3 घनत्व वाले अशोक, जामुन, पीपल, गूलर, महुआ, बरगद, नीम और आम के वृक्षों से 100 मीटर दूरी औसतन 1.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तापमान कम हो जाता है। 30 मीटर चौड़ी हरित पट्टी 7 डेसिबल का ध्वनि प्रदूषण कम करता है। एक परिपक्व वृक्ष नमी बनाने के लिये प्रतिदिन 400 लीटर जल का वाष्पन करता है जो 5 (पाँच) एअर कण्डीशनर के बराबर है। एक कार 25000 किमी चल कर जो प्रदूषण पैदा करती है उतना प्रदूषण एक बड़े आकार का वृक्ष अवशोषित कर लेता है। बरगद, पीपल, टीक, जंगल जलेबी, आम, अशोक और ट्यूलिस के पौधे धूल कड़ों के अच्छे अवशोषक होते हैं।

एक हेक्टेअर में लगे वृक्ष 30-50 टन धूल प्रति दिन सोखते हैं। एक हेक्टेअर का वन क्षेत्र 3333 घन मीटर पानी रोकता है और संग्रहण क्षेत्र में आरोपित अच्छे वन बाढ़ को 60 प्रतिशत कम कर देते हैं। बाँस के झुण्ड बाढ़ से होने वाले कटान को रोकने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार से हम वृक्षों को उनकी उपयोगिता के अनुसार वर्गीकरण कर वृक्षारोपण कर उनकी रक्षा करते हुये मानव के अस्तित्व को बचा कर पृथ्वी की रक्षा कर सकते हैं। अतः सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि वृक्ष मानव जीवन के लिये कितना जीवनदायी है और भारतीय समान ने भी वृक्षों को देवी देवता का निवास बताकर पूज्यनीय एवं वंदनीय बनाया।

भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ पर रीति रिवाजो व तीज त्यौहारों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा बनायी जो प्रत्येक भारतीयो के जीवन पद्धति में समाहित है। पेड़ जितना हरा भरा होगा दाम्पत्य जीवन उतना ही सुखी, सम्पन्न होगा। वट वृक्ष को सुहाग प्रदान एवम् उसकी रक्षा करने वाला माना जाता है, इसलिये स्त्रियाँ ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत रख कर वट वृक्ष की पूजा करती हैं। पुत्र प्राप्ति के लिये पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है। बहुत जगह प्रथा है कि विवाह के समय वधू महुए के पेड़ पर सिन्दूर लगाकर उससे सुहागिन होने का वर मांगती हैं और वर आम के पेड़ की और काँस के पेड़ों की पूजा कर अपने वैवाहिक जीवन के मंगलमय होने की कामना करता है। हर छठ के दिन स्त्रियाँ झरबेरी और काँस के पेड़ों की पूजा करती हैं और पुत्रों की दीर्घ जीवी होने का वरदान माँगती हैं।

दशहरे पर शमी के पेड़ की पूजा की जाती है। शिवरात्रि के दिन बेलपत्रों की पूजा का विधान है। तुलसी की पूजा प्रतिदिन जल देकर की जाती है। इसे धर्म में डाला गया ताकि प्रत्येक व्यक्ति तुलसी को प्रतिदिन जल देकर जीवित रखे। वैज्ञानिक कारण यह है कि तुलसी अपने आस-पास लगभग 200 गज का क्षेत्र वायु प्रदूषण से बचाये रख सकती है। प्रकृति के इस अनमोल उपहार में असीम रोग संहारक क्षमता है। तुलसी की माला धारण करने से यह शरीर के विद्युत प्रभाव को बनाये रखती है। यह संवर्द्धक व रक्त शोधक है। कोलस्ट्रॉल को नियमित करती है। उष्ण, दाह, पित्त कारक एवं अग्नि दीपक है। इसमें रक्त विकार, पसली के दर्द, क़फ तथा वायु समन करने की भी असीम क्षमता है। यह मलेरिया के कीटाणुओं को नष्ट कर देता है। तुलसी से एक तरल पदार्थ  निकलता है जो टी0बी0 एवं दमा जैसे रोगों को नष्ट करता है।

इसी कारण हमारे पूर्वजों ने इसे पूजा अर्चना में समाहित कर महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। जो अनन्त काल से श्रद्धा का केन्द्र है। पलाश के वृक्ष पर माँ शीतला का निवास है, अतएव उसकी पूजा की जाती है। चेचक निकलने पर पलाश के वृक्ष की आज भी पूजा की जाती है तथा नीम के पत्ते से मरीज को हवा की जाती है। इसमें औषधीय गुण है। नीम वायरस प्रदूषण से बचाती है। इस प्रकार वृक्ष एवम् अन्य वन सम्पत्तियाँ मानव जीवन के संरक्षक हैं। इनको बचाना चाहिए तथा नये-नये वृक्ष का रोपण कर भविष्य हेतु पृथ्वी को विनाश के कागार पर जाने से प्रत्येक मानव प्राणी को सच्चे दिल से लग जाना चाहिए।

भावी पीढ़ी आज के मनुष्यों के हाथों में ही सुरक्षित है। वृक्षारोपण का कार्य उसके अन्दर निहित गुणों के आधार पर किया जाये, जैसे – शोर अधिक होने वाले क्षेत्र में शोर शोषक वृक्ष लगाये जायें, अधिक धूल एवं वाहन चलने वाले क्षेत्र में धूल एवं कार्बन डाई अवशोषक वृक्ष लगाये जायें, जल प्रदूषण क्षेत्र में जल शोधक वृक्ष लगायें जाये, बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों तथा कटान वाले क्षेत्रों में कटान रोकने वाले वृक्ष लगाये जायें। इस प्रकार वृक्षारोपण कर हम पृथ्वी को बचाकर मानव के अस्तित्व की रक्षा कर पायेंगे। हमारा कितना दायित्व है? हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं, और कैसा जीवन जीने को बाध्य हैं? हमें अपने पूर्वजों से विरासत में क्या मिला था और हम अपनी संतानों को क्या दे जायेंगे? इन तमाम प्रश्नों पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यक्ता है। विज्ञान की कृत्रिम दौड़ में हम अपनी सहजता खो बैठे हैं। कहाँ गयी हमारी संवेदनशीलता, आपसी प्रेम भाव, भाईचारा? मानव के प्रति करूणा, दया, सहानुभूति के स्थान पर घृणा, क्रूरता, कठोरता, छल एवं कपट का व्यवहार क्यों? इस पृथ्वी ग्रह पर हम क्या लेकर आये थे, क्या देकर जायेंगे और यहाँ से क्या कुछ ले जा पायेंगे। यदि मानव समाज गहराई से अपने मन में विचार करेतो समस्यायें स्वतः दूर हो जायेंगी। सौ वर्षों के अन्तराल में हम बहुत कुछ खो बैठे हैं।

हमारे पूर्वजो का आरोग्य, उनका स्वास्थ्य, उनका व्यवहार, उनका आचरण, विचार, उनकी आयु उनका सरल-सहज रहन-सहन, खान-पान वास्तव में आज एक सपना लगता है। हम बहुत दूर हो गये अपने पूर्व जो की जीवन शैली से। संस्कारों में ढ़ल न पाये बल्कि संस्कारों से दूर हो गये। आज भी वनों का कटान जारी है, हरे वृक्ष काटे जा रहे हैं, वन में विचरण करने वाले प्राणियों का जीवन संकटों से भरा है। पशुवध एवं तस्करी तेजी से है, पृथ्वी विनाश के तरफ जा रही है। सरकारी व्यवस्था भी मात्र काग़जी एवं अनियंत्रित तथा तकनीकी दृष्टिकोण से अयोग्य हैं। स्वयं सेवी संस्थायें भी मात्र औपचारिकतायें ही निभा रहीं हैं। कर्मठ लगनशील एवं ईमानदार स्वयंसेवकों का आज अभाव है, नैतिक मूल्यों कमी, भोग विलास के प्रति दर-दर भटकता मानव प्राणी स्वयं अपने हाथों स्वर्गमयी पृथ्वी को तहस नहस करने पर तुला है।

आज आवश्यक्ता है हरीतिमा संवर्धन की जिसको केनोपनिषद् के चतुर्थ खण्ड में वन संज्ञक ब्रह्म की उपासना का फल बताते हुय कहा गया है कि ब्रह्म ही वन है। एक पेड़ लगाना एवं पाल पोस कर बड़ा करना, एक पुत्र के समान है के विचार को यदि हृदयंगम किया जा सके तो पृथ्वी की रक्षा एवं उसकी पर्यावरण की सुरक्षा वृक्षारोपण का क्रम चला कर किया जा सकता है तभी “आत्मवत् सर्वभूतेषु” का विचार रूप से प्रतिपादन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर में दो पेड़ लगाना चाहिए एवं वृक्षारोपण कर सभी को साथ चलना चहिए वरना मानव वंशावली समाप्त हो जाएगी। आम, नीम, अमरूद, जामुन, कटहल, पलास, पीपल, बरगद, अशोक, जंगल जलेबी, टीक, इमली, सहजन, गूलर, पाकड़ के पेड़ों को बहुलता से लगाना चाहिए। प्रत्येक पेड़ 12 राशियों से सम्बन्धित है यहीं पेड़ों का सम्बन्ध नक्षत्रों से भी है, सूर्य के सात रंगों वाली किरणें इन्ही 12 राशियों से गुज़र कर वृक्षों एवं मनुष्यों पर पड़ती हैं। प्रत्येक वृक्ष का सम्बन्ध किसी न किसी राशि से है और उस राशि से संक्रमण काल में सम्बन्धित वृक्ष उस राशि से सम्बन्धित मनुष्य की रक्षा करते हैं। इसी लिये पूर्वजों ने दस वृक्ष के बराबर एक पुत्र की उपमा दी है।

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