चैत्र रामनवमी को भगवान श्रीरामचन्द्र का जन्म हुआ था। इस दिन उपवास रखकर भगवान श्रीराम का पूजन और व्रत रखा जाता है। इस दिन को दुर्गा नवमी और रामनवमी दोनों कहा जाता है। इसमें शक्ति और शक्तिधर दोनों की पूजा की जाती है। इस दिन के व्रत की चारों जयन्तियों में गणना है। इसमें मध्याह्न व्यापिनी शुद्धा तिथि ली जाती है। विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है कि यदि दो दिन मध्याह्न व्यापिनी हो तो पहले दिन जिस समय मध्यान्ह में शुक्ल नवमी हो उसी दिन व्रत रखना चाहिए। यह भी कहा गया है कि यदि इसमें अष्टमी का वेध हो तो निषेध नहीं है, दशमी का वेध वर्जित है।
यह नित्य, नैमित्तिक और काम्य- तीन प्रकार का होता है नित्य होने से इसे निष्काम भावना रखकर आजीवन किया जाए तो उसका अनन्त और अमिट फल होता है। और यदि किसी निमित्त या कामना से किया जाए तो उसका यथेष्ठ फल मिलता है। पुराणों के अनुसार श्रीरामचन्द्र जी का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र ( दूसरे मत से पुनर्वसु नक्षत्र), मध्याह्न कर्क लग्न में हुआ था। उत्सव के लिए तो यह सदैव आ नहीं सकते, परन्तु जन्मर्क्ष कई बार आ जाता है। अतः वह हो तो उसी को ले लेना चाहिए। जो व्यक्ति रामनवमी का भक्ति और विश्वास के साथ व्रत करते हैं, उनको महान फल मिलता है।
व्रती को चाहिए कि व्रत के पहले दिन अर्थात चैत्र शुक्ल अष्टमी को प्रातः काल स्नान से निवृत्त होकर भगवान रामचंद्र जी का स्मरण करें और दूसरे दिन चैत्र शुक्ल नवमी को नित्य कृत्य से निवृत्त होकर –
“उपोष्य नवमी त्वद्य यामेष्टष्टसु राघव। तेन प्रीतो भव त्वं हो संसारात् त्राहि मां हरे।।”
इस मन्त्र से भगवान के प्रति व्रत करने की भावना प्रकट करें और – ” मम भगवत्प्रीति कामनया रामजयन्ती व्रतमहं करिष्ये”
यह संकल्प करके काम क्रोध लोभ मोहादि से रहित होकर व्रत करें। तत्पश्चात मन्दिर अथवा अपने घर पर ही ध्वजा पताका, तोरण और बंदनवार करके, उसके उत्तर भाग में रंगीन कपड़े पर मण्डप बनाएं और उसके अन्दर सर्वतोभद्रमण्डल की स्थापना करके, उसके मध्य भाग में यथाविधि कलश स्थापन करें। कलश के उपर राम पंचायतन ( जिसके मध्य में राम- सीता, दोनों पार्श्वों में भरत, शत्रुघ्न, पृष्ठ प्रदेश में लक्ष्मण और पादतल में हनुमान जी) की सुवर्ण निर्मित मूर्ति स्थापना करके, उसका आवाहन षोडशोपचार पूजा करें।
इस दिन भगवान का भजन – स्मरण, स्त्रोत पाठ, दान- पुण्य, हवन, पितृ श्राद्ध और उत्सव करें। इस दिन रात्रि में गायन वादन नर्तन ( रामलीला) और चरित्र श्रवणादि द्वारा जागरण करें। दूसरे दिन दशमी को पारित करके व्रत का विसर्जन करें। यदि शक्ति हो तो सुवर्ण की मूर्ति का दान भी करें। इस दिन ब्राह्मण और विष्णु भक्तों को भोजन भी कराना चाहिए।
हवन का समय
17 अप्रैल को प्रातः सूर्योदय 5 बजकर 41 मिनट से सायंकाल 5 बजकर 22 मिनट के अंदर कभी भी हवन किया जा सकता है।
नवमी तिथि
सायंकाल 5 बजकर 22 मिनट तक
माता दुर्गा की प्रसन्नता के लिए नवमी के दिन आवश्यक सामग्री लेकर हवन किया जाता है। हवन में हविष्य के लिए- धूप, नारियल, गुग्गुल, मखाना, काजू, किसमिस, छुहारा ,मूंगफली ,बेलपत्र ,बेल की गुद्दी, छुहारा, सुगंधित पदार्थ जैसे चंदन का चूर्ण इत्यादि का प्रयोग करना उत्तम माना जाता है। उसमें तिल ,घी और गुड़ भी मिलावें। उपरोक्त वस्तुओं को मिलाकर हवन सामग्री बना लें। हवन के लिए प्रज्ज्वलित करने के लिए आम की लकड़ी, बेल की लकड़ी, चंदन की लकड़ी उत्तम मानी जाती है हवन करने से पहले पूर्व स्थापित देवताओं की पंचोपचार या षोडशोपचार से पूजन करें।
यदि देवताओं की स्थापना नहीं हुई है तो स्थापित है तो एक ही उपचार से या हाथ जोड़कर देवताओं का स्मरण कर लें। जहां हवन करना है उसके चार और कुश बिछा दें। कपूर जलाकर अग्नि पूजन करें। उसके बाद से गणेश देवता, नवग्रह और ग्रामदेवता इत्यादि को आहुति प्रदान करें। पश्चात -“ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ” मंत्र से एक माला आहुति दें। यदि एक माला आहुति न दे पाते हों, तो 28 बार अवश्य हो आहुति दें। देवी भागवत में बताया गया है कि दुर्गा सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मंत्र है। अतः विस्तार से हवन करना चाहते हैं तो कवच, कीलक, अर्गला का पाठ करते हुए सप्तशती के सभी 13 अध्याय के मंत्रों से- स्वाहा संयुक्त कर आहुति प्रदान करें।