सनातन मूल्यों की संवाहक देवरिया की पैकौली कुटी

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  • वैष्णव संप्रदाय की सबसे बड़ी पीठ है पैकौली कुटी

विवेकानंद त्रिपाठी


(वरिष्ठ पत्रकार)

सनातन जीवन मूल्यों के क्षरित होने वाले आधुनिक परिवेश में देवरिया जनपद स्थित पवहारी महाराज की गद्दी इन मूल्यों की थाती को बहुत ही संजीदगी के साथ संजोए हुए है। यह वैष्णव संप्रदाय की सबसे बड़ी पीठ मानी जाती है। कोई 300 साल के बेहद उथल पुथल वाले कालखंड की साक्षी इस गद्दी के पीठाधीश्वर अपनी कठिन साधना और दिनचर्या के लिए जनमानस में समादृत हैं। इस आध्यात्मिक पीठ से जुड़े पीठाधीश्वरों का साधना के साथ सामाजिक सरोकार उन्हें खास बनाता है। यहां उसी संत को इस पीठ के पीठाधीश्वर के रूप में अभिषिक्त किया जाता है जो काया क्लेश की साधना और वीतरागी होने के साथ पीड़ित और उपेक्षित लोगों का पालनहार बनने की क्षमता रखता हो।

यही वजह है कि इस गद्दी के पीठाधीश्वरों को एक जगह स्थाई रूप से रहना वर्जित है। उनके साथ उनके अनुचरों की पूरी जमात चलती है और इस जमात के भोजन आदि का प्रबंध गद्दी से जुड़े गांवों के लोग करते हैं। इसके लिए साल के बारहों महीने पीठाधीश्वर अपनी जमात के साथ सतत भ्रमणशील रहते हैं। इस मामले में रमता योगी और बहता पानी की कहावत को वह पूरी तरह आचरण में लाकर चरितार्थ करते हैं। वर्तमान में कौशलेंद्र दास जी इस गद्दी के आठवें पीठाधीश्वर हैं और पूर्ववर्ती संत परंपरा का बहुत ही शुद्धता के साथ पालन कर रहे हैं। आइए आपको महान संत परंपरा की संवाहक इस गद्दी से जुड़े कुछ रोचक कहानियों से रबरू करा रहे हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी जनमानस के मुखारबिंद से चलती चली आ रही हैं :

पौकौली गद्दी का इतिहास

देवरिया जनपद स्थित आध्यात्मिक पीठ पैकौली गद्दी जनपद मुख्यालय से पश्चिम दिशा में स्थित है। जनश्रुतियों में यह पीठ पवहारी महाराज की गद्दी और दस्तावेजों में राज राजेश्वर भगवान के नाम से जानी जाती है। हजारों वर्ष पुरानी भारत की सनातन परंपरा को पुष्पित पल्लवित करने में जनश्रुतियों की बहुत बड़ी भूमिका है। सनातन जीवन पद्धति और उसकी धरोहरों को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचाने में जनश्रुतियों का बड़ा महत्व है। लोकजीवन में इन जनश्रुतियों की मान्यता इतनी गहरी रची बसी है कि इसके प्रति अविश्वास करना जनमानस की आस्था पर आघात करना है। 300 साल पुरानी इसआध्यात्मिक पीठ के स्थापित होने की कहानी रोचक तो है ही यह पीठ से जुड़े संतों के तपबल से सतत आलोकित भी है। आइए लोकजीवन में बसी इस कहानी को जानते हैं। देवरिया जनपद में ही भगवान शिव का एक प्रसिद्ध स्थान है महेंद्रानाथ। इसका जनमानस में प्रचलित नाम महेन है। यहां धूसर पत्थर से निर्मित शिव की पूरी आकृति ही जमीन से कोई 5 फीट ऊपर निकली हुई है। स्वयंभू शिव की यहअपने तरह की अनूठी प्रतिमा है। इसका आकार प्रकार मोहनजोदड़ौ की खुदाई में मिले पशुपति से काफी साम्य रखता है।

आज से 300 साल पहले इस क्षेत्र में जंगल ही जंगल थे। उसी जंगल के बीच स्वयंभू शिव की प्रतिमा विराजमान थी। जनश्रुति के मुताबिक इसी प्रतिमा को महेन गांव के रहने वाले एक गृहस्थ संत लक्ष्मीनारायणदास जी रोज रामकथा सुनाते थे। बताते हैं कि वह कथा सुनने साक्षात भगवान शिव आते थे और पूरी कथा के दौरान हुंकारी भरते हुए कथा का श्रवण करते थे। संत की यह नियमित दिनचर्या थी।सरयू में नित्य स्नान और कथा वाचन। यह कथा वे रात में ही अपने घर से चलकर सुनाने आते थे। कुछ दिन तक यह क्रम निर्बाध चलता रहा। एकदिन संत की सहचरी को शक हुआ कि आखिर रात को रोजाना यह जाते कहां है। ऐसे मामलों में किसी भी स्त्री की यह स्वाभाविक सी प्रतिक्रिया होती है। उनकी गृहणी भी अपवाद नहीं थीं। उन्होंने इसका पता लगाने का निश्चय किया। जब संतप्रवर घर से निकले तभी उनकी धर्मपत्नी भी उनका पीछा करते हुए उनके पीछे चल दीं। शिवस्थान पर पहुंचने के बाद वे अपने पति की गतिविधि जानने के लिए कुछ दूरी पर एक पेड़ के पीछे छिप कर सारा मंजर देखने लगीं।

ठाकुर जी की आरती करते हुए पीठाधीश्वरकाफी देर कथा सुनाने के बाद जब प्रति उत्तर में शिव जी की हुंकारी नहीं सुनाई पड़ी तो संत ने सिर उठाकर अगल बगल के क्षेत्र में अपनी नजर डाली तो पेड़ की ओट में छिपी अपनी पत्नी को देख लिया। उन्हें शिव के हुंकारी न भरने का रहस्य समझ में आ गया। जनश्रुतियों के मुताबिक संत प्रवर को अपनी पत्नी का इस तरह आना अपनी साधना में विघ्न लगा। उन्होंने वहीं घर छोड़ने का निश्चय कर लिया। उन्होंने गांव वालों के सहयोग से हाथी मंगवाया। बताया जाता है कि शिव जी का ही आदेश था कि इस हाथी पर सवार होकर जाते समय जहां सूर्योदय हो जाय वहीं उतरकर आसन जमा लेना। उनका हाथी चलते चलते जिस स्थान पर पहुंचा और वहां सूर्योदय दिखा उसे आज जंगल ठकुरही के नाम से जानते हैं।

बताते हैं उस समय वहां जंगल ही जंगल था। उसी बीच गांव की बस्ती भी थी। जिसे साक्षात शिव का साक्षात्कार हो चुका हो उसको दुनिया के वैभव से क्या लेना देना। संत के बारे में गांव के आसपास लोगों को पता चला तो वे उनके भोजन आदि के लिए चिंतित हुए मगर संत ने अन्न त्याग का व्रत ले लिया था। वे जंगल से मिलने वाले फलों और गाय के दूध पर अपना जीवन यापन करते थे। जहां वे ठहरे थे वहां एक तालाब भी था। गांव की महिलाएं उसमें प्राय: निर्वस्त्र स्नान करती थीं। संत उन्हें ऐसा करने से मना करते थे। महिलाएं गरीबी के चलते ऐसा करती थीं। उनके पास एक ही वस्त्र होता था। वे उसे निकालकर किनारे रख देतीं और स्नान करतीं। अपने वहां शास्त्रों में जल में नग्न स्नान वर्जित है। जल को वरुण देवता का साक्षात रूप माना जाता है। संत ने वहां आने वाले श्रद्धालुओं से उन्हें ऐसा न करने को कहा मगर वे नहीं मानीं।

और इस तरह हवा में उड़ गए वस्त्र

एक दिन संत ने योगमाया से उनका वस्त्र हवा में उड़ा दिया। उन्हें जब पता चला कि उनका वस्त्र योग माया से संत ने ही गायब कर दिया है तो उन्होंने अपनी फरियाद उन तक पहुंचाई। संत ने जल में बिना वस्त्र के स्नान न करने के उनके वचन के साथ उनके वस्त्र वापस मंगा दिए। इसके अलावा वे वहां आने वाले लोगों को तपबल से उनकी पसंदीदा चीजें प्रसाद के रुप में देने लगे। धीरे धीरे उनकी ख्याति आसपास के गांवों में इतनी फैल गई कि लोग उन्हें आश्रम बनाने के लिए आग्रह करने लगे। एकदिन पैकौली के जमींदार और मौजूदा समय में रामकोमल शाही के पूर्वजों ने अपने गांव पैकौली में 52 बीघे भूमि कुटी बनाने के लिए दान कर दी और संत को वहां अपनी स्थाई कुटी बनाने का आग्रह किया। मगर संतप्रवर ने बहुत दिनों तक उनका यह आग्रह दरकिनार रखा। आस पास के लोगों के बहुत जोर देने पर उन्होंने वहां अपनी कुटिया बनाई साथ ही गद्दी की आध्यात्मिक चेतना को सर्वोपरि रखते हुए बहुत ही सख्त नियम बनाए। हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या, रहें आजाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या। इस नश्वर संसार की क्षणभंगुरता का उन्हें पूरा एहसास था ऐसे में दुनियावी वैभव उनके लिए धूल सदृश था।

गद्दी और जमात की परंपरा

स्वामी विवेकानंद ने कहा था हमें अगर एक संवेदनहीन संन्यासी से संवेदनशील गृहस्थ होने के बीच किसी एक को चुनना हो तो मैं संवेदनहीन सन्यासी होने की अपेक्षा संवेदनशील गृहस्थ होना पसंद करूंगा। इस गद्दी के पीठाधीश्वर भी इसी सिद्धांत का पालन करते आ रहे हैं। वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति के साथ पीड़ित बुभुक्षु जनता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करने में भी सबसे आगे हैं। यहां बता दें कि गुलाम भारत में दुर्भिक्ष, अकाल सालाना विपदा की तरह आते थे। बहुत कम ही परिवार ऐसे थे जहां दोनों वक्त चूल्हे जलने की नौबतआती थी वरना एक वक्त फांकाकशी तो उनकी नियति थी। इधर गद्दी से जो कोई भी जुड़ता उसे दो वक्त का भोजन तो मिलना तय था। इस तरह की मुफलिसी में जीवन बिताने वालों के लिए गद्दी सम्मानपूर्वक जीवन जीने का बहुत बड़ी जरिया बन गई। धीरे-धीरे ऐसे लोगों की बड़ी संख्या हो गई। गद्दी की कोई स्थाई आय तो थी नहीं वृत्ति से ही लोगों का भरण पोषण होता था। ऐसे में पवहारी महराज ने जमात के साथ गांव गांव भ्रमण का नियम बनाया जो आज भी बदस्तूर जारी है।

कीर्तन मंडली

जमात में सबको जिम्मेदारी सौंपी गई ताकि लोगों को कुछ करने का एहसास होता रहे और उनके अंदर हीन भावना न घर करे। जब पवहारी महाराज की जमात अपने भ्रमण के दौरान प्रयाण करती थी तो लगता था कोई छोटी मोटी सेना जा रही है। आठ कहांरो वाली पालकी में पीठाधीश्वर अपने आराध्य ठाकुर जी के साथ आसीन होते थे और साथ में हाथी घोड़े और सुदर्शन गोवंश की टोली। इस गोवंश को देखने के लिए लोगों का मजमा लग जाता था। जमात के साथ हाथी घोड़ों और दर्जनों गोवंश को साथ लेकर चलने की परंपरा इस गद्दी के पांचवें पवहारी महाराज तक बदस्तूर चलती रही। जैसे जैसे समृद्धि आती गई जमात में आने वालों की संख्या कम होती गई। नहीं तो जिसको दो जून का खाना नसीब नहीं हो पाता था उसे लोग कहते थे तुम पवहारी महाराज की जमात में शामिल हो जाओ।

पवहारी महाराज की जमात का भ्रमण उत्तरप्रदेश, बिहार के साथ राजस्थानऔर मध्यप्रदेश तक है। एक स्थान पर पवहारी महाराज अपनी जमात के साथ तीन दिन से ज्यादा नहीं रुकते हैं। पहले 10-12 किलोमीटर चलने के बाद जमात का डेरा किसी न किसी गांव में पड़ जाता था। जमात का पूरा प्रबंधन इसमें शामिलअनुचर करते हैं।यानी पूरी तरह से एक लोकतांत्रिक तरीके से जमात का संचालन होता है। इनके प्रमुख सदस्यों में जलभरिया ,फलहारी, हजूरी, भंडारी, पुजारी और हरिकारा शामिल हैं। हरिकारों की संख्या पहले सर्वाधिक 16 हुआ करती थी। इस समय आठ है। इनका काम पीठाधीश्वर के अगले पड़ाव के लिए संबंधित गांव के यजमान को संदेश देकर उनकी स्वीकृति लेना होता है। उसी के अनुरूप पवहारी महाराज वहां पूरी जमात के साथ पहुंचते हैं। वहां रात्रि विश्राम होता है। भोजन से लेकर दान दक्षिणा तक की जिम्मेदारी गांव के लोग उठाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि पवहारी महाराज ने गांव गांव रमता करने का संकल्प जनसरोकरारों के चलते ही लिया है और उसका आज बी काफी हद तक पालन भी किया जा रहा है।

गांव में रमता करते पीठाधीश्वर
गांव में रमता करते पीठाधीश्वर

जब सरयू का जल शुद्ध घी में बदल गया

इस गद्दी से जुड़े चमत्कारों की एक लंबी फेहरिश्त है। इन चमत्कारों के बहुत लोग प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। उनके जरिए ही लोगों की स्मृतियों में ये आज भी ताजा हैं। गोरखपुर के बड़हलगंज कस्बे में पैकौली गद्दी का ही आश्रम है जिसे चरणपादुका के नाम से जाना जाता है। यहां हर साल महीने में रथयात्रा पर बड़ा मेला लगता है। प्रसाद के रूप में शुद्ध घी का मालपुआ बनता है और ठाकुर जी को भोग लगाने के बाद श्रद्धालुओं में इसका वितरण किया जाता है। पवहारी महाराज का रमता का कार्यक्रम ऐसा रखा जाता है कि वे रथयात्रा के दिन बड़हलगंज के चरणपादुका में विराजमान होते हैं।

बात चौथे पीठाधीश्वर मणिरामदास जी के समय की है। रथयात्रा के दिन मालपुआ बनाया जा रहा था। मगर कुछ ही देर के भीतर शुद्ध घी का भंडार समाप्त हो गया। पाठशाला में हड़कंप मच गया। मामला महाराज जी के पास पहुंचा। उन्हें बताया गया कि अभी आधी से ज्यादा सामग्री है और घी समाप्त हो गया है। महाराज जी मुस्कराए. कहा माता सरयू को निमंत्रण नहीं भेजा था क्या ? यज्ञ के प्रबंधक से यह चूक हुई थी। उन्होंने बहुत अपराधबोध के साथ अपनी चूक स्वीकार की। महाराज जी ने उनसे कहा, जाइए मां सरयू को विनम्रता से निमंत्रण देकर और उनसे निवेदन करके जितनी मात्रा में घी की जरूरत हो उतने पात्रों में जल भरकर लाइए और कड़ाहों में डाल दीजिए। यही किया गया और कड़ाहों में डालने के साथ ही सरयू जल शुद्ध घी में परिवर्तित हो गया। इस चमत्कार को देखने वाले लोग अभी कुछ ही समय पहले इस दुनिया से अलविदा हुए हैं। यज्ञ पूरा होने के साथ जितनी मात्रा में सरयू जी का जल लाया गया था उतना शुद्ध घी सरयू में प्रवाहित कर उनका उधार भी चुकाया गया।

वैष्णव संत परंपरा

पैकौली पीठ के पीठाधीश्वर वैष्णव संत परंपरा के अनुयायी हैं। इसी धारा के अनुरूप इनका आचार, व्यवहार, पूजाआराधना आदि होती है। कोई दिखावा नहीं। अहर्निश नाम जप और संकीर्तन इनकी दिनचर्या में शामिल है। इस गद्दी के पीठाधीश्वर अन्न नहीं ग्रहण करते। वे दूध और फल पर ही निर्भर रहते हैं वह भी बहुत अल्प मात्रा में। इन्हें दिन में शयन वर्जित है।

जमात के प्रमुख सदस्य

मौजूदा समय में जमात से स्थाई रूप से जुड़े लोग

जनार्दन तिवारी बीते 64 सालों से इस गद्दी से जुड़े हैं। इसके अलावा दुर्गा तिवारी, सूरतदास, अनिरुद्ध दास जी, ब्रजभूषण दास, बबलू मिश्र, त्रिभुवन पाण्डेय, योगेश पाण्डेय, शंकर, हरिलाल, नंदलाल, शंभू, मुक्तेश्वर तिवारी, रामकृपाल, रामभवन, नान्हू,सोनू तिवारी, चंद्रमा शुक्ल, जीतेंद्र शुक्ल प्रमुख हैं। इस जमात में अच्छे से अच्छे भजन,कीर्तन गवैया हैं। वे स्थाई रूप से भले ही जमात में नहीं रहते मगर जिस गांव में पवहारी महाराज अपनी जमात के साथ प्रवास करते हैं वे स्वत:स्फूर्त ढंग से वहां पहुंच जाते हैं और सुबह शाम ठाकुर जी की आरती के समय रसमय भजनों से वातावरण को बहुत ही मनोहारी बना देते हैं। जमात में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं है इसमें सभी बिरादरी के लोग शामिल किए जाते हैं।

जमात और गप्फा बाबा की कहानी

इस जमात में गप्फा बाबा नाम से प्रख्यात श्री संप्रदाय के संत की कहानी बहुत रोचक है। बहुत लंबा अरसा नहीं हुआ। कोई चालीस साल पहले की बात है। उन्हें प्रत्यक्ष देखने वाली पीढ़ी के लोग मौजूद हैं और गप्फा बाबा और उनका वृहद भोजन उनकी स्मृतियों में धूमिल नहीं पड़ा है। गप्फा बाबा को बड़े से परात में भोजन परोसा जाता था और उन्हें खुद इस गद्दी के पीठाधीश्वर अपने हाथों से जिमाते थे। उनका जिमना देखने के लिए लोगों की भीड़ लगती थी। उनके तृप्त होने के बाद ही जमात भोजन करती थी। लोग बताते हैं उन्हें इष्ट था। उसी के जरिए वृहद भोजन का वे कौतुक करते थे।अब वह परंपरा समाप्त हो गई। अब जमात की संख्या बहुत सीमित हो गई है। वजह अब पहले जैसी आस्था भी नहीं है और सभी को दो जून की रोटी सहज उपलब्ध है।

ये पैकौली गद्दी के दिवंगत पीठाधीश्वरों की फाइल फोटो

पीठाधीश्वर कौशलेंद्र दास जी

बकौल मौजूदा पवहारी महराज परंपराओं और धर्म के साथ आपसी रिश्तों का भी बड़ा क्षरण हुआ है। तकनीक रिश्तों पर हावी हो रही है। कहने को तो तकनीक ने पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है मगर वास्तविकता यह है कि दिलों के बीच दूरियां बढ़ गई हैं। एक साथ चार छह लोग बैठते हैं फिर भी उनमें संवाद नहीं होता।सबअपने मोबाइल सेटों में मशगूल होते हैं। कहने को पास पास मगर हैं एक दूसरे से दूर दूर। जिस तकनीक से जुड़े हैं उसमें भी भावनाओं के संप्रेषण के लिए उनके पास शब्द नहीं होते। ज्यादातर प्रतीकों में बात करते हैं। सबकुछ कृत्रिम। लोगों का धर्म के प्रति भी लगाव खत्म होता जा रहा है। आडंबर और दिखावा ज्यादा है। धर्म तो सही मायनों में धारण करने की वस्तु है। धारण यानी सद्गुणों की धारणा। हमारा सनातन धर्म तो इतना विराट है कि इसमें किसी का निषेध है ही नहीं। सहनाववतु, सहनौभुनक्तू, सहवीर्यं करवारवहै। अयं निज: परोवेति गणना लघु चेतसाम, उदार चरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम। आ नो भद्रा क्रतव: संतु विश्वत:की आर्ष भावना के हम प्रणेता रहे हैं। आज अपने को सर्वाधिक विकसित और सभ्य होने का दावा करने वाले देशों के पूर्वजों तक जब सभ्यता और संस्कृति की एक किरण तक नहीं पहुंची थी उस समय हमारे सिद्ध ऋषियों ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य सारी दुनिया के सामने उजागर किया था। हम उस महनीय परंपरा के लोग हैं पर आज हम अपनी जड़ों से कटकर भौतिकता की ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हैं जहां का रास्ता सिर्फ विनाश की ओर जाता है। हमें अपनी शानदार संस्कृति, परंपरा और समृद्ध विरासत से जुड़ना होगा तभी हम दुनिया में अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की ध्वजा लहरा सकते हैं।

पैकौली गद्दी के अब तक के आठ गौरवशाली पीठाधीश्वर

  1. लक्ष्मीनारायण दास जी
  2. सियारामदास जी
  3. अवधकिशोर दास जी
  4. मणिरामदास जी
  5. उपेंद्र दास जी
  6. ऋषिरामदास जी
  7. राघवेंद्र दास जी
  8. पीठाधीश्वर कौशलेंद्र दास जी
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