(लेखक दूरदर्शन के अंतर्राष्ट्रीय कमेंट्रेटर, वरिष्ठ पत्रकार)
चिलचिलाती धूप में भूख से बिलबिलाती गौमाता
जी हाँ यही कटु सत्य है गौसेवक मुख्यमंत्री के उत्तर प्रदेश की अधिकांश गौशालाओं का। उत्तरप्रदेश में लगभग पाँच सौ पंजीकृत गौशालाएं हैं। जिनके लिये प्रदेश सरकार की तरफ से प्रतिवर्ष न्यूनतम 600 करोड़ रुपये से अधिक की राशि आवंटित की जाती है। सरकार की तरफ से गौसेवा के लिये जो आयोजन किये जाते हैं अथवा विज्ञापन दिये जाते वो ख़र्च अलग है। इसके अतिरिक्त गौसेवा और गौशाला के नाम पर केंद्र सरकार की तरफ़ से भी प्रतिवर्ष भारी भरकम रकम आती है। लब्बोलुबाब यह कि गौशाला-गौसेवा के नाम पर सरकार की तरफ से सलाना हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं। इतने ख़र्च में तो जितनी पंजीकृत गौशालाएं हैं उनमें अब तक जगपालक कृष्ण-कन्हैया के नंदगांव जैसी आदर्श गौशाला का दृश्य दिखना चाहिये था ! क्या है कहीं ऐसा..?
जवाब है कदापि नहीं। स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। इस चिलचिलाती गर्मी में अधिकांश गौशालाओं में कहीं खुले आसमान के नीचे तो कहीं 47-48 डिग्री तापमान में तपते-दहकते तीन शेड के नीचे, कहीं खड़ी तो कहीं बेबस पड़ी गौमाता भूख से बिलबिला रही हैं। यह आँखों देखा हाल मैं बता रहा हूँ प्रदेश की राजधानी लखनऊ ज़िला मुख्यालय से मात्र बीस से तीस किलोमीटर के दायरे में स्थित गौशालाओं का। जब राजधानी के निकट गौसेवक मुख्यमंत्री की नाक के नीचे स्थित गौशालाओं का यह हाल है तो प्रदेश के दूर दराज़ इलाक़ों में क्या हाल होगा, अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं।
जहाँ सरकारी स्तर पर दिल दहला देने वाली संवेदनहीनता, पल्ले दर्ज़े की अकर्मण्यता लापरवाही तारी है वो वहीं श्री नारायण स्वामी परमहंस जी महाराज द्वारा स्थापित श्री नारायण आश्रम के मुख्य कर्ताधर्ता बाबा राहुलानन्द जी जैसे दृढ़प्रतिज्ञ समर्पित गौसेवक भी हैं। उनके बारे में जानकारी होने पर उनसे मुलाकात की। अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वतन वापसी पर उनका आध्यात्मिकता की ओर रुझान हुआ और प्रभु कृपा से वो सिद्ध संत श्री 108 श्री नारायण स्वामी परमहंस जी महाराज के सानिध्य में आ गये। पर्यावरण और पशु प्रेमी राहुलानंद जी बताते हैं कि स्वमी जी के साथ रहते गौमाता से जुड़ी एक विशेष घटना के बाद उनके मन में गौ सेवा का ऐसा भाव जगा कि उन्होंने अपना जीवन और अपनी सारी जमापूँजी अघोषित रूप से बस गौसेवा के नाम कर दी।
बाबाजी के सेवाभाव से प्रभावित हो गुलदीप सिंह सेंगर, विनोद कुमार, उमेश शुक्ला, धर्मेंद्र कुमार वैश्य और राहुल शुक्ला जैसे कुछ अन्य स्वैच्छिक गौसेवक भी उनके साथ जुड़ गये हैं। ये सभी अपने जीवकोपार्जन के लिये नौकरी, व्यवसाय आदि अन्य कारोबार में हैं, किंतु जब जैसे जितना समय मिलता है धार्मिक आध्यात्मिक क्रियाकलाप के साथ पूर्ण समर्पण भाव से गौ सेवा करते अपना इहलोक और परलोक दोनों सुधार रहे हैं। बाबा जी या आश्रम की तरफ़ से इन्हें कोई मानदेय अथवा किसी प्रकार की अन्य कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती। हाँ बाबा इनसे कोई आर्थिक सहयोग लेते भी नहीं। कहते हैं जीवन में समय ही सबसे बड़ा धन है, गौसेवा के लिये समय देकर आप सब सबसे बड़े धन का अंशदान कर रहे हैं। यही पर्याप्त है। हालाँकि गौसेवा के लिये आश्रम का भी कोई फंड नहीं है। तो फिर अनवरत गौसेवा का ये उपक्रम आख़िर संचालित कैसे होता है..! धन की व्यवस्था कहाँ से होती है ! जिज्ञासा प्रकट करने पर बाबा मुस्कराते हुए सकुचाते से कहते हैं – “अरे गुरु और प्रभु कृपा से सब हो जाता है।” दरअसल गौमाता के लिये इस सेवा प्रकल्प का सारा ख़र्च व्यक्तिगत रूप से बाबा स्वयं उठाते हैं।
प्रत्येक रविवार एवं अन्य छुट्टी वाले दिन या जब भी सुयोग बन जाये, बाबा राहुलानंद जी अपने कुछ अन्य समर्पित गौसेवक सहयोगियों के साथ व्यक्तिगत ख़र्च से कुंटलों की मात्रा में हरा चारा, फल-सब्जी आदि पोषक आहार अपने निजी वाहन पर लाद कर लखनऊ से 50-60 किलोमीटर के दायरे में स्थित किसी गौशाला की ओर निकल पड़ते हैं।
गौमाता से जुड़ी वो विशेष घटना जिसने बाबा राहुलानंद के जीवन की दिशा बदल दी, 17 जून 1999 को घटित हुई थी। विगत 17 जून दिन सोमवार को बाबा राहुलानंद जी द्वारा गौ सेवा के समर्पित पच्चीस वर्ष पूर्ण हुए। सुखद संयोग था कि बाबा के गौसेवा के रजत जयंती दिवस पर मुझे भी उनके साथ कुछ गौशालाओं पर जाने का सुअवसर मिला।
दौरा शुरू करने के लिये दोपहर ढाई बजे जब मैं लखनऊ के महानगर स्थित श्री नारायण आश्रम पंहुचा तो चिलचिलाती धूप में अपनी कार से बाहर निकलते यूँ लगा जैसे अचानक किसी तंदूर में झोंक दिया गया हो। बाबा अपनी इश्ज़ू गाड़ी पर तरबूज लादे निकलने के लिये मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। औपचारिक अभिवादन के बाद छूटते ही मेरे मुँह से निकला – ‘बाबाजी अभी तो बहुत तेज़ धूप है, माहौल एकदम तंदूर की तरह तप रहा है, क्यों न घँटे भर बाद निकला जाय।’ हँसते हुए अपनी गाड़ी का दरवाज़ा खोलते उनका जवाब था -“अरे त्रिपाठी जी, गर्मी सर्दी बरसात देखेंगे तब तो हो चुकी गौ सेवा। आइये बैठिये, तंदूर तो अभी आपको उन गौशालाओं में दिखेगा जहाँ बेचारी गौमाता लाचार ‘बेक’ हो रही हैं।
पहले से स्टार्ट गाड़ी चल देती है।
मैंने पूछा ‘ बाबाजी क्या कहा आपने..! लाचार गौमाता ‘बेक’ हो रही हैं..!’ बाबा का चेहरा तमतमा उठता है। “त्रिपाठी जी कलेजा मुँह को आ जाता है जब इस भीषण गर्मी में तपते टीन शेड के नीचे या फिर बिना किसी छाँव के खुले आसमान के नीचे, आग उगलते सूरज का ताप सहते गायों को लाचार खड़े देखता हूँ। कुछ तो जहां खड़ी रहती हैं निढाल हो वहीं गिर पड़ती हैं। सहलाने की कौन कहे, कौन उठाये भी उन्हें इस भीषण धूप-लू में जाकर। इतनी शक्ति होती नहीं उनमें कि अपने आप खड़ी हो सकें। सूर्यास्त होने पर ही राहत मिल पाती है उन्हें।” बातचीत करते हम पहले गंतव्य पर पँहुच चुके थे। खुले आसमान और दूर दूर तक छाया विहीन धूसर मैदान। प्रवेश के लिये गेट लगा है। गेट के ऊपर बोर्ड लगा है जिसमें गौशाला और स्थान का उल्लेख है। आवाज़ लगाने पर गेट खुलता है। गाड़ी के अहाते के अंदर घुसते ही गायों के रम्भाने की आवाज़ आने लगती है। अहाते में एक फर्लांग के फासले पर टीन का बना दूसरा गेट है।जिसके अंदर सैकड़ो की संख्या में गाय हैं। मैदान के बीच एक तीन का शेड। शेड के बीचों बीच इस छोर से उस छोर तक कहने चरही बनी है। कहने को इसलिये क्योंकि ज़मीन पर मात्र दो ईंट की ऊंचाई जोड़ चरही का रूप दे दिया गया है। नतीजा यह कि थोड़ा सा भूसा पड़ा होने के साथ ही उस तथाकथित चरही में काफी मात्रा में गायों का किया गोबर भी दिखाई पड़ रहा है।
शेड के नीचे खड़े होते ही बाबा जी का कहा वाक्य ‘लाचार गाय बेक हो रही हैं’ चरित्रार्थ होता दिखाई पड़ता है। ऐसा शेड जिसके नीचे मुश्किल से 20-25 गाय बैठ सकती हों, सैकड़ों की संख्या में गाय गुत्थम-गुत्था होती खड़ी हैं। लगभग इतनी ही संख्या में शेड के बाहर सूर्य देवता का भीषण ताप झेलते खड़े या पड़े रहने को विवश हैं। गाड़ी से उतरते बाबा जी गायों को सांत्वना का स्वर देते हैं। “हाँ.. हाँ.. आ गये, आ गये.. अभी देते हैं। आज तरबूज है काट तो लें.., समूचा कैसे खाओगी..!(मुझसे मुख़ातिब होते हुए) देखा त्रिपाठी जी, गाड़ी की आवाज़ सुन के जान जाती हैं कि अब कुछ (अच्छा) खाने को मिलेगा। ये बेज़ुबान कह नहीं पाते कुछ लेकिन समझते सब हैं।” बाबा जी और उनके सभी सहयोगी गाड़ी से उतर फौरन काम पर लग जाते हैं। तरबूज को टुकड़ों में काट काट के गौशाला की चरही एवं घूम घूम के मैदान में कई जगह डालने में जुट जाते हैं।
जिधर जिधर गौसेवक जाते हैं गायों की भीड़ रम्भाते हुए उन्हें घेर लेती हैं। बाबा की निगाह एक एक कोने में बैठी हाँफ रही गाय पर पड़ती है। अपने हाथ मे तरबूज के कुछ टुकड़े ले वो उसके पास पँहुचते हैं। प्यार से सहलाते उसे अपने हाथ से खिलाते हैं। करीब चार पांच कुंतल तरबूज यहाँ गायों को खिलाने के बाद वो आवाज़ लगाते हैं। चलो आओ सब लोग, अब दूसरी गौशाला में चलते हैं। हाँ चलते चलते वो गौशाला में देखरेख करने वाले कारिंदे से पूछते हैं। कितने लोग हो तुम लोग। जवाब मिलता है – ‘सात लोग हैं बाबा जी’..
(हालाँकि दिख वहाँ तीन चार ही रहे हैं।) “लेव तुम लोग भी तरबूज खाओ”..कहते हुए आठ तरबूज उन्हें देते हैं। गाड़ी में बैठ हम लोग दूसरी गौशाला की तरफ़ चल देते हैं। गायों को खिलाने के लिये बाबा जिस फुर्ती से बाँके से तरबूज काट रहे थे, फिर जिस तरह तेज़ी से मैदान में घूम घूम के गायों के बीच काटा गया तरबूज डाल रहे थे उससे कोई भी अंदाज़ नहीं लगा सकता कि बाबा 65 की आयु पार कर चुके हैं।
गौशालाओं में बरती जा रही अनियमितता और चुँहु ओर व्याप्त दुर्दशा की बात चलते ही ग़ुस्से से बिफर पड़ने वाले बाबा मूलतः अत्यंत विनोदप्रिय स्वभाव के हैं। गुस्सा काफ़ूर होते ही उनके मुखमंडल पर मृदु मुस्कान व्याप्त हो जाती है। संवाद और शैली में भी विनोदप्रियता साफ़ झलकती है। “देखा आपने त्रिपाठी जी..! कैसे बेक हो रही हैं हमारी गौमाता..! उच्चाधिकारियों से बार बार शिकायत करते यहाँ तो हालात कुछ बेहतर थे। गायों को कम से कम भूसा तो मिलने लगा है दोनो टाइम खाने को, उसी का नतीजा है कि जिधर हम लोग तरबूज डाल रहे थे उधर तेज़ी से पँहुच रही थीं गाय, लेकिन अब जहाँ चल रहे हैं वहाँ हालत बदतर है। बहुत बदमाश है वहां का प्रधान जिसके अंडर वो गौशाला आती है। देखिएगा दौड़ना तो दूर ठीक से चल भी नहीं पा रही हैं वहाँ की गाय। अरे दो वक्त की खानगी ही नहीं देता वहाँ का प्रधान। एक जर्जर बुढ़िया और उसके एक अधेड़ बेटे के भरोसे चल रही है वहाँ की गौशाला। सालों साल से आ रहे हैं, एक बार भी प्रधान दिखाई नहीं पड़ा। कई बार संदेश कर के बुलवाया भी, इसके बावजूद प्रधान तो क्या उसका कोई प्रतिनिधि तक नहीं आया। चढ़ता ग़ुस्सा यकबयक हंसी में तब्दील हो जाता है।
हंसते हुए कहते हैं एक बार तो उसके कारिंदे को फुसफुसाती आवाज़ में फोन पर कहते सुना ‘मालिक आय जाव, व्अहै ‘बबऊना सार’ आवा है।’ हल्की हँसी ठहाके में तब्दील हो जाती है – “पता है, इसके बावजूद नहीं आया। है न अजीब बात..! एक तरफ़ बेजुबान गाय बिना कुछ कहे आहट पा के दौड़ पड़ती हैं, दूसरी तरफ जिनके भरोसे सरकार ने उन गायों को छोड़ रखा है वो ‘बबऊना सार’ की गुहार होने पर भी नहीं आते”। बात करते कोई चार छह किलोमीटर के फ़ासले पर मौजूद गौशाला आ जाती है। जैसा बाबा जी ने बताया था बिल्कुल वही दृश्य। बड़ी संख्या में एकदम मरियल सी गाय कुछ तपते तीन शेड के नीचे तो बाकी इधर उधर खड़ी हैं। यहाँ भी वही उपक्रम शुरू होता है। तरबूज काट के गायों को दिया जाने लगता है। सच यहाँ की गाय ठीक से चल भी नहीं पा रही हैं। दूर से ही कातर भाव से रम्भाते उनकी मरियल आवाज़ आती है। ये मरियल आवाज़ जैसे चीख चीख के गवाही दे रही हो -‘बहुत भूखे हैं हम, कई दिन से हमे ठीक से भूसा तक नहीं मिला, चुनी-चोकर हरा चारा तो बहुत बहुत दूर की बात। बहरहाल यहाँ दुर्दशा में घिरी गौमाताओं को तरबूज खिला कर हम सब वहाँ से गाड़ी में बैठ चल दिये। व्यथित मन से मैंने सवाल किया।
क्या कारण हैं बाबा जी इस स्थिति के। क्या सरकार पर्याप्त पैसे नहीं दे रही या फिर अन्य कोताही ?
बाबा जी जवाब देते हैं। “त्रिपाठी जी सरकार पर्याप्त नहीं, भरपूर पैसा दे रही है, बस उस पैसे का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा। हालाँकि योगी सरकार आने के बाद स्थितियां बदली हैं। पहले की सरकारों में तो हालात बदतर थे। कहीं कोई कुछ देखने पूछने वाला नहीं था। गौशाला में 20 गाय बाँध के दो सौ गाय के नाम पर अनुदान ले लिया जाता था। हरे चारे के लिये सरकार की तरफ़ से कोई इंतज़ाम नहीं था। यहाँ तक कि गाय बूचड़खानों में बेच दी जाती थीं। योगी सरकार आने के बाद इन सब गड़बड़ियों पर उल्लेखनीय लगाम लगी है। अब टैगिंग फोटोग्राफी/वीडियोग्राफी होने से संख्या में कोई दस बीस तक का हेरफेर कर सकता है, 20 का डेढ़-दो सौ नहीं दिखा सकता। गायों की खानगी के लिये भी प्रति गाय डेढ़ हजार रुपया महीना मिलने लगा है, जो अगर सही तरह से व्यय कर दिया जाय तो कमज़कम गाय भूखी तो नहीं ही मरेंगी। हरे चारे के लिये भी प्रत्येक गौशाला को अधिकतम दस एकड़ तक ज़मीन आवंटित होती है। जिस पर अगर ढंग से हरे चारे की खेती हो जाय तो गायों को भूसा खाने की नौबत न आये।
समस्या यह है कि सरकार ने योजनाएं तो बहुत अच्छी बना दीं, पैसा भी पर्याप्त दे रही है लेकिन चिंता का विषय एकमात्र वही है जो पहले की सरकारों में भी था। निगरानी की कहीं कोई सुदृढ व्यवस्था नहीं। पूरे प्रदेश में हरे चारे के नाम पर हजारों बीघा ज़मीन गौशालाओं से अटैच है लेकिन दस बीस बीघे पर भी हरा चारा बोया जा रहा हो तो बड़ी बात। आवंटित धन पर बरसों पहले राजीव गांधी द्वारा की गई स्वीकारोक्ति आज भी लागू हो रही है ‘एक रुपया चलता है तो ज़रूरतमंद तक पंद्रह पैसा पँहुचता है।’ सम्बंधित अधिकारियों को बार बार फोन करने, मंत्री, मुख्यमंत्री तक को वस्तुस्थिति से अवगत कराते पत्र लिखने के बावजूद कहीं किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगती। आपने तो आज एक दिन स्थिति देखी, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं देखा जो हृदय विदारक हो। हम लोग तो आये दिन ऐसी ऐसी स्थितियां देखते हैं कि खून खौल जाय। कहीं किसी गौशाला में दो दो चार चार दिन से गाय दलदल में फंसी है तो फंसी है। छोड़ दिया गया है उसे वहीं मरने के लिये। कहीं कोई बीमार गाय पड़ी है, अभी मरी भी नहीं और कुत्ते नोच खा रहे हैं। कहीं चार चार छह छह दिन से भूखी गाय भूख से तड़प के मर रही है, मरे इनकी बला से। इतना बड़ा प्रदेश है कहाँ कहाँ घूम के राहुल बाबा और उनके साथी सहयोगी गाय दलदल से निकालेंगे, कुत्तों के नोचने-खाने से, या भूख से तड़प के मरने से बचा पाएँगे..! बहुत ग़ुस्सा आता है ये सब देखकर।
लेकिन फिर भी हम तो जैसे जितना बन पड़ता है बस अपने गुरु के गौसेवा के आदेश का पालन कर रहे हैं, और जब तक ये जीवन है करते रहने को संकल्पबद्ध हैं। इतना ही नहीं गाय के अलावा कहीं भी किसी अन्य घायल, बीमार या आसक्त पशु पर बाबा की नज़र पड़ जाये या उन्हें किसी से सूचना मिल जाये, रात हो या दिन बाबा गाड़ी उठाकर फौरन सहायता के लिये निकल पड़ते हैं।
सच विलक्षण हैं बाबा राहुलानंद जी। ऐसे ही लोगों के बलबूते हमारे समाज में धर्म, अध्यात्म, समर्पण, सेवा, सदाचार जैसी चीज़े ज़िंदा हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस दिशा में अविलंब ध्यान देने की ज़रूरत है। मात्र योजना बना कर धन आवंटित कर देने से ही उनके गौसेवा संकल्प की इतिश्री नहीं हो जाती। जितना धन वो गौसेवा के लिये आवंटित करते हैं उसी का एक अंश उन्हें अपनी योजनाओं की निगरानी व्यवस्था पर ख़र्च करना चाहिये। योजनाएं कितनी भी अच्छी क्यों न हों उनका कोई महत्व नहीं जब तक धरातल पर उनका क्रियान्वयन सही तरीके से न हो। मेरे मन में भाव आता है और बाबा राहुलानंद जी भी सहमति प्रकट करते हैं कि क़ानून व्यवस्था के मोर्चे समेत प्रदेश के लिये इतना कुछ करने के बावजूद विगत लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश से भाजपा और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिये जो निराशाजनक परिणाम आये हैं उसका कारण कहीं गाय की हाय तो नहीं !
सोचिये, माननीय मुख्यमंत्री जी।