(लंबे समय तक औरंगजेब के क्रूर अत्याचारों की मारी हिन्दू जनता ने उस गड्ढे में ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत-पुष्प जल चढ़ाते जन्मभूमि पर अपना दावा बनाए रखा…से आगे)
अब तक शाही सेना को यहाँ हुए भारी नुकसान से औरंगज़ेब इतना तिलमिलाया था कि उसने एक के बाद एक कुल दस हमले करके अयोध्या के सभी प्रमुख मंदिरों को ध्वस्त करते हुए सभी मूर्तियों को तोड़ डाला।
उसने ठाकुर गजराज सिंह की हवेली भी खुदवा डाली। वीर रामभक्त ठाकुर गजराज सिंह के वंशज आज भी सराय मे मिल जाएंगे। इस घटना से आहत सूर्यवंशी क्षत्रियों के मन में भारी रोष था। उन्होंने अपने पूर्वजों की सौगंध लेते हुए ये प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक वो प्रभु श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक उनमे से कोई भी न पगड़ी बांधेगा, न छत्र या छाता लगाएगा और न ही जूता पहनेगा।
तत्कालीन कवि जयराज ने अपने एक दोहे में सूर्यवंशी क्षत्रियों की इस भीष्म प्रतिज्ञा का उल्लेख करते हुए लिखा है –
” जन्मभूमि उद्धार होय, जा दिन बरी भाग।
छाता जग पनही नहीं, और न बांधहि पाग॥
इसके बाद लंबे अरसे तक यह मुद्दा ताक़त के बल पर प्रायः शांत रहा किंतु सन 1707 में क्रूर और धर्मांध शासक औरंगज़ेब की मौत के बाद यह दबा मुद्दा पुनर्जागृत होकर एक बार फिर तूल पकड़ने लगा। इस दौरान एक दिलचस्प घटना हुई। औरंगज़ेब के बाद जून 1708 से फरवरी 1712 तक मुगल शासन की बागडोर सम्हालने वाले बादशाह बहादुर शाह प्रथम के शासनकाल के दौरान एक किताब आई। ‘ साहिफ़ा-ए-चिली नासाइ बहादुर शाही ‘ के मुताबिक़ औरंगज़ेब ने मथुरा, काशी और अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई। ज्ञातव्य है किसी भी मुसलमान लेखक की तरफ से इस बारे में ये पहली स्वीकारोक्ति थी। ये लेखक और कोई नहीं बल्कि बादशाह बहादुर शाह प्रथम की बेटी और औरगंजेब की पोती थी।
राम जन्मभूमि के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि हिंदुओं का कहना है कि अयोध्या में सीता की रसोई और राम/हनुमान चबूतरा तोड़कर मस्जिद बनाई गई है। हालांकि ‘साहिफ़ा-ए-चिली नासाइ बहादुर शाही’ की पांडुलिपि को लेकर इतिहासकारों में विवाद है। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि कुत्सित भावना से प्रेरित इतिहासकारों के एक वर्ग की यह कपटपूर्ण विशेषता रही है कि मुग़लकाल में लिखित ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में जहां कहीं भी कुछ ऐसे तथ्य लिखे मिलते हैं जिसके आधार पर मुग़ल या मुस्लिम शासकों को समाजिक सद्भाव और सहिष्णुता का अलम्बरदार सिद्ध किया जा सके चाहे वो दरबारी मसनवी ही क्यों न हो,उसे वो बिना किसी किंतु परन्तु के फ़ौरन स्वीकार करते हुए ब्रह्मवाक्य तुल्य सत्य बता देते हैं। किंतु उन्ही दस्तावेज़ों में यदि कहीं कुछ ऐसा लिखा मिलता है जिससे उनकी क्रूरता या सच्चाई का सूत्र मिलता हो तो उसे वो बिना किसी देरी के संदिग्ध ठहरा देते हैं। भारत के इतिहास के संदर्भ में इतिहासकारों के इस वर्ग में इस तरह का छल कपट सभी जगह समान रूप से देखने को मिलता है। बहरहाल औरंगज़ेब के शासनकाल के बाद राम जन्मभूमि के ताज़ा आंदोलन की पृष्टभूमि में इस क़िताब में उद्घृत तथ्य की बड़ी भूमिका थी। बरसों से दबी चिंगारी धीरे धीरे ही सही लेकिन फिर आँच पकड़ने लगी।
1763 में नवाब शहादत अली के शासनकाल में अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व में रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए बाबरी ढांचे पर एक के बाद पाँच आक्रमण किये गये। हालाँकि इन हमलों में हर बार हिंदुओं को अयोध्या में अपने प्राणों की आहुति देते हुए इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी। इन संघर्षों की तस्दीक़ करते हुए कर्नल हंट लखनऊ गजेटियर के पेज नम्बर 62 पर लिखते हैं – ” लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नवाब ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को राम जन्मभूमि की ज़मीन नहीं सौंपी।” इसके बाद नवाब नासिरुद्दीन हैदर के समय में जन्मभूमि को हासिल करने के लिए मकरही के राजा के नेतृत्व में भीती,हंसवर,मकरही, खजुरहट, दीयरा,अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि ने हिंदुओं को संगठित कर लगातार तीन आक्रमण किये। तीसरे आक्रमण में हिंदुओं ने नवाबी सेना का डटकर सामना किया।
जन्मभूमि के मैदान में हिन्दुओं और मुसलमानों की लाशों का ढेर लग गया। युद्ध के आठवें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी थी कि इसी बीच हिन्दू सेना की सहायता के लिए वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना मैदान में आ डटी। चिमटाधारी साधुओं का साथ पा हिन्दू सेना घायल शेर की तरह शाही सेना पर टूट पड़ी। शाही सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उसके पाँव उखड़ गए। लंबे अंतराल के बाद हिंदुओं ने एक बार पुनः जन्मभूमि पर कब्ज़ा कर लिया। मगर हर बार की तरह इस बार भी कुछ दिनों के बाद विशाल शाही सेना आ धमकी। उसने हजारों रामभक्त हिंदुओं को मौत के घाट उतारते हुए उनके रक्त में डूबी रामजन्मभूमि पर एक बार फिर कब्ज़ा कर लिया।
नवाब वाजिद अली शाह के समय में हिंदुओं ने एक बार पुनः संगठित होते हुए एक बार फिर रामजन्मभूमि मुक्ति के लिए आक्रमण किया। इस बार के भीषण संघर्ष में रामभक्त हिन्दू भारी पड़े। इस संघर्ष के बारे में अंग्रेज़ इतिहासकार कनिंघम ने फैज़ाबाद गजेटियर में लिखा है – ” इस संग्राम में बहुत भयंकर ख़ूनख़राबा हुआ। दो दिन और रात चलने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं ने राम जन्मभूमि पर कब्ज़ा कर लिया। हिंदुओं की क्रुद्ध भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ डालीं। उन्होंने मस्ज़िदों को मिसमार कर मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया। अयोध्या में भीषण मार काट हुई मगर बावजूद इसके उग्र हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुचाई।”
इतिहासकार कनिंघम के मुताबिक़ ये अयोध्या का तब तक का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था। क्योंकि इस बार हिंदुओं ने न सिर्फ़ राम जन्मभूमि मुक्ति के लिए हमला किया बल्कि तीव्र प्रतिक्रिया भी की थी। हिंदुओं ने अपना सपना पूरा करते हुए औरंगज़ेब द्वारा विध्वंस किए गए रामचबूतरे को दोबारा बना दिया। इसी राम चबूतरे पर एक छोटा सा मंदिर बनवा कर उसमें पुनः रामलला की स्थापना की गयी। लेकिन जेहादी मुल्लाओं को ये बात किसी क़ीमत पर बर्दाश्त नहीं थी। कालांतर में स्थितियाँ प्रतिकूल होने पर जन्मभूमि एक बार फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी। इसके बाद वो दौर आया जब हिंदुस्तान में एक तरफ़ जहां तेज़ी से मुग़ल शासन की नीँव दरकने लगी तो उससे भी तेज़ गति से ईस्ट इंडिया कंपनी का विस्तार हो रहा था।
अब व्यपारियों के साथ ही ईसाई धर्मगुरु भी भारत आते हुए यहाँ के धार्मिक मामलों में रुचि दिखाने लगे थे। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ो का शासन तेज़ी से फैलता जा रहा था। जहाँ भारत के राजाओं की आपसी फूट का फ़ायदा उठाते हुए इस्लामी ताकतों ने हिंदुस्तान में पाँव पसारे थे तो वहीं अंग्रेज़ों ने अपना शासन स्थापित करने के लिए हिन्दू राजाओं की आपसी फूट के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को भी भरपूर विस्तार किया।
दरअसल अंग्रेज़ो ने हिंदुस्तान की दुखती रग को बहुत पहले ही भाँपते हुए इसे अपनी रणनीति के केंद्र में रखा था। इस तथ्य को समझने के लिए हमे कुछ देर के लिए वापस चलना होगा सत्रहवीं शताब्दी के शुरुवाती दशक में। सन 1607 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने विलियम फिंच नाम के एक व्यक्ति को अपने व्यापारिक प्रतिनिधि के रूप में कैप्टन हॉकिंस के साथ व्यापारिक सम्भवनाएँ तलाशने के लिए भारत भेजा।
विलियम फिंच ने भारत के सूरत,आगरा और दिल्ली के अलावा लाहौर की यात्रा की। व्यावसायिक एजेंट के तौर पर इन व्यापारिक केंद्रों की उसकी यात्रा की बात तो समझ में आती है, इसमे कुछ भी असामान्य नहीं किन्तु आश्चर्य होता है यह जानकर कि सन 1611 में फिंच ने अपनी यात्रा के लिए विशेष रूप से अयोध्या और सुल्तानपुर को चुना। यह बात इसलिए विचित्र लगती है कि उस वक्त सुल्तानपुर या अयोध्या न ही कोई व्यापारिक स्थान था और न ही किसी सत्ता का केंद्र। किंतु यह यात्रा उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती है जब विलियम फिंच का मंतव्य उद्घाटित होता है। इस यात्रा के बाद फिंच पहली बार दुनिया को बताता है कि मैं अयोध्या में राम जन्म स्थान के नेस्तनाबूद अवशेषों पर बैठे हिन्दू पुजारियों से मिला। अपने वक्तव्य में उसने वहाँ बने बाबरी ढाँचे का ज़िक्र तक नहीं किया।
हालाँकि उस कालखण्ड में हिंदुस्तान में मुगल शासन था,और उसका वक्तव्य एक तरह से मुग़ल शासन के विरुद्ध था,किंतु उसने जानबूझकर ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह व्यापारी होने के साथ ही एक शातिर कूटनीतिज्ञ था। उसने मात्र राम मंदिर के अवशेषों का ज़िक्र भी इसीलिए किया कि वह जानता था कि अगर हिंदुस्तान में व्यापारिक विस्तार करते हुए राज करना है तो हिंदू-मुसलमान विवादों को उभार कर दबी चिंगारी को दहकता शोला बनाना होगा। फिंच के इस मंतव्य के महत्व को समझते हुए सन 1613 में उसके बीमार होकर बगदाद में मर जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने बगदाद से उसकी डायरी मंगवा कर उसमे दर्ज़ एक एक बात का न केवल गहन अध्ययन किया बल्कि अपनी आगामी रणनीतियों में इसका भरपूर उपयोग भी किया। दरअसल विलियम फिंच इतिहास में दर्ज़ एक ऐसा नाम है जिसने अपने कपटपूर्ण बौद्धिक कौशल और कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरे एशिया का नक्शा बदल दिया।
दुनिया के बड़े से बड़े चालाक और धोखेबाज़ सुल्तान, दुर्दांत आक्रांता हमलावरों की बड़ी से बड़ी सेना कई कई युद्ध करते हुए लाखों प्राणों की आहुति दे-लेकर जो काम नहीं कर पाए वो एक अकेला विलियम फिंच अपने जीते जी कर गया। विलियम फिंच ही वह पहला आदमी था जिसने सन 1611 में अयोध्या में राम जन्म स्थान के अवशेष प्राप्त होने का दावा किया था। अंग्रेज़ों की रणनीति में राम जन्मभूमि के शामिल होने की तस्दीक़ के लिए इतिहास में और भी कई तथ्य-संदर्भ मिलते हैं। भारत में 38 साल बिताने वाले ईसाई धर्मगुरू जोसेफ़ टेफेनथेलर ने सन 1767 में अपनी अयोध्या यात्रा के दौरान एक प्रामाणिक दस्तावेज़ में लिखा ” अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है “। हालांकि इस ईसाई पादरी ने अपने दस्तावेज़ में इसके लिए बाबर के बजाय औरंगज़ेब को ज़िम्मेदार ठहराया। इसके बाद ईस्ट ईंडिया कंपनी के सर्वेयर के तौर पर फ्रांसिस बुचनन हैमिल्टन भारत आया।
सन 1813-14 में उसने भी अयोध्या की यात्रा की। फ्रांसिस बुचनन ने ही अपने शोध परक सर्वे के बाद पहली बार दुनिया को बताया कि ” सन 1528 में बाबर के निर्देश पर सूफ़ी संत मूसा आशिकान के संरक्षण में मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद को बनवाया था “। बुचनन की रिपोर्ट में दिए गए साक्ष्य दुनिया के लिए राममंदिर-बाबरी मस्ज़िद विवाद में अमर अकाट्य तथ्य-तर्क बन गए। आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेजों ने इस रिपोर्ट को तत्काल प्रकाशित नहीं किया किंतु ब्रिटिश लाईब्रेरी में ये रखी हुई है। हालाँकि बाद में मंटोगमेरी मार्टिन ने इसके कुछ हिस्से जारी किए जिसमे बुचनन लिखता है कि हिंदू अयोध्या के टूटे मंदिरों के लिए औरंगज़ेब को दोषी मानते हैं मगर मस्ज़िद पर उकेरे गए दस्तावेज़ के मुताबिक़ इसे बाबर ने बनवाया था। फ्रांसिस बुचनन ने लिखा कि उसके एक मौलवी दोस्त ने राम जन्मभूमि बाबरी ढांचे की दीवारों-पत्थरों पर फ़ारसी में लिखी तहरीर पढ़ कर जो बताया उसके आधार पर 935 ए.एच यानी सन 1528 में मीर बाकी ने इस मस्ज़िद का निर्माण करवाया। एक दूसरी तहरीर जो औरंगज़ेब के बारे में कुछ कहती है लेकिन वो इतनी धुंधली है कि कुछ साफ़ नहीं कि क्या लिखा है।
मौलवी ने बुचनन को तीसरी तहरीर में लिखी हुई जो कहानी बताई उसके मुताबिक़ ‘ मुग़ल बादशाह बाबर समरकंद युद्ध हारने के बाद कलंदर के वेष में सूफ़ी संत मूसा आशिकान ( ये वही ख़्वाजा कज़ल अब्बास मूसा है जिसने महात्मा श्यामनन्द जी का शिष्य बन के उनके साथ विश्वासघात करके इस फ़साद की नीँव रखी थी) से आशिर्वाद लेने आया था। तब मूसा आशिकान ने बाबर से कहा कि तुम्हें हम समरकंद जीतने का आशिर्वाद इसी शर्त पर देंगे कि जीतने के बाद तुम रामजन्म स्थान तोड़कर इसकी जगह मस्जिद बनवाओगे। इसीलिए दिल्ली की सल्तनत पर बैठने के बाद बाबर के हुक्म से उसके सिपहसालार मीर बाकी ने 1528 में यहां मस्जिद बनवाई।’
19वीं और 20 वीं सदी में अब्दुल करीम और उनके बेटे गफ़्फ़ार जैसे लेखकों ने मूसा आशिकान का वंशज होने का दावा करते हुए इन कहानियों को फ़ारसी और अरबी भाषा में और भी बढ़ा चढाकर लिखा। मेरा मानना है कि करीम और गफ़्फ़ार से ऐसी उत्तेजक कहानियाँ अंग्रेज़ो ने ही अपनी रणनीति को परवान चढ़ाने के लिए लिखवाई होंगी। जिससे हिंदुओं के ज़ख्म पर नमक छिड़कते हुए इस मुद्दे को और भी ज्वलनशील बनाया जा सके। मेरे इस अनुमान की पुष्टि ईस्ट ईंडिया कम्पनी के सर्वेयर मार्टिन की सर्वे रिपोर्ट्स से होती है। सन 1838 में सर्वेयर मार्टिन ने इस कहानी और आगे ले जाते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि बाबरी मस्जिद के खंभे हिंदू मंदिर से ही लिए गए हैं। जिस तरह के काले पत्थरों का इस्तेमाल बाबरी ढाँचा बनाने के लिए किया गया है वैसा ही पत्थर मूसा आशिकान के बगल में बनी क़ब्र के लिए किया गया है। उस दिन से लेकर हाल के वर्षों में इस विवाद की आदलती कार्यवाही-सुनवाई तक अयोध्या के विवाद के संदर्भ में यही कहानी सबसे ज्यादा प्रचलित रही है।
राम जन्मभूमि की खोज की ये कहानियाँ अंग्रेज़ों द्वारा देश भर में तेजी से यूँ ही नहीं फैलाई जा रही थीं। इसके पीछे एक विशेष कारण था। दरअसल अंग्रेज़ो को लगातार यह ख़ुफ़िया सूचनाएं मिल रही थीं कि देश भर के हिन्दू और मुसलमान आपसी मतभेदों को दरकिनार कर अंग्रेज़ों के शासन ख़िलाफ़ बिगुल फूँकने के लिए लामबंद हो रहे हैं। ऐसा वो किसी क़ीमत पर नहीं होने देना चाहते थे। अयोध्या विवाद उनके लिए मुफ़ीद मुद्दा था। अंग्रेज़ो के अपने स्वार्थ के लिए साज़िशन चलाए जा रहे इस अभियान का असर हुआ। 1850 में कुछ सिख युवकों ने बाबरी ढाँचे में घुसने की कोशिश की। इसके बाद 1853 में निर्मोही अखाड़े द्वारा बाबरी ढाँचे को अपने कब्ज़े में लेने की कोशिशों के बाद अयोध्या में दंगे भड़क गए।
दंगों की ये आग कम ज़्यादा होते हुए दो साल तक दहकती रही। अंग्रेज़ अपनी चाल में कामयाब हो चुके थे। अंग्रेज़ शासनकाल में अयोध्या का यह पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा था। इसे देखकर निश्चय ही विलियम फिंच स्वर्ग में मुस्कुराया होगा कि जिस उद्देश्य से जो बीज सन दो सौ बयालीस साल पहले सन 1611 में बोया था अब वो अब ब्रिटिश शासन के काम आ रहा है। दो बिल्लियों की तरह गुत्थमगुत्था हिन्दू-मुसलमान के बीच बन्दर की भूमिका में आना ही तो अंग्रेज़ों का मन्तव्य था। सो दो साल तक होते दंगों को चुपचाप देखने के बाद ये भूमिका निभाते हुए अंग्रेज़ों ने राम जन्मस्थान को रोटी के दो टुकड़ों की तरह बाँट दिया। विवादित भूमि को दो हिस्सों में करते हुए बीच में बड़ी चहारदीवारी बना दी गई। ढाँचे वाला हिस्सा मुसलमानों के हिस्से आया तो राम चबूतरे वाला भाग हिंदुओं के हिस्से।
इस बंटवारे के बाद हिन्दू और मुसलमानों ने अंग्रेज़ों की चाल भाँप कर वक़्त की नज़ाक़त को समझते हुए आपस में गुप्त निर्णय लिया कि इस मसले में यथास्थिति बनाए रखी जाय,इस समस्या का समाधान हम बाद में आपस में कर लेंगे फ़िलहाल मिलकर अंग्रेज़ों से निपट लिया जाय। इसी का परिणाम था कि 1857 में हिंदू-मुस्लिम ने मिलकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फूँक दिया। उस आंदोलन को कुचलने में अंग्रेज़ों को भी नाकों चने चबाने पड़े जिसे दुनिया 1857 के ग़दर के नाम से जानती है। इस क्रांति के ठीक बाद हिंदुस्तान के आख़िरी मुग़ल बादशाह मिर्ज़ा अबू जफ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद जिन्हें हम बहादुर शाह जफ़र के नाम से जानते हैं,की पहल पर बाबा रामचरण दास ने मौलवी आमिर अली के साथ मिलकर सदियों से चले आ रहे रामजन्मभूमि विवाद को हल करने की दिशा में गम्भीर प्रयास शुरू किये। इस बात की ख़बर अंग्रेज़ो को हुई तो वो बौखला गए। ये तो सीधे सीधे उनकी कुत्सित रणनीति पर पानी फेरने जैसा था। उन्होंने दोनों को गिरफ़्तार कर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ से लटका कर एक साथ फाँसी पर लटका दिया। भारत भावनाओं का देश है। देखते ही देखते इमली का वो पेड़ रामभक्तों समेत अन्य राष्ट्रभक्त हिंदुस्तानियों के लिए पूज्यनीय स्मारक बन गया। अंग्रेज़ों को ये भी नागवार गुज़रा,उन्होंने उस पेड़ को कटवा कर बाबा रामचरण दास और मौलवी आमिर अली की आख़िरी निशानी को भी मिटा दिया। राम जन्मभूमि को लेकर सोलहवीं शताब्दी में शुरू हुए इस विवाद को समुचित ढंग से हल करने की दिशा में किया गया ये एकमात्र प्रयास अंग्रेज़ों की कुटिल और कुत्सित नीति के कारण परवान चढ़ने से पहले ही तिरोहित हो गया।
इसके बाद एक दीर्घकालिक कुटिल मन्तव्य के तहत अंग्रेज़ों ने इस विवाद को क़ानूनी पचड़े में फंसाने की योजना बनाई। इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए राम जन्मभूमि/बाबरी ढाँचे की लड़ाई को अंग्रेजों की अदालत में पहुंचाने का इंतज़ाम किया गया। इसके लिए अंग्रेज़ों ने बाबरी मस्ज़िद जन्मस्थान के तत्कालीन मुतवल्ली सैय्यद मोहम्मद असगर को मोहरा बनाया। सन 1877 में बाबरी मस्ज़िद जन्मस्थान के मुतवल्ली यानी संरक्षक सैय्यद मोहम्मद असगर ने फ़ैज़ाबाद की कमिश्नरी अदालत में वाद दर्ज़ करने की दरख़्वास्त दी कि बाबरी मस्ज़िद जन्मस्थान के अहाते में हिंदू जबरिया चबूतरा बनाकर भजन कीर्तन पूजा पाठ कर रहे हैं जो इस्लाम के ख़िलाफ़ है। ये तथ्य सर्वविदित था की वहाँ स्थिति राम चबूतरे पर पूजा अर्चना तो लंबे अरसे से होती आ रही है फिर भी कमिश्नर ने न केवल मुकद्दमा कायम किया बल्कि फ़ौरन एक मजिस्ट्रेट को मौका मुआयना कर रिपोर्ट देने को कहा। मजिस्ट्रेट ने भी बिना कोई देर लगाए मौके का दौरा कर जन्मस्थान को मस्ज़िद क़रार दे दिया। ज़ाहिर है सब कुछ पहले से तय योजना के अनुसार हो रहा था जिसका मक़सद ही था इस मसले को अंग्रेज़ आदलती कार्यवाई के मकड़जाल में उलझा कर और जटिल बनाना।
बहरहाल राम चबूतरा के महंत श्री रघुबर दास जी ने 27 जनवरी 1885 को इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की। उपन्यायाधीश पंडित हरिकिशन सिंह ने उनकी अपील खारिज कर दी। महंत जी ज़िला जज एफ. ई.ए. चैमियर की अदालत में गए। जज चैमियर ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ” उपलब्ध दस्तावेज़ और अन्य जानकारियों के अनुसार ये सच है कि बाबरी मस्ज़िद राम जन्मभूमि मंदिर तोड़कर बनी है मगर वक्त को पलटा नहीं जा सकता।” अंग्रेज़ी अदालत के इस लिखित फ़ैसले में निहित आशय-मंतव्य आप आसानी से समझ सकते हैं।
ये भी ध्यान देने की बात है कि पहली बार इसी दस्तावेज़ में ‘बाबरी मस्ज़िद’ शब्द का प्रयोग हुआ,इससे पहले के दस्तावेज़ों में अंग्रेज़ी अदालतों के रिकॉर्ड में भी इसका नाम ‘बाबरी मस्ज़िद जन्मस्थान’ ही मिलता है।
क्या कोई दुनिया में किसी और ऐसी मस्ज़िद का नाम बता सकता है जिसके साथ जन्मस्थान जुड़ा हो..! इस फ़ैसले के ज़रिये अंग्रेज़ों ने आधिकारिक रूप से ये स्थापित करते हुए कि मन्दिर तोड़कर मस्ज़िद बनाई गई,इस विवाद को हमेशा के लिए विवादित और ज्वलंत बना दिया था। इसके बाद हिंदुओं ने एक और अपील की जिसे ज्यूडिशियल कमिश्नर डब्लू.यंग ने 1 नवंबर 1886 को ख़ारिज कर दिया। इसके बाद मामले को और पेचीदा बनाने के 1889 में अंग्रेज़ों ने पुरातत्वविद एंटोन फ्यूहरेर को अयोध्या भेजा। एंटोन फ्यूहरेर ने बाबरी मस्जिद की दीवारों पर फ़ारसी में गुदी इबारतों का अध्ययन करने के बाद अपना निष्कर्ष दिया कि ये मस्ज़िद तो मुग़ल काल से भी तीन साल पहले की बनी हुई है। जिसे तुर्की या चीन के बाबर नाम के किसी और ही राजा ने 1523 में बनवाया था, यानी मुग़ल बाबर के भारत आने से तीन साल पहले। मतलब साफ़ था अपने फ़ायदे के लिए अंग्रेज़ इस मसले को इतना उलझा देना चाहते थे जिसे कभी सुलझाया न जा सके।
इस बीच 1936 में इस मामले में एक और मोड़ तब आया जब मुसलमानों के ही दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात लेकर क़ानूनी विवाद उठ गया कि मस्ज़िद आख़िर है किसकी ! दोनों ही पक्ष इस पर अपना दावा कर रहे थे। इस मुद्दे को हल करने के लिए वक़्फ़ कमिश्नर ने एक जाँच कमेटी गठित की। कमेटी के सामने मस्ज़िद के मुतवल्ली मोहम्मद ज़की ने दावा किया कि मीर बाक़ी शिया था, उसी ने यह मस्ज़िद बनवाई इसलिए यह शियाओं की मस्ज़िद है। लेकिन ज़िला वक़्फ़ कमिश्नर मज़ीद ने 8 फ़रवरी 1941 को अपनी रिपोर्ट देते हुए कहा कि मस्ज़िद की स्थापना कराने वाला बादशाह सुन्नी था और मस्ज़िद के इमाम और नमाज़ पढ़ने वाले भी सुन्नी हैं,इसलिए यह सुन्नी मस्ज़िद है। इस रिपोर्ट को अस्वीकार करते हुए शिया वक़्फ़ बोर्ड ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के ख़िलाफ़ फ़ैज़ाबाद के सिविल जज की अदालत में मुक़दमा दायर किया लेकिन सिविल जज एस.ए अहसान ने 30 मार्च 1946 को शिया समुदाय का यह मुकद्दमा ख़ारिज कर दिया। यह मुक़दमा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज़ादी के बाद भी कई बार शिया समुदाय के कुछ नेताओं ने इसे अपनी मस्ज़िद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन देने की बात करके इस विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान की कोशिश की।
क्रमशः –
(तथ्य सन्दर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,साहिफ़ा-ए-चिली नासाइ बहादुर शाही, बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)
( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)