![](https://newsinfomaxindia.com/wp-content/uploads/2022/04/mahal.jpg)
![](https://newsinfomaxindia.com/wp-content/uploads/2022/04/WhatsApp-Image-2022-04-03-at-4.30.21-PM-295x380.jpeg)
दीपक बगैर जैसे परवाने जल रहे हैं,
कोई नहीं चलाता पर तीर चल रहे हैं
‘महल’ (1950)
-
‘वे दिन वे लोग’
‘महल’ जैसी फिल्म भारतीय सिनेमा में आज भी असाधारण है। अपने कथानक, वातावरण और चरित्रों के प्रस्तुतीकरण में तो यह अनूठी है, मगर साथ ही इसका फिल्मांकन और कथानक में अंर्तनिहित तत्व इसे दुनिया की बेहतरीन फिल्मों की कतार में लाकर खड़ा कर देते हैं। यह अपने सिर्फ एक रहस्य भरे कथानक वाली फिल्म नहीं थी, इस फिल्म में एक बेरहम किस्म की उदासी थी। इसे पहली हॉरर और पुनर्जन्म की कहानी बयान करने वाली फिल्म माना जाता है। यह भारत की पहली ऐसी फिल्म है जो जर्मन सिनेमा की अभिव्यंजनावादी शैली के बहुत करीब है। यह आज भी स्पष्ट नहीं है कि कमाल अमरोही ‘महल’ में जर्मन एक्स्प्रेशनिज़्म की शैली के इतने करीब कैसे दिखते हैं? हालांकि इसका थोड़ा-बहुत जवाब नसरीन मुन्नी कबीर के आउटलुक (4 जून, 2012) में छपे एक लेख ‘पैलेस आफ डिल्यूज़न’ में मिलता है। जहां वे कहती हैं, “इस तथ्य का पता लगाना मुश्किल है कि अमरोही 1940 के दशक में हॉलीवुड के सुपरनेचुरल थ्रिलर्स से परिचित थे या नहीं, विशेष रूप से जैक़स टूरनेर की फिल्मों से, जिन्हें फिल्म नॉयर शैली में शूट किया गया था और उसकी जड़ें जर्मन अभिव्यंजनावाद में थीं। इन मेलोड्रामा फिल्मों में उदास, कमज़ोरियों से जूझते किरदार थे, जो निरंतर अपनी बर्बादी की तरफ खिंचते नज़र आते थे। महल में हमें कुछ इसी तरह वातावरण और मूड देखने को मिलता है, और यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि इस जड़ें भी फिल्म नॉयर में मौजूद हैं, क्योंकि ‘महल’ को जर्मन सिनेमैटोग्राफर जोसेफ वार्सिंग ने शूट किया था, जो नाटकीय तनाव पैदा करने और भय का भाव उत्पन्न करने के लिए शानदार क्लोज-अप और परछाइयों का इस्तेमाल करते थे।”
कुल मिलाकर कमाल पर पश्चिमी कला और साहित्य का अपरोक्ष असर दिखता है। वे समाज से कटे चरित्रों के भीतर की त्रासदी को प्रस्तुत करने में बेमिसाल थे, जो उनकी फिल्मों को दार्शनिक ऊंचाईयां भी देती थीं। इस फिल्म पर गौर करें तो लगता है कि कोई अदृश्य शक्ति चीजों को संचालित कर रही है। इसके सारे चरित्र अपने भीतर अंर्तनिहित भाग्य के चलते किसी अनिश्चित भविष्य की ओर कदम रखते चले जा रहे हैं। वे अपने अंर्तनिहित भाग्य के कारण ही एक दूसरे से प्यार और नफरत करने लगते हैं। एडगर एलन पो और दोस्तोएवस्की की कहानियों जैसा वातावरण प्रस्तुत करने वाली यह फिल्म जिस तरह से सिचुएशन का ताना-बाना बुनते हुए अपने अंत तक पहुंचती है, वह अद्भुत है। ताज़दार अमरोही ने बातचीत के दौरान बताया कि ‘महल’ फिल्म की कहानी कमाल अमरोही के मन में बरसों से घूम रही थी। सुहागपुर में एक वीरान ‘महल’ ने कमाल अमरोही के मन पर गहरा असर डाला था, उन्होंने सोचा कि क्यों न इस एनवायरमेंट पर एक कहानी लिखी जाए। यहीं से फिल्म ‘महल’ की बुनियाद पड़ी, जो उनकी कहानी ‘ख्वाबों का महल’ पर आधारित थी। कमाल अमरोही के दर्शक अगर गौर करें तो फिल्म ‘पाकीज़ा’ में जब मीना कुमारी ट्रेन से सफर कर रही होती हैं तो खिड़की से बाहर एक स्टेशन सुहागपुर ही दिखता है।
सबसे पहले कमाल ने यह कहानी ख़्वाज़ा अहमद अब्बास को सुनाई थी। अब्बास इस पर फिल्म भी बनाना चाहते थे मगर बात आगे न बढ़ सकी। बाद में अशोक कुमार ने इस कहानी में दिलचस्पी दिखाई। इस फिल्म में इच्छा, प्रेम और मृत्यु की त्रासदी है। जैसा कि फिल्म का अंत हमें बताता है, यह जीवन को एक अनसुलझे सवाल की तरह हमारे सामने छोड़ जाता है, जो बुनियादी तौर पर इंसानी वजूद से जुड़ा है। फिल्म तकनीकी स्तर पर लाजवाब है और कई मायने में सिनेमा के विद्यार्थी ‘महल’ को वैसे ही एक किताब की तरह पढ़ सकते हैं, जैसे वे अब तक एल्फ्रेड हिचकाक और आर्सन वेल्स की फिल्मों को ‘पढ़ते’ आए हैं। तकनीकी स्तर पर भारतीय सिनेमा के पश्चिमी सिनेमा से आज भी कई बरस पीछे होने के बावजूद अगर हम पलटकर देखते हैं तो सिटिजन केन और ‘महल’ में सिर्फ आठ बरस का फासला होने के बावजूद तकनीकी स्तर पर भारतीय सिनेमा में ‘महल’ ने कई मायने में ऐसी ठोस उपलब्धियां हासिल की थीं, जो उस वक्त विश्व स्तर पर ‘सिटिजन केन’ के खाते में थी। खास तौर पर शॉट संयोजन के मामले में यह फिल्म बेमिसाल है। तूफानी बारिश में रचा गया ‘महल’ का पहला दश्य 20 मिनट लंबा है और यह नैरैशन, शॉट्स, फ्रेम और लाईटिंग में सिर्फ प्रयोग नहीं करता बल्कि एक नया व्याकरण रचता चलता है।
अपनी पहली ही फिल्म में कमाल अमरोही बहुत छोटी-छोटी बातों से ऐसा प्रभाव रचते हैं, जो दृश्य से परे के अहसास को जीवित करता है। उन्हें अपनी फिल्मों को किसी किस्से की तरह शुरू करने का शौक था। ‘महल’ का पहला शॉट एक तूफानी बारिश का है। यहां से वॉइस ओवर शुरू होता है, “इलाहाबाद के नजदीक, नैनी रेलवे स्टेशन से ठीक दो मील के फासले पर, जमुना के उस पार, संगम भवन नाम की यह वीरान और आलीशान इमारत मुद्दतों से लावारिस पड़ी है…” इसके साथ ही हम एक आकृति महल का गेट पार करते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ते देखते हैं। कहानी इस महल में रहने वाले बूढ़े माली के बारे में बताती है, जो कौंधती बिजली के बीच फानूस उतारकर उसे रोशन करने में लगा हुआ है। पहला संवाद इसी माली का है। उसके संवादों के बीच अगले शॉट में काली बरसाती उतारते अशोक कुमार की पीठ दिखती है और फ्रेम के पार्श्व में तेज हवा से हिलते दरवाजे दिखते हैं। आगे के शॉट्स में भी उनकी सिर्फ परछाईं या पीठ ही दिखती है। कहानी कहते माली का लो-एंगल से लिया गया शॉट और उसकी वेशभूषा जैसे किसी पुरानी कहानी की भूमिका तैयार करती है। दो प्रेमियों की मौत का किस्सा बयान करने वाला माली जब यह कहते हुए फानूस को ऊपर की तरफ खींचता है, “मोहब्बत हारी नहीं, हारेगी नहीं.. मैं फिर आउंगा… जरूर आऊंगा…” तो ऊपर उठते हुए फानूस के पीछे एक खास अंदाज में बैठे अशोक कुमार दर्शकों को पहली बार दिखते हैं। यहीं से मानो उस चरित्र की नियति, उसका लौटना, उसका पुनर्जन्म तय हो जाता है।
फिल्म का वह शॉट लाजवाब है, जब तेज हवा से गिरी तस्वीर में अपनी ही शक्ल वाला व्यक्ति देखकर महल को खरीदने वाला हरिशंकर (अशोक कुमार) हैरान रह जाता है। करीब 55 सेकंड लंबे इस शॉट में कैमरा देर तक अशोक कुमार के चेहरे पर टिका रहता है। दर्शक उनके चेहरे पर आए अचरज और भय के भावों को ही देखते रहते हैं। इसके बाद कैमरा नीचे उनके पैरों की तरफ टिल्ट-डाउन करता है और उड़ते सूखे पत्तों को फॉलो करता हुआ उस तस्वीर की तरफ बढ़ता है। यहां डिजॉल्व का भी बहुत सटीक इस्तेमाल हुआ है। आम तौर पर डिजॉल्व एक सीन से दूसरे सीन के बीच में इस्तेमाल होता है, मगर यहां एक ही दृश्य में डिजॉल्व का इस्तेमाल करके अशोक कुमार की बदली मन: स्थिति को उजागर किया है। इसके तुरंत बाद ‘आएगा आने वाला…’ गीत शुरू होता है। इस पूरे दृश्य में लाइटिंग का कमाल भी देखने को मिलता है। अशोक कुमार के चेहरे पर हिलती परछाइयां औऱ डीप फोकस का इस्तेमाल अनिश्चितता का वातारवरण तैयार करता है। गीत शुरू होने के साथ ही हम उसी हमशक्ल की तस्वीर पर एक औरत की अस्पष्ट सी परछाईं देखते हैं।
इस बीस मिनट लंबे सीन में पुरानी कहानियां, तस्वीर और परछाईयां मिलकर दर्शकों के मनकर एक गहरा असर छोड़ते हैं। जाली की पीछे से झांकती मधुबाला के क्लोजअप में आधे चेहरे पर पड़ती रोशनी और उसकी आखें सुंदरता और भय का एक सर्रियलिस्टिक प्रभाव पैदा करती हैं। पूरी फिल्म में इस तरह का सर्रियलिस्टिक असर देखा जा सकता है। यहां तक कि एक दृश्य में जब अशोक कुमार तवायफों के पास जाते हैं तो सेट पर काली बिल्लियों की मौजूदगी, क्लोजअप लेने के तरीके और चेहरे के भावों के जरिए कमाल अमरोही उस दृश्य को साधारण नहीं रहने देते। इसी तरह फिल्म का एक और गीत है जो मधुबाला पर फिल्माया गया है, “मुश्किल है बहुत मुश्किल, चाहत का भुला देना…”। कमाल अमरोही ने यह पूरा गीत सिर्फ एक शॉट में फिल्माया है, अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितना कठिन रहा होगा। लाइटिंग, तेज चलती हवा में उड़ते मधुबाला के बाल और कैमरे के जूम-इन और जूम-आउट के जरिए कमाल ऐसा प्रभाव पैदा करते हैं कि शॉट कंपोजिशन के बिना सिंगल शॉट में आप गीत की पूरी सीक्वेंस में बंधे रहते हैं। यह मीज़-अन-सीन (mise-en-scene) का बेहतरीन उदाहरण है।
यहां ज़िक्र करते चलें, मीज़-अन-सीन (mise-en-scene) फिल्म की तकनीकी शब्दावली का एक हिस्सा है, जिसमें फ्रेम के भीतर के तत्वों को संयोजित किया जाता है या उसके जरिए विशेष प्रभाव छोड़ा जाता है। इसके प्रमुख तत्व होते हैं फ्रेम के भीतर की सेटिंग, लाइटिंग, मेकअप और फ्रेम के भीतर की हलचल। आर्सन वेल्स की ‘सिटीज़न केन’’ इस तरह के प्रयोगों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। उत्तरार्ध के कुछ हिस्से में फिल्म के फैंटेसी-सी रचती है। जब अशोक कुमार अपनी पत्नी के साथ वीरान और अनजान जगहों पर भटकते हैं। इसे भी कमाल अमरोही ने अशोक कुमार की पत्नी के नजरिए से भाभी को लिखे गए उसके खतों के माध्यम से फ्लैशबैक में प्रस्तुत किया है। अंत में हमें पता लगता है कि यह कोई पुनर्जन या प्रेत कथा नहीं बल्कि कुछ इंसानी इच्छाओं की कहानी है। फिल्म में इच्छाएं एक कहानी रचती हैं, और कहानी जीवन और लोगों के भाग्य में आश्चर्यजनक तरीके से दाखिल हो जाती है। यही वह बिंदु है जो इसे एक आम सस्पेंस फिल्म से बहुत ऊंचा दर्जा देता है और दार्शनिक ऊंचाइयों तक ले जाता है। यह ‘जेन आयर’ या ‘वुदरिंग हाइट्स’ जैसे किसी क्लासिक की तरह प्रेम, मृत्यु और इच्छा का ताना बाना रचती है।
फिल्म ‘महल’ में कई जोखिम मोल लिए गए थे। जब कमाल अपनी कहानी लेकर वाचा साहब के पास गए तो पसंद आने पर यह शर्त भी रख दी कि इस मैं डायरेक्ट करूंगा। उस वक्त तक न तो उन्होंने कोई फिल्म डायरेक्ट की थी और नहीं किसी के असिस्टेंट रहे। अशोक कुमार और वाचा साहब की फिल्म कंपनी बांबे टाकीज उन दिनों डूब रही थी। मगर यह अशोक कुमार ही थे जिन्होंने कमाल को निर्देशन का मौका दिया। कंपनी के पास ज्यादा पैसे नहीं थे। कमाल ने सेट को डेकोरेट करने से लिए बहुत सी चीजें अपने घर से लाकर दीं। इतना ही नहीं कमाल ने इस फिल्म में अपने समय के सुपर स्टार अशोक कुमार के तेज स्पीड में संवाद बोलने की शैली ही बदल डाली, उनसे संवाद बहुत धीमे बोलने को कहा। अशोक कुमार यह बात पसंद नहीं आई, उनको लगा कि यह बतौर एक्टर उनके कैरियर के लिए ठीक नहीं होगा। इस विवाद के चलते एक महीने तक शूटिंग ही रुकी रही। फिल्म के निर्माता वाचा साहब बतौर अभिनेत्री सुरैया को लेना चाहते थे, जो उस ज़माने में काफी मक़बूल थीं। मगर कमाल की जिद करके मधुबाला को चुना जो तब इंडस्ट्री में बिल्कुल नई थीं, अपना फैसला सही साबित करने के लिए उन्हें कई स्क्रीन टेस्ट जरूर लेने पड़े।
नसरीन मुन्नी कबीर ‘आउटलुक’ में ‘महल’ फिल्म पर लिखे गए अपने उसी लेख में बताती हैं, “एक इंटरव्यू में, लता मंगेशकर ने मुझसे बताया कि गीत में एक भुतहा-सा प्रभाव लाने के लिए अमरोही, संगीतकार खेमचंद्र प्रकाश और खुद उन्होंने कितने उपाय सोचेः लता स्टूडियो के एक कोने में खड़ी रहती थीं, और स्टूडियो के बीचो-बीच में माइक्रोफोन होता था। लता गीत की शुरुआती पंक्तियां ‘खामोश है ज़माना…’ से शुरु करते हुए ‘इस आस के सहारे…’ तक गाते हुए माइक्रोफोन की तरफ धीरे-धीरे बढ़ती जाती थीं और जैसे ही वह माइक के करीब आती थीं, वे मुख्य गीत ‘आयेगा आने वाला…’ गाना आरंभ कर देती थीं। इस पूरी प्रक्रिया में कई बार की कोशिशों और गलतियों के बाद अंत में इस तरह रिकार्ड हो सका जिससे सब लोग संतुष्ट हुए।” कुल मिलाकर इतने सारे प्रयोगों के साथ ‘महल’ हिन्दी सिनेमा की एक ट्रेंड सेटर फिल्म बन गई। चाहे ‘मधुमति’ हो, ‘वो कौन थी’ या फिर ‘मेरा साया’, बिना ‘महल’ के इन फिल्मों की कल्पना भी नहीं जा सकती। भय और रहस्य पैदा करने वाली फिल्मों में बार-बार वैसी ही वीरावीरान हवेली, वीराने में गीत गाती एक सुंदर स्त्री और काली बिल्लियां दुहराई जाने लगीं। (फेसबुक वॉल से साभार)