अक्षय तृतीया और भारतीय संस्कृत में भगवान परशुराम

0 0
Read Time:14 Minute, 51 Second
आचार्य पं शरदचन्द्र मिश्र, अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी

भारतीय धर्म संस्कृति के वैष्णव अवतारों में पौराणिक देवों महापुरुषों का उल्लेख हुआ है। उसमें परशुराम जी का उल्लेख भी उनकी विशिष्टता के लिए हुआ है। परशुराम जी का जन्म भृगुवंश में होने से वे भार्गव ब्राह्मण गोत्र से संपृक्त माने गए हैं। लोक कल्याण और परमार्थ परंपरा के सेवक होने के नाते कालांतर में ब्राह्मणों ने उन्हें अपना आदर्श महानायक अधिकृत किया। इस प्रकार परशुराम जी को भगवान का अवतार मानकर उनकी कल्पनाएं और विरोचित कार्य तो जन-जन तक पहुंचाया। परंतु इतिहास संस्कृति और कला पुरातत्व में भी उन्हें भुला दिए गया। दशावतारों में मत्स्य, कूर्म एवं वाराह आदि का तो खूब उल्लेख हुआ है, परंतु परशुराम जी का उल्लेख एवं जानकारी नगण्य है। सांस्कृतिक परिपेक्ष में परशुराम जी का जन्म वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था। उनकी जयंती उत्तर भारतीय क्षेत्र के मथुरा और काशी के मध्य प्रांतों और दक्षिण में परशुराम क्षेत्र के भूभाग में उनकी विशिष्टता के लिए मनाई जाती है। वैदिक युग के अंत में भृगु वंश में एक तेजस्वी महापुरुष का जन्म हुआ था। तब समस्त भूमंडल में यह प्रतिष्ठा का धनी था।भृगु के पुत्र शुक्राचार्य हुए जो रामायण काल में और उससे पूर्व दैत्यों के गुरु रहे और उन्होंने कई बार बार दैत्यों को अपनी योग संजीवनी विद्या से जीवन्त कर देवताओं की नाक में दम कर डाला था। भृगु वंश में ही महर्षि च्यवन हुए थे जिसने बनवास के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता से मुलाकात की थी। चमन ऋषि को राजा‌ शर्याति ने अपनी कन्या ब्याही थी जिनसे ऋचित और और्व नामक दो ऋषि पैदा हुए थे। जिन्होंने भगवान राम के पूर्वज महाराजा सगर को युद्ध कला में पारंगत कर एक आदर्श ब्राह्मण आचार्य की परंपरा स्थापित की थी।

भृगुवंशी इन ऋषि ब्राह्मणों की सोच, ज्ञान की खोज, भजन और सदुपदेशों द्वारा लोक कल्याण करते थे ‌इसी वंश में यमदग्नि का जन्म हुआ था। जन्म के समय उनके मुख मंडल ही कान्ति अग्नि के समान थी। इसी कारण उनका नाम यमदग्नि पड़ा। उनकी भार्या रेणुका थी। उनके वासु मानादि 5 पुत्र थे। उनमें परशुराम सबसे कनिष्ठ थे। वह बाल्यावस्था में ही संस्कारित, आज्ञाकारी, सत्यवान धीर और वीर थे। परिष्कृत संस्कारों के कारण बाल्यावस्था में उनकी प्रतिभा का प्रकाश देशभर में प्रकाशित हो गया था, परंतु उनका स्वभाव उग्र था और इसी कारण जब वे रौद्र रूप धारण करते थे तब किसी की नहीं चलती थी ।सद्गुणी और आज्ञाकारी होने से वे अपने माता-पिता के भी प्रिय थे।ऐसा कहा जाता है कि तत्कालीन क्षत्रियों ने ब्राह्मणों पर 21 बार अत्याचार किए। इसी से दृढ़ प्रतिज्ञ होकर परशुराम जी ने भी उनके प्रति रोध की प्रतिज्ञा की थी -कि मैं अमोघ पराक्रम और बाहुबल से 21 बार क्षत्रियों को पृथ्वी से हीन कर दूंगा और परमार्थ हेतु दान करूंगा।

एक बार परशुराम जी ने अपने पिता की आज्ञा से परसु धारण कर लिया था तभी से उन्हें परशुराम कहा गया। परशुराम जी आजीवन ब्रह्मचारी रहे।वे रावण के पौरुष से बेहद प्रभावित थे तथा भगवान शिव के कट्टर समर्थक और उपासक भी थे। वैष्णवों में रामावतार के बाद वे तपस्या करने चले गए थे। मान्यता है कि मानसरोवर तक उनका प्रभाव था। वहां से वे जलक्षेत्र में भी अपना परशु धोया करते थे।पुराण उन्हें इस 21 बार क्षत्रियों के बध करने की घटना को कार्तवीर्यार्जुन से भी जोड़ते हैं, जो नर्मदा भूभाग का सम्राट था। इसी का वध कर परशुराम जी ने रक्त से भरे 21 तालाबों का निर्माण करवाया था।वास्तव में सहस्रार्जुन परशुराम जी के पिता साडू भाई था। कामधेनु गाय के विवाद में उसने ऋषि का वध कर डाला था इसी घटना के प्रतिरोध स्वरुप परशुराम जी ने उसकी भुजाएं भंग कर उसके वंश को अपने बाहुबल से समूल उखाड़ फेंका था। जबकि सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंदी बनाकर रखा था। वही रावण के बल से परशुराम जी अत्यन्त बेहद प्रभावित हुए थे। परशुराम जी ने अपने पिता के सिर को पुनः धड़ से जोड़ कर यज्ञ आदि करके पिता के संकल्प शरीर की प्राप्ति करवा कर उन्हें सप्तर्षियों में स्थान दिलवाया था। इसी प्रकार से भारतीय संस्कृति के महान आदर्श बने।

इस युद्ध के पश्चात परशुराम जी ने समुद्र में डूबी दक्षिण भारत की भूमि को कश्यप ऋषि और देवराज इंद्र तथा अगस्त मुनि जैसे जलदेव और क्षत्रियों की सहायता से निकाल कर कृषि योग्य बनाया। उन्होंने शूद्रों को वन की अनुपजाऊं चीजों को उखाड़ने और उपजाऊ भूमि तैयार करने में लगाया। उन्होंने गरीबों को जनेऊ धारण कराकर दीक्षित-शिक्षित कर ब्राह्मण बनाया तथा अपने जन्मदिन अक्षय तृतीया पर एक साथ सैकड़ों युवक युवतियों को विवाह सूत्र में बांधकर महान सेवा कार्य किया। अक्षय तृतीया को प्रथम बार सामूहिक विवाह कराने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त के शुभ मुहूर्त माना गया है। दक्षिण का वही क्षेत्र है जहां भगवान परशुराम के सर्वाधिक मंदिर मिलते हैं और उनके ब्राह्मण अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं। परशुराम जी की पूजा करने वाले लोगों के अस्तित्व का ज्ञान भारत में शिलालेखों से मिलता है। शक सम्राट ऋषभदत्त ईसा पूर्व 119 से 124 के शिलालेख में रामतीर्थ का उल्लेख है, जो परशुराम जी का एक आश्रम था।जिसकी स्थित सूर्पारक के समीपस्थ थी। परशुराम जी के वीर पूजक ब्राह्मण किसी समय यहां बड़ी संख्या में रहते थे। जिन्हें समादृत करने के लिए परशुराम जी को वैष्णव दशावतार में स्वीकृत किया गया। विशेष रूप में स्वाभिमानी होने से ब्राह्मण इन्हें अपना इष्ट देवता मानते हैं।वे आवेशवता हैं जिन्होंने अपना अवतारपन राम को समर्पित किया था। परशुराम जी की मूर्तियां देश में कम ही मिलती हैं।

मूर्ति विज्ञान में उनके दो हाथों का विधान है उनके दाएं हाथ में परशु होना चाहिए तथा जटामुकुट के साथ यज्ञोपवीत धारण किए हो। उनका वस्त्र सफेद और लाल होना चाहिए। उनकी मूर्तियां दशावतार पट्टिका पर मिली हैं। इनमें चित्तौड़ की दो तथा चंबा की एक मूर्ति उल्लेखनीय है। चित्तौड़ की मूर्ति में परशुराम जी की एक मूर्ति विजय स्तंभ की सातवीं मंजिल पर है तथा दूसरी मूर्ति पद्मिनी महल के पास बने तालाब की दीवार पर उत्कीर्ण है। प्रथम मूर्ति स्थानक मुद्रा में चतुर्भुजी है। इसका दक्षिण हस्त खण्डित है। शेष दोनों‌ ऊर्ध्व हाथों में परशु और धनुष है तथा तृतीय हाथ में कमंडलु है। इस मूर्ति के दाहिनी ओर लहराते हुए उत्तरीय वस्त्र का छोर दिखाया गया है। मूर्ति की पीठ पर परशुराम लेख पढ़ने में आता है। द्वितीय मूर्ति ललितासन आसन में द्विभुजी है। इसका दाएं हाथ परशुधारी और बाएं हाथ में कमंडल है। यह जटा मुकुट से अलंकृत ह जबकि पूर्वोत्तर मूर्ति के शीश पर मुकुट है। यह दोनों मूर्तियां 15 वीं सदी की है।

महाभारत के भीष्माचार्य, दानवीर कर्ण, द्रोणाचार्य जैसे लोग परशुराम जी के शिष्यों में से रहे ,परंतु सांस्कृतिक इतिहास और कला के क्षेत्र में जब हम परशुराम जी को देखते हैं तो कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं‌। यमदग्नि का क्षेत्र महू- इंदौर के निकट जानापाव की पहाड़ी पर माना जाता है। आज भी वहां रेणुका माता की पूजा होती है। किंतु यह वैदिक काल की घटना है। अतः क्या यह माना जाए कि वहां वेदों के ऋचाओं का सर्जन हुआ।इस पर अनंत विभूषित विद्यारण्य महाराज से पूछा गया तो उन्होंने उसे स्वीकार किया कि यहां कुछ वैदिक ऋचाओं का सृजन हुआ था। परशुराम जी का जन्म और कर्म क्षेत्र मुख्य रूप से महिष्मति -माहेश्वर में था। माहेश्वर में राजराजेश्वर की समाधि है। उसे आज सहस्त्रार्जुन की समाधि मानते हैं‌ इस संदर्भ में सामने आता है कि यदि सत्य है तो मालवा और निमाड़ भी परशुराम जी के स्थान हुआ। लेकिन इस क्षेत्र में परशुराम के मन्दिर नहीं मिलते हैं। इतिहासकार दिनेश चंद्र सरकार ने रत्नागिरी को छठा मालवा माना है‌ वही परशुराम जी का क्षेत्र है।इस से निष्कर्ष निकलता है कि परशुराम जी वहां रहे थे। वह कोंकण क्षेत्र कहलाता है। भारत में महान समाज सुधार और ब्राह्मणों को कर्म से जोड़ने में भगवान परशुराम की अहम भूमिका है।

उन्होंने केरल,कच्छ और केरल में समुद्र में डूबी हुई खेती योग्य भूमि को निकालने की वैज्ञानिक तकनीक सुझायी दी, वहीं उन्होंने अपने परसु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्य बनाने में किया था। उन्होंने सैकड़ों दरिद्रनारायणों को शिक्षित और दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया था। प्राचीन इतिहास के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म राजा हरिश्चंद्र कालीन विश्वामित्र से एक या दो पीढ़ी पश्चात माना जाता है। वह 7500 विक्रम पूर्व का समय था‌ सहस्त्रार्जुन द्वारा उनके पिता की हत्या करने पर परशुराम जी ने एक सामारिक बौद्धिक रणनीति बनाई और इसे युद्ध समर्थन का हिस्सा बनाया था। उज्जैनी के यादव, विदर्भ के शर्याति यादव,पंचनद के द्रुह यादव, कन्नौज के गाधि चन्द्रवती, आर्यावर्त सम्राट सुवास, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश, अफगानिस्तान, मंजुवत, हिंदू कुश, पामीर, सीरिया,पारस, उत्तर पश्चिम चीन ,तुर्किस्तान बल्ख, ईरान,सप्तसिंधु, इराक अंग ,बंग ,संथाल परगने से बंगाल तथा आसाम तक के नरेशों ने उन्हें अपना नेतृत्व सौंपा तथा उनके पक्ष में सहस्त्रार्जुन से भीषण युद्ध किये थे। भारतवर्ष में यह एक ऐसा विराट युद्ध था जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इस युद्ध में विजित होकर परशुराम जी ने अरुणाचल के लोहित्यगिरि क्षेत्र में जाकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना फरसा धोया था ।बाद में यहां 5 कुडों का निर्माण करवाया गया‌ जिन्हें समंतपंच रुधिरकुंड कहा गया। इन्होंने इन्हीं कुडों ने युद्ध में हताहत हुए भृगु वंशियों और सूर्यवंशियों का तर्पण कराया था। इस युद्ध का समय 7200 विक्रम पूर्व माना जाता है जिसे 19 वां युग कहा गया है।

Happy
Happy
0 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Blog ज्योतिष

साप्ताहिक राशिफल : 14 जुलाई दिन रविवार से 20 जुलाई दिन शनिवार तक

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी सप्ताह के प्रथम दिन की ग्रह स्थिति – सूर्य मिथुन राशि पर, चंद्रमा तुला राशि पर, मंगल और गुरु वृषभ राशि पर, बुध और शुक्र, कर्क राशि पर, शनि कुंभ राशि पर, राहु मीन राशि पर और केतु कन्या राशि पर संचरण कर रहे […]

Read More
Blog national

तीन दिवसीय राष्ट्रीय पर्यावरण संगोष्टी सम्पन्न

द्वितीय राष्ट्रीय वृक्ष निधि सम्मान -२०२४ हुए वितरित किया गया ११००० पौधों का भी वितरण और वृक्षारोपण महाराष्ट्र। महाराष्ट्र के धाराशिव ज़िले की तुलजापुर तहसील के गंधोरा गाँव स्थित श्री भवानी योगक्षेत्रम् परिसर में विगत दिनों तीन दिवसीय राष्ट्रीय पर्यावरण संगोष्टी का आयोजन किया गया। श्री भवानी योगक्षेत्रम् के संचालक गौसेवक एवं पर्यावरण संरक्षक योगाचार्य […]

Read More
Blog uttar pardesh

सनातन धर्म-संस्कृति पर चोट करते ‘स्वयंभू भगवान’

दृश्य 1 : “वो परमात्मा हैं।” किसने कहा ? “किसने कहा का क्या मतलब..! उन्होंने ख़ुद कहा है वो परमात्मा हैं।” मैं समझा नहीं, ज़रा साफ कीजिये किस परमात्मा ने ख़ुद कहा ? “वही परमात्मा जिन्हें हम भगवान मानते हैं।” अच्छा आप सूरजपाल सिंह उर्फ़ भोलेबाबा की बात कर रहे हैं। “अरे..! आपको पता नहीं […]

Read More
error: Content is protected !!