भाग- 9 : श्री राम जन्मस्थान ‘संघर्ष-गाथा’

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जनरल डायर की बर्बरता को भी पीछे छोड़ दिया मुलायम सरकार ने

अनिल त्रिपाठी

(…..उस वक्त प्रकाशित विशेषांकों में इस बात की पुष्टि हुई कि उस दिन सरयू का जल भी लाल दिखा। किंतु सरकार ने अपने इस वीभत्स कांड में सिर्फ़ सोलह कारसेवकों के मारे जाने की पुष्टि की। जो सत्य से कोसों दूर था….से आगे)

ज़ुल्म-जबर समेत पूरी ताक़त और हिकमत आज़माने के बावजूद सरकार 30 अक्तूबर को कारसेवा रोक पाने में विफल रही थी। इससे हताश प्रशासन पहले से ही बहुत खीझा हुआ था उधर मुलायम सिंह बार बार किसी भी क़ीमत पर अयोध्या को कारसेवकों से ख़ाली कराने के निर्देश दे रहे थे। इसी जद्दोजहद के बीच दो नवंबर को अयोध्या एक बार फिर सुलग उठी। 2 नवंबर 1990 वो तारीख़ है जो आज़ाद भारत के इतिहास में एक काले अध्याय और बदनुमा दाग़ की तरह है। इस दिन तो मुलायम सिंह यादव ने विवादित परिसर से काफ़ी दूरी पर निहत्थे कारसेवकों के ख़ून से अयोध्या की धरती को लाल करवा दिया। इस हृदयविदारक इस गोलीकांड में 40 से ज़्यादा कारसेवकों की मौत हुई थी।

30 अक्टूबर की घटना से आक्रोशित कारसेवक किसी भी क़ीमत पर जन्मभूमि तक पँहुचने को दृढसंकल्पित थे, तो उन्हें वहाँ पँहुचने से रोकने के लिए प्रशासन ने अपनी सारी ताकत झोंक रखी थी। पौ फटते ही चारों तरफ से कारसेवकों की टोली रामधुन गाते निकल पड़ी। इन्हें रोकने के लिए पुलिस ने हनुमानगढ़ी चौराहे पर बैरिकेटिंग आदि के माध्यम से पुख़्ता इंतज़ाम कर रखे थे। साधु संत और कारसेवकों का एक जत्था कार्तिक पूर्णिमा का स्नान करके सरयू की तरफ से पुलिस घेरों की ओर सबेरे नौ बजे के आसपास बढा। दूसरा हत्था मणिरामदास छावनी की तरफ़ से आ रहा था जबकि तीसरा जत्था दिगम्बर अखाड़ा से रवाना हुआ। सुरक्षा बलों ने विवादित परिसर से लेकर एक किलोमीटर दायरे का क्षेत्र पहले से ही पूरी तरह सील कर रखा था। सभी गलियों के मुहाने और हनुमानगढ़ी के पास पुलिस की सुरक्षा चौकियां बनी थीं। तीनों तरफ कारसेवकों का हुज़ूम यहीं पर इकट्ठा होने लगा। आगे बढ़ने से रोकने पर कारसेवक वहीं सड़क पर बैठ कर राम धुन गाने लगे।

हनुमागढ़ी के आसपास भीड़ का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था। यह देख मौके पर तैनात आई.जी. जोन जी.एल. शर्मा ने अपने मातहत अधिकारियों से कहा कि सरकार का स्पष्ट आदेश है कि किसी भी कीमत पर भीड़ को सड़कों पर भी बैठने न दिया जाय। आई.जी. का निर्देश मिलते ही सुरक्षा बलों ने बेतहाशा लाठीचार्ज करते हुए आंसू गैस के गोले दागकर कारसेवकों को भगाने की कोशिश की। लेकिन निहत्थे कारसेवक लाठियां खाते हुए भी वहीं डटे रहे। इसी बीच अचानक बिना किसी चेतावनी के अर्धसैनिक बल अंधाधुंध फायरिंग करने लगा। जान बचाने को गली-कूचों में भागते कारसेवकों को दौड़ा-दौड़ाकर निशाना लगाकर गोलियां दागी गईं। इन सबके बावजूद दिगंबर अखाड़े से आया जुलूस लाठी गोली खाते हुए वहीं सड़क पर बैठा रामधुन गाता रहा। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक इन निहत्थे किंतु धुन के पक्के रामभक्तों पर फायरिंग करते वक्त अनेक सुरक्षाकर्मियों की आँखों से भी आँसू छलक आए। वो सरकारी आदेश के सामने मजबूर थे। ध्यान देने की बात है 30 अक्टूबर का गोलीकांड तो विवादित परिसर में कारसेवकों के घुसने पर हुआ था किंतु दो नवम्बर का यह गोलीकांड तो उस परिसर से एक किलोमीटर से भी ज़्यादा दूरी पर हुआ।

प्रशासन ने दावा किया कि कारसेवक जन्मस्थान परिसर के नज़दीक पहुंच गए थे इसलिए गोली चलाई गई जो बिल्कुल बकवास था। गोलीबारी के लिए प्रशासन की दूसरी दलील थी कि पहले कारसेवकों को आंसूगैस और लाठीचार्ज से खदेड़ने की कोशिश की गई जब यह बेअसर रहा और कारसेवक उग्र होने लगे तो गोली चलाई गई। जबकि यह पूरी तरह से झूठ था। सत्य-तथ्य यह था कि प्रशासन ने उस वक्त कारसेवकों पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं, जब कारसेवक सड़कों पर बैठकर रामधुन गाते सत्याग्रह कर रहे थे। इस वीभत्स गोलीकांड का संचालन आई.जी. जोन जी.एल. शर्मा, एस.एस.पी. सुभाष जोशी, सी.आर.पी.एफ. के उप-कमांडर उस्मान, और 58वीं बटालियन के उप कमांडर तरमेंदर भुल्लर ने किया था। इन सबने जनरल डायर को भी पीछे छोड़ दिया था। वहां के दृश्य देखने वालों के ज़ेहन में जलियांवाला बाग़ की स्मृतियाँ ताज़ा हो आईं।

प्रशासन का यह ऑपरेशन इतना निर्मम और बर्बर था कि न तो पुलिस वाले ख़ुद घायल कारसेवकों को उठा रहे थे और न ही सड़कों पर पड़े तड़प रहे रामभक्तों को साथी कारसेवकों को उठाने दे रहे थे। इस भीषण गोलीकांड के बाद जो लाशें बरामद हुईं उनमे पांच दंतधावन कुंड से, तीन खाकी अखाड़े से, तीन हनुमानगढ़ी ने, एक रामबाग में, दो लाशें कोतवाली के सामने जबकि तीन लाशें अलग-अलग घरों से बरामद हुईं जिससे साबित होता है कि सुरक्षा बलों ने न केवल सड़कों पर बल्कि घरों में घुसकर भी रामभक्तों को मारा था। पांच कारसेवकों की लाश उठाकर उनके साथी मणिरामदास छावनी ले जाने में कामयाब रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम में चौंकाने वाला तथ्य यह था कि फायरिंग शुरू होते ही जिलाधिकारी राम शरण श्रीवास्तव हक्काबक्का थे उन्होंने अधिकारियों से कहा ” ये क्या हो रहा है ! मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस तरह कितने लोगों को मारा जाएगा।” ज्ञातव्य है कि राम शरण श्रीवास्तव ने अयोध्या : एक दृष्टिकोण शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी जो इस प्रकरण की अदालती कार्यवाई में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत हुई।

रामचरण श्रीवास्तव

दरअसल ये अंधाधुंध फायरिंग बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के ही की गई थी। सी.आर.पी.एफ ने फायरिंग के बाद गोली चलाने के आदेश पर जिला मजिस्ट्रेट राम शरण श्रीवास्तव से दस्तखत करवाए थे। सरकार के निर्देश पर जबरन दस्तखत करवाने के बाद उन्हें उसी रात छुट्टी भेज दिया गया। कुछ लोगों के मुताबिक जबरन दस्तख़त कराए जाने से नाराज़ और खिन्न होकर ही वो विरोध स्वरूप वो छुट्टी पर गए थे।
इस गोली कांड की इतनी परतें थीं कि पूरा उपन्यास लिख जाए। गोली चलाने के आदेश पर फैज़ाबाद का एक भी प्रशासनिक अधिकारी यह तक बताने की स्थिति में नहीं था कि कुल कितने राउंड गोली चलाई गई। 2 नवम्बर को सबसे पहले गोली हनुमानगढ़ी चौराहे पर सुबह 10:30 बजे के आसपास चली।

इसके बाद 10.45 के आसपास कोतवाली के सामने बैठे कारसेवकों पर गोली चली। यहाँ खजुराहो से सांसद उमा भारती और अहमदाबाद के सांसद हरेंद्र पाठक के नेतृत्व में कारसेवकों की भीड़ घंटो से सड़क पर बैठी रामधुन गा रही थी। पुलिस ने पहले वहाँ मौजूद दोनो नेताओं को गिरफ़्तार कर अन्यत्र भेज दिया इसके बाद रामनाम के धुनी कारसेवकों पर जमकर गोलियां चलाईं। इसके बाद नम्बर आया दिगंबर अखाड़े का। चूंकि आंदोलन की अधिकांश गतिविधियां दिगंबर अखाड़े से ही संचालित हो रही थीं इसलिए 30 अक्टूबर के पहले से ही यह स्थान सुरक्षा बलों के निशाने पर था। हनुमागढ़ी चौराहे पर फायरिंग के बाद सुरक्षाबल के लोग दिगम्बर अखाड़ा और आसपास की गलियों में भूखे शिकारियों की तरह टूट पड़े।

दिगम्बर अखाड़े के पास विनय कटियार के साथ ही कुछ और कारसेवक दिखे,इनमे कोलकाता से आये बहुचर्चित कोठारी बंधु भी शामिल थे। 2 दिन पहले विवादित ढाँचे के गुम्बद पर भगवा झंडा फहराने के बाद से ही ये दोनों भाई शरद कोठारी और रामकुमार कोठारी सुरक्षाबलों की आंखों किरकिरी बने हुए थे। इन्हें देखते ही सुरक्षा बल ने फ़ायर खोल दिया। फायरिंग शुरू होते ही वहाँ भगदड़ मच गई। ये दोनों भाई जान बचाने के लिए लाल कोठी वाली गली में भागकर एक घर में छिप गए। कहते हैं सी.आर.पी.एफ. के जवान उस घर मे घुसकर दोनो भाइयों को खींचते हुए बाहर लाए और सरे आम दोनो को सर में असलहा सटा कर गोली से उड़ा दिया।

दोनों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। बर्बरता और अमानवीयता की हदें पार करते हुए प्रशासन ने दोनों के शव भी परिवार को सौंपने से इनकार कर दिया। पीढ़ियों से कोलकाता में रह रहा इनका परिवार मूलतः राजस्थान के बीकानेर का रहने वाला था। कोठारी बंधुओं के बूढ़े आसक्त पिता श्री हीरालाल कोठारी में अपने बेटों का शव देख पाने की हिम्मत नहीं बची थी। 4 नवंबर 1990 को अयोध्या में ही सरयू घाट पर जब बलिदानी रामभक्त कोठारी बंधुओं का अंतिम संस्कार किया गया तो तमाम पाबन्दियों के बावजूद उनके अंतिम दर्शन के लिए हजारों का हुजूम उमड़ पड़ा। कुछ संगठन तभी से 2 नवंबर को इन बलिदानी बंधुओं की याद में शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं।

सड़क पर खड़े जोधपुर के रामभक्त सीताराम माली ने अपने साथी रामभक्तों को कष्ट से बचाने के लिए अपने सामने ही पड़े आंसू गैस के एक गोले को उठाकर नाली में डालने की गुस्ताख़ी कर दी,सुरक्षा बलों को यह कैसे बर्दाश्त होता ! सी.आर.पी.एफ. टुकड़ी के एक जवान ने निर्ममता से उसके मुंह पर बंदूक रखकर गोली दागते हुए मौत के घाट उतार दिया। इसी तरह रामबाग के ऊपर की छत से आंसू गैस से रामभक्तों की परेशानी कम करने के उद्देश्य से बाल्टी भर भर के नीचे पानी फेंक रहे एक साधु पर सुरक्षा बलों की निगाह पड़ी,देखते ही उसे भी निशाना बनाया गया। गोली लगते ही वो साधु छत से सीधे नीचे आ गिरा। राजस्थान का एक अज्ञात कारसेवक भी आँसू गैस का गोला ही उठाकर अपने से दूर फेंकने के दौरान गोली का शिकार हो कर सड़क पर गिर गया। गिरने के बाद उस रामभक्त ने सड़क पर अपने खून से ‘सीताराम’ लिख दिया था। हालाँकि यह पता नहीं लग सका कि यह उस बलिदानी रामभक्त का नाम था या अंत समय मे अपने आराध्य का स्मरण। तमाम खोजबीन के बाद उसके बारे में सिर्फ़ इतना ही मालूम हो सका था कि वो राजस्थान के गंगानगर से आया था।

अयोध्या कोतवाली के सामने वाले मंदिर के पुजारी पर नज़र पड़ते ही उसे वहीं ढेर कर दिया गया। कई चेतावनियों के बावजूद फैज़ाबाद के राम अचल गुप्ता की लम्बे वक्त से जारी अखंड रामधुन बंद होने का नाम नहीं ले रही थी। सुरक्षा बलों ने पीछे से उनकी पीठ में गोली दागकर मारते हुए उसे विराम दिया। अंधाधुंध फायरिंग में सुरक्षाबलों को न तो मंदिरों, अखाड़ों आदि की पवित्रता का ध्यान था न ही जान बचाने को घरों में बैठे लोगों का। मंदिरों अखाड़ों और सामान्य घरों तक में घुस-घुसकर कारसेवकों पर गोलियां चलाई गईं। हालांकि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार फायरिंग के वक्त बहुत द्रवित थे, उनमे से कुछ की आंखों में आँसू भी थे तो कुछ ने फायरिंग के आदेश के बावजूद अपनी बंदूकें रख के सिर्फ़ डंडा ही चला रहे थे,किन्तु ये संख्या कम ही थी। अधिकांश के सिर पर जैसे ख़ून सवार था। इस वीभत्स गोलीकांड के बाद अयोध्या की सड़कों, गलियों, मंदिरों, अखाड़ों और छावनियों में हर तरफ़ बिखरा-बहता ख़ून चीख़ चीख़ के कारसेवकों पर हुई निर्ममता और बर्बरतापूर्ण कार्यवाई की गवाही दे रहा था। अज्ञात संख्या में लोग मारे गए घायलों की तो गिनती ही नहीं थी। सड़कों पर यहाँ-वहाँ लाशें छितरी पड़ी थीं।

यहाँ वहाँ छितरी पड़ी लाशों में से जितनी लाशें कारसेवक किसी तरह छिपते छिपाते उठा लाए थे उनके आधार पर उसी दिन शाम को कारसेवक समिति द्वारा जारी सूची में मारे गए कारसेवकों की सँख्या चालीस बताई गई थी जबकि घायलों का उनके पास भी कोई हिसाब नहीं था। उस दिन दोपहर बाद से ही अयोध्या में हर तरफ़ मरघट सा सन्नाटा छा गया। पूरी अयोध्या में पुलिस और कारसेवकों के कब्ज़े के अलावा अगर कहीं कुछ था तो वो था चारों तरफ़ सिर्फ़ शोक रोष विषाद और उत्तेजना। सभी साधु-संत मंदिरों के बंद कपाट में ही क़ैद थे इसके बावजूद उस दिन शाम को सम्भवतः पहली बार न किसी मंदिर से आरती घंटे-घड़ियाल की आवाज़ आई न ही कहीं शाम का भोग ही लगाया गया। चारों तरफ सिर्फ़ ख़ून का घूँट पीती खामोशी का स्यापा छाया था। कहने को तो उस समय भी अयोध्या में कर्फ्यू लगा था लेकिन सड़कों पर हर तरफ लोग घायलों को लेकर दौड़ते भागते नज़र आ रहे थे।

क्रमशः –

(तथ्य सन्दर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान , रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) ,बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी, तत्कालीन समाचार पत्र)

( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)

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