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शनि के लंगड़े होने की कथा है –
कहा जाता है कि पिप्पलाद मुनि की बाल्यावस्था में उनके पिता का देहावसान हो गया था। यमुना के तट पर तपस्वी जीवन व्यतीत करने वाले उनके पिता को शनि ने अत्यधिक कष्ट दिया था। विपन्नता और ब्याधि के निरंतर आक्रमण से पिप्पलाद मुनि के पिता के प्राण चले गए थे। उनकी माता अपने पति की मृत्यु का एकमात्र कारण शनि को ही मानती थी। जब पिप्पलाद बड़े हुए तो उन्होंने अपने मां से समस्त बातें जानीं। शनि के प्रति उनका क्रोध प्रचंड हो गया। उन्होंने शनि को ढूंढना प्रारंभ किया। अचानक एक दिन पीपल के वृक्ष पर शनि देव के दर्शन पीपलाद को हुए। पिप्पलाद शनि पर ब्रह्मदण्ड का संधान किये। शनिवार भागने में असमर्थ थे तो भी भागने लगे। ब्रह्मदंड ने तीनों लोगों में उन्हें दौड़ाया। अंततः ब्रह्मदण्ड ने शनि को लंगड़ा कर दिया। विकलांग शनि भगवान शिव से करुण प्रार्थना करने लगे।
भगवान शिव ने प्रकट होकर पिप्पलाद मुनि को बोध कराया कि शनि तो सिर्फ सृष्टि के नियमों का पालन करते हैं और वे मेरे सहायक हैं। तुम्हारे पिता की मृत्यु का कारण शनि नहीं हैं। वस्तु स्थिति जानकर पिप्पलाद ने शनि को क्षमा कर दिया। इसी प्रकार शनि की अधोदृष्टि के पीछे भी एक कथा है- शनि की अधोदृष्टि और क्रूरता का रहस्य उनकी पत्नी द्वारा दिए गए शाप में है। एक बार ऋतुस्राव से निवृत्त होकर शनि की पत्नी पुत्र अभिलाषा से उनकी सेवा में उपस्थित हुई। शनि समाधि में लीन थे। पत्नी का ऋतुकाल व्यर्थ चला गया। आहत होकर पत्नी ने शाप दिया कि जिस पर उनकी दृष्टि पड़ जाएगी, वह नष्ट हो जाएगा।
शनि की दृष्टि के कारण ही पार्वती पुत्र भगवान गणेश का शिरच्छेद न हुआ, भगवान राम को वनवास हुआ, लंकापति रावण का संहार हुआ और पांडवों को वनवास हुआ। शनि के कोप के कारण विक्रमादित्य राजा को कई कष्टों का सामना करना पड़ा तथा त्रेता युग में राजा हरिश्चंद्र को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी। राजा नल और उनकी रानी दमयंती को जीवन में कई प्रकार के कष्टों का सामना शनि की कुदृष्टि के कारण हुआ। ज्येष्ठ अमावस्या को शनि का जन्म होने के कारण इस दिन शनि जयंती मनाई जाती है। इस दिन शनि के निमित्त जो भी पूजा पाठ किए जाते हैं उससे शनि देवता प्रसन्न होते हैं। उनके दुःख और कष्टों में कमी करते हुए उन्हें श्रेष्ठ जीवन यापन की प्रेरणा प्रदान करते हैं। इस वर्ष 30 मई को शनि जयंती है।
क्यों है शनि का अपने पिता सूर्य से बैर
सूर्य और छाया की संतान शनि का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन हुआ था। भगवान सूर्य की अन्य पुत्रों की अपेक्षा शनि प्रारंभ से ही विपरीत स्वभाव के थे। कहते हैं कि जब शनि पैदा हुए तो उनकी नजर अपने पिता सूर्य पड़ी। इससे उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। धीरे-धीरे शनि बड़े होने लगे और उनका अपने पिता से मतभेद भी गहराने लगा। सूर्य सदैव अपने पुत्र के प्रति चिंतित रहते थे। वे चाहते थे कि शनि अच्छे कर्म करें और एक आदर्श स्थापित करें। परंतु उन्हें निराश होना पड़ता था। संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान के लिए पृथक- पृथक लोक की व्यवस्था की। परंतु शनि अपने लोक से संतुष्ट नहीं हुए।
उन्होंने समस्त लोकों पर आक्रमण करने की योजना बनाई सूर्य को शनि की इस भावना से अत्यंत कष्ट प्राप्त हुआ। अब तो शनि के आतंकों की पराकाष्ठा ही हो चुकी तो सूर्य ने भगवान शिव से निवेदन किया कि वह शनि को समझाएं। भगवान शिव ने शनि को चेतावनी दी परंतु शनि ने भगवान शिव की चेतावनी की परवाह नहीं की और उनके बातों की उपेक्षा करने लगे। इस उपेक्षा से भगवान शिव शनि को दंडित करने का निश्चय किये। भगवान शिव के प्रहार से शनि अचेत हो गए। पुत्र की स्थिति को लेकर सूर्य का मुंह जागृत हो गया।
उन्होंने भगवान शिव से शनि को जीवन दान देने की प्रार्थना की। शिव जी ने सूर्य की प्रार्थना स्वीकार कर शनि को छोड़ दिया। इस घटना से शनि ने भगवान शिव की समर्थता स्वीकार कर ली। शनि ने यह भी इच्छा व्यक्त की कि वे अपनी सेवाएं भगवान शिव को समर्पित करना चाहते हैं। शनि के रण कौशल से अभिभूत भगवान शंकर ने शनि को अपना सेवक बना लिया और उसे अपना दंडाधिकारी नियुक्त किया ।यह अधिकार प्राप्त होने के पश्चात शनि एक सच्चे न्यायाधीश की भांति जीवों को दंड देकर भगवान शिव के कार्यों में सहायता करने लगे। अब शनि व्यर्थ ही किसी को परेशान नहीं करते हैं।
30 मई दिन सोमवार को ज्येष्ठ माह की अमावस है। इस दिन सूर्योदय 5 बजकर 17 मिनट पर और अमावस्या तिथि का मान दिन में 3 बजकर 40 मिनट, कृतिका नक्षत्र प्रातः 6 बजकर 41 मिनट पर्यन्त, पश्चात रोहिणी नक्षत्र, सुधर्मा योग रात को 10 बजकर 53 मिनट और औदायिक योग स्थिर है। सोमवार के दिन अमावस्या होने से यह स्नान, दान और श्राद्ध कर्म के लिए अत्यंत प्रशस्त दिन के रुप में मान्य रहेगा। पुराणों की मान्यता के अनुसार इसी दिन शनि का जन्म हुआ था। अतः इस दिन शनि देवता को प्रसन्न करने हेतु शनि से सम्बन्धित पदार्थों का दान और शनि देवता की विशिष्ट अर्चन किया जाता है।
शनि के लिए दान
शनि की महादशा अंतर्दशा के शुभ फल प्राप्त करने के लिए अथवा शनि के अशुभ फलों को दूर करने के लिए 11 शनिवार तक काले रंग के वस्त्र में लोहा, काला उड़द, काला पुष्पा्, काला तिल और सरसों का तेल, चमड़े के जूते, मिठाई इत्यादि का दान करें। शनि ग्रह को अनुकूल करने के लिए और सभी कष्टों से बचाव के लिए शुभ मुहूर्त में बिच्छू के पेड़ की जड़ धारण करें ।धारण करने से एक दिन पूर्व जाकर इसे निमंत्रण देकर आए और गंगाजल, कुमकुम और पुष्प आदि से उसकी पूजा करें। अन्य उपाय भी शनि को अनुकूल बनाने के लिए हैं- जैसे शनि की कृपा प्राप्ति के लिए शनि जयंती के दिन या नौ शनिवार तक गरीब मजदूरों को भोजन करवाएं।
भोजन में तिल से बनी कोई वस्तु अवश्य खिलाएं। यदि शनि की महादशा अंतर्दशा अशुभ जा रही है तो व्यक्ति को यथासंभव अपने घर के नौकरों से और अन्य कार्य करने वाले व्यक्तियों जैसे धोबी, सफाई कर्मी एवं पीड़ितों से अच्छा व्यवहार करना चाहिए। उनका आशीर्वाद लेना चाहिए और यथासंभव उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास भी करना चाहिए। शनि को अनुकूल बनाने के लिए शनि जयंती के दिन या शनिवार का व्रत अनुकूल रहता है। यह व्रत शनि जयंती से प्रारंभ कर आने वाले शनिवारों में किया जाए। यह 31 या 51 शनिवार तक किया जाता है।
इस दिन काले या नीले रंग का कोई वस्त्र अवश्य धारण करें। स्नान आदि करने के पश्चात शनि के किसी मंत्र का तीन माला जप करें और प्रातः या सायंकाल के समय एक बर्तन में जल, काला तिल, शक्कर कालापुष्प, लवंग, दूध मिलाकर पश्चिम दिशा की ओर मुख करते हुए पीपल के वृक्ष में अर्पण करे। इस दिन एक समय नमक रहित भोजन करें और भोजन में तिल से बना कोई पदार्थ, पंजीरी, तिल का लड्डू प्रयोग करें। अंतिम शनिवार को शनि के मंत्रों से लघु हवन करें और शनि से संबंधित वस्तुओं का भी दान करें। दंडाधिकारी के पद से मंडित शनिदेव का नवग्रहों में विशिष्ट स्थान है। दु:ख का कारक होने के कारण जीवन की वास्तविकता और अपने पराए का सही एहसास यही करवाते हैं।
मत्स्य पुराण में इनके स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है इनकी कांति इंद्रनीलमणि के समान है। ये गीध पर सवार होते हैं और अपने हाथों में धनुष बाण, त्रिशूल एवं वरमुद्रा धारण किए रहते हैं। ये कृष्ण वर्णी एवं लोहे के बने रथ पर सवार रहते हैं। इनका रथ कौवा आया गीध खींचते हैं। इनकी माता का नाम छाया, पत्नी का नाम सती और बहनों का नाम तपती, विष्टि और यमुना है। इनकी दृष्टि सर्वाधिक क्रूर एवं मंगलकारी मानी गई है। इतना ही नहीं इनकी कुदृष्टि से भगवान गणेश का मस्तक अलग हो गया था। शनि के अधिदेवता प्रजापति और प्रत्धिदेवता यमराज हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मकर और कुंभ राशियों पर इनका अधिकार होता है। तुला राशि में 20 अंश पर शनि परमोच्च एवं कुंभ राशि में 20 अंश तक मूल त्रिकोण में रहते हैं। एक राशि पर में लगभग ढाई वर्ष रहते हैं।
जिस भाव में रहते हैं उसे तृतीय, सप्तम और दशम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। सभी ग्रहों के गोचर में शनि के गोचर की गोचर को सर्वाधिक अमंगलकारी माना जाता है। अपनी जन्म राशि से चौथे, आठवें भाव में इनका गोचर ढैया कहलाता है। पंचम भाव में कंटक एवं लग्न, द्वादश और द्वितीय भाव में गोचर साढ़ेसाती के नाम से जाना जाता है। इनकी विंशोत्तरी दशा 19 वर्ष तक चलती है और इनके पुष्प, अनुराधा एवं उत्तराभाद्रपद नक्षत्र पर आधिपत्य होता है। यदि शनि लग्नेश होकर या लग्न भाव में स्थित होकर व्यक्तित्व का कारक बने, तो जातक लंबे पतले शरीर वाला, मोटे दांत और नाखून वाला, उभरी नसों से युक्त सांवले वर्ण का और शर्मीली प्रकृति का होता है।