

आध्यात्मिक गुरु बनाना अनिवार्य होता है। हमारे धर्म शास्त्रों में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि गुरु बनाने के पश्चात ही हमारे सभी पूजन कर्म, जप, दान इत्यादि का फल हमें प्राप्त होता है। जो गुरु नहीं बनाता है उसके द्वारा किए गए विभिन्न धार्मिक कृत्य पूर्ण फल नहीं देते हैं। संपूर्ण सिद्धि के लिए गुरु अनिवार्य होता है ।यदि आप काफी समय से बिना गुरु के ही तैयारी करते चले आ रहे हैं तो निश्चित मानिए कि जैसे ही आप गुरु तत्व को प्राप्त करेंगे वैसे ही पूर्व में किए गए उन कर्मों का विकसित फल आपको प्राप्त होना शुरू हो जाएगा। कोई भी व्यक्ति भले ही वह कितना ही आधुनिक या भौतिकवादी क्यों न हो, वह अंदर ही अंदर भगवान को, धर्म को या उस परम सत्ता को अवश्य मानता है। बात-बात पर कसम खाना, भाग्य को मानना और टचवूड कहना ,किसी धार्मिक स्थान को देखकर सिर झुकाना, मंदिर में पांव रखना और नमन करना, धार्मिक पुस्तक पर पांव पड़ने पर पुस्तक को उठाकर सिर से लगाना ,यह सब क्या है। यह सब आस्तिकता और उस परम शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना है। भले ही वह अपने आप को नास्तिक क्यों ना कहे लेकिन वह मन से आस्तिक है।जब हम इन पवित्र शब्दों को मानते हैं तो भगवान को, शास्त्रीय महापुरुषों को मानने में क्या दोष है?
दुर्गुणों से बचाता है गुरु :
जीवन की उन्नति में सुसंगति का बहुत अधिक महत्व होता है जो व्यक्ति गुरु बनाते हैं, उन में सद्गुणों का स्वत: प्रवेश हो जाता है हमारे आसपास प्रायः देखा जाता है कि किशोरावस्था में पड़कर अपशब्द कहना, गलत पदार्थों का सेवन करना आदि अनेक दुर्गुण आ जाते हैं।ये जीवन को क्षतिग्रस्त करते हैं। लेकिन जब व्यक्ति गुरु बना लेता है और गुरु भाईयों के सम्पर्क में आ जाता है तो वह दुर्गुणों से दूर होता चला जाता है। इसके अतिरिक्त इस भागदौड़ ज़िन्दगी में रहकर गुरू या गुरूभक्तों के सम्पर्क में रहकर मन को सूकून मिलता है।
एक व्यक्ति को ही बनाएं गुरु :
जहां तक सम्भव हो वह यह कि एक ही व्यक्ति को गुरु बनाना चाहिए, क्योंकि इससे मन एकाग्र रहता है और एक ही स्थान पर श्रद्धा केन्द्रित रहती है। गुरु या गुरुमंत्र के सम्बन्ध में एक बहुत बड़ी शंका रहती है कि क्या एक से अधिक गुरु बनाना चाहिए। अनेक व्यक्ति होते हैं जो परिस्थितवश या श्रद्धावश एक से अधिक गुरु बना लेते हैं और फिर उनके मन में अपराधबोध या संशय की स्थिति बनी रहती है। इसके बाद कई बार यह होता है कि उनके इष्टदेव कोई अन्य होते हैं और गुरु मन्त्र कुछ अलग ही।ऐसी स्थिति में वह संशय ग्रस्त रहता है। लेकिन यदि ऐसी स्थिति आए तो एक से अधिक गुरु बनाए जा सकते हैं। यदि प्रथम गुरु में पूर्ण श्रद्धा केन्द्रित नहीं होती है तो आप अन्य किसी सुयोग्य को गुरु बना सकते हैं । लेकिन ध्यातव्य है कि द्वितीय गुरु बनाने के पश्चात प्रथम गुरु के प्रति श्रद्धा कम न होनी चाहिए। दोनों से ही आपको कुछ नया ज्ञान ही मिलेगा। यह दोष तब हो जाता है जब दूसरा गुरु बनाकर हम एक की आलोचना और अवहेलना करने लगते हैं। प्रथम गुरु से जो मन्त्र या प्राविधि आपको मिली ,उसका भी आपको नित्य निर्दिष्ट संख्या में जप या पालन करनी चाहिए और द्वितीय गुरु ने जो मन्त्र या विधि दी है,उसका भी पालन आपको करना चाहिए। बड़े- बड़े साधु- संन्यासी,दण्डी स्वामी ऐसे हैं जिनके एक से अधिक गुरु हुए हैं । वे हमारे लिए अनुकरणीय हैं। स्वयं दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरु थे।
यह आवश्यक नहीं है कि आपको गुरु मन्त्र वहीं मिले जो आपके इष्टदेवता है। इन दोनों के अलग – अलग होने पर मन में कोई शंका नहीं होनी चाहिए। गुरु मन्त्र का जप तो एक कर्तव्य के समान है,जो गुरु ने आपको दिया है। इसको आपको निर्विकल्प के समान करना चाहिए। इष्टदेवता यदि आपके अलग है तो उसके निमित्त आपको जो करना चाहें वह करें। गुरु मन्त्रस्थ देवता के अतिरिक्त अन्य देवता की आराधना करने से कोई पाप नहीं लगता है ।
गुरु मंत्र और दीक्षा के प्रकार :
गुरु मन्त्र और दीक्षा के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण शंका गुरु दीक्षा के प्रकार को लेकर होती है। विभिन्न गुरु परम्पराओं , मतों और गुरुओं की दीक्षा भी अलग – अलग प्रकार की होती है। कुछ सम्प्रदाय ऐसे हैं जिसमें गुरु दीक्षा लेने पर एक विशिष्ट प्रकिया का अनुसरण करना पड़ता है और उसके पश्चात दीक्षा मिलती है। कई बार ऐसा होता है कि अतिव्यस्तता या शिष्यों की अधिकता के कारण सामूहिक रुप से दीक्षा प्राप्त होती है। कई गुरु ऐसे भी होते हैं जो प्रसन्न होने पर शिष्य को बुलाते हैं और कहते हैं -” पुत्र,आज से यह तुम्हारा गुरु मन्त्र है और इस मन्त्र का जप किया करो।”-और कई गुरु ऐसे है जो दीक्षा में गुरु मन्त्र नहीं देते हैं, बल्कि किसी विशिष्ट ध्यान विधि का निर्देश देते हैं। गुरु मन्त्र को प्रायः गुप्त रखने का निर्देश प्राप्त होता है। कई बार असावधानीवश या भूलवश साधक अपना गुरु मन्त्र अन्य किसी को बता देता है और जब उसे मालूम होता है तो अपराध बोध होता है कि सारी गुरु दीक्षा व्यर्थ चली गई और यह मन्त्र अब किसी काम का नहीं है , परन्तु ऐसी बात नहीं है दीक्षा व्यर्थ नहीं होती है। सामूहिक दीक्षा प्राप्त होने पर साधक सोचने लगता है कि यदि यह दीक्षा व्यक्तिगत या किसी और तरीके से मिली होती तो वह और कारगर होती। लेकिन इस तरह की शंका निराधार होती है।
गुरु दीक्षा के सम्बन्ध में शास्त्रों में बताए गए ये सभी निर्देश अनुशासन में या एक विधि में बांधने के लिए बनाए गए हैं।किसी भी स्थिति में विश्वास को नहीं छोड़ना चाहिए। विश्वास ही फल की प्राप्ति कराता है भले ही आपको किसी भी स्थिति में दीक्षा प्राप्त हुई हो। यदि असावधानीवश गुरु मन्त्र किसी को बता दिए हों तो भी गुरु और गुरु मन्त्र पर श्रद्धा होने से वह गुरु मन्त्र आपके लिए अमृत के समान फलदाई ही रहेगा। गुरु के मुख से निकला मन्त्र,किसी भी प्रकिया से आपको मिला हो ,वह पूर्ण प्रभावी रहेगा।कम या अधिक असर आपके विश्वास पर निर्भर करता है। यह विश्वास ही तो है कि हम पत्थर की मूर्ति को भगवान मानते हैं और उससे हमें कृपा प्राप्त होती है। जीवन में गुरु बनाने के पश्चात एक नवीन आनन्द, सन्तोष, आत्मसंतुष्टि की अनुभूति होती है। जो लोग गुरु नहीं बनाते हैं,वे ऊपरी तौर पर देखने में कितने ही सफल क्यों न हों, फिर भी आंतरिक रुप से एक असंतुष्टि और खोखलापन का अनुभव करते हैं। गुरु बनाने के पश्चात गुरु के चरणों को स्पर्श कर आप सब कुछ भूल जाते हैं। इससे संतुष्टि और सुख मिलता है, यही सच्चा सुख है।