पुस्तक समीक्षा : चैलेंजेज ऑफ यूनिवर्सिटीज – प्रोफेसर भूमित्रदेव

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विश्वविद्यालयों की समस्याओं के समाधान की एक नायाब कृति

समीक्षा :

विवेकानंद त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

देश के विश्वविद्यालय जड़ता और अराजकता का शिकार हो चले हैं। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने देश के विश्वविद्यालयों के बारे में कहा है कि उनकी स्थापना अपने देश की परंपरा, प्रगति और विकास के अनुरूप नहीं हुई है उनकी जड़ों शाखाओं और पत्तियों को प्रत्यारोपित किया गया है। यानी अपने देश काल परंपराओं और महान सनातन विरासत को नजरअंदाज करके हुई है। यही वजह है कि वे परंपरा के संवाहक न होकर जड़ता के शिकार हो गए हैं। ईर्ष्या की विषवेल ने विश्वविद्यालयों की स्वस्थ परंपराओं को इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि कोई भी स्वस्थ परंपरा शुरू करने वाले तक ही सीमित होकर रह जाती है। आने वाले उत्तराधिकारी उसे आगे बढ़ाना अपनी तौहीन समझते हैं। अव्वल तो विश्वविद्यालय का मुखिया कहलाने वाले कुलपति विश्वविवद्यालय को परिवार नहीं चारागाह समझकर आ रहे होते हैं और उनकी नजर वहां के आर्थिक संसाधनों में बड़ी हिस्सेदारी की होती है। उनकी प्राथमिकता में विद्यार्थी और उनके हित शामिल ही नहीं होते। जिन विश्वविद्यालयों ने उन्हें काबिल बनाकर इस मुकाम तक पहुंचाया होता है उसको पुष्पित पल्लवित करके उस कर्ज को उतारने की भावना किसी बिरले के मन में ही उपजती है।

विश्वविद्यालयों के इतिहास में शायद पहली बार अपना फर्ज और कर्ज दोनों अदा करने के लिए एक प्रोफेसर जो अनेक विश्वविद्यालयो के कुलपति रह चुके हैं, ने एक अभिनव पहल की है। हाल में प्रकाशित उनकी पुस्तक दरअसल एक पुस्तक नहीं बल्कि विश्वविद्यालयों की गौरव गरिमा को स्थापित करने का एक लाइट हाउस है। Challenges Of Improving Universities नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित यह पुस्तक उस प्रोफेसर भूमित्रदेव का सृजन है जो छह विश्वविद्यालयों के कुलपति रहे हैं और जिनका एक बहुत शानदार एकेडमिक और प्रशासनिक रिकॉर्ड है। कुलपति के रुप में वे जहां जहां रहे हैं नवोन्मेष (Innovation) के लिए जाने जाते रहे हैं। यह पुस्तक नहीं एक आचरित सत्य है,और जब कोई आचरित सत्य शब्दों में अभिव्यक्त होता है तो उसका प्रभाव बहुत दूरगामी होता है। 108 पेज की इस पुस्तक में प्रोफेसर भूमित्र देव ने विश्वविद्यालयों को सुधारने की चुनौतियों के मद्देनजर अपने कार्यकाल के ऐसे नायाब प्रयोगों के दृष्टांत पिरोए हैं जिन्हें वाकई में अगर लागू किया जाय तो हमारे देश के विश्वविद्यालय देश ही नहीं दुनिया के विश्वविद्यालयों को नई दृष्टि दे सकते हैं।

छोटे छोटे चैप्टर में विभक्त इस पुस्तक के पहले चैप्टर Best Practices of Universities में विश्वविवद्यालयों में शुरू होने वाली अच्छी परंपराएं उत्तराधिकारी द्वारा आगे बढ़ाने की इच्छाशक्ति की कमी के चलते कैसे दम तोड़ रही हैं इसके अनेक चौकाने वाले दृष्टांत हैं। तत्कालीन राज्यपाल और विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति केएम मुंशी ने विश्वविद्यालयों के मेधावी विद्यार्थियों से संवाद की एक अनूठी परंपरा शुरू की थी। इसके लिए चांसलर कैंप का आयोजन होता था। उसमें उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों के मेधावी विद्यार्थियों को आमंत्रित किया जाता था। चांस्लर खुद इन छात्रों की सृजनात्मक प्रतिभा से रूबरू होते और उन्हें कुछ नया करने को प्रेरित करते। इस समागम में चोटी के विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। छात्र न केवल उन्हे सुनते बल्कि उनसे सवाल जवाब के जरिए अपनी शंका का समाधान भी करने की उन्हें छूट थी। बाद में कैंप में आमंत्रित विद्वानों के लेक्चर भारतीय विद्याभवन बांबे द्वारा छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित कराए जाते थे। इस तरह के समागम का उद्देश्य देश के विद्वतजनों और मेधावी छात्रों के बीच एक ऐसे सेतु का निर्माण करना था जिसके जरिए नए एकेडमिक एंबेस्डर तैयार हों और अध्ययनअध्यापन के क्षेत्र में उत्तरोत्तर समृद्ध होने का माहौल तैयार हो सके। पर दुखद और चिंतनीय बात यह कि केएम मुंशी के तिरोधान के साथ इस परंपरा को भी तिरोहित कर दिया गया।

परंपरा का संपोषण और संवर्धन करके कैसे दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय अपनी सफलता का परचम लहरा रहे हैं इसके लिए लेखक ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का एक अद्भुत दृष्टांत दिया है। “एक बार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कुछ लोगों का डेलीगेशन यूनिवर्सिटी देखने पहुंचा। इस दल ने वहां के चांसलर से मुलाकात की। वे अपने चैंबर में अकेले बैठकर एक पुस्तक पढ़ रहे थे। डेलीगेशन के एक सदस्य ने उनसे सवाल किया , कैसे यह यूनिवर्सिटी चल रही है ? चांसलर ने एक संक्षिप्त सा उत्तर दिया, “I am not running the university, Oxford university is being run on tradition ( इस यूनिवर्सिटी को मैं नहीं चला रहा हूं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी अपनी शानदार परंपराओं से चल रही है) डेलीगेशन सदस्य ने एक दूसरा और बहुत रोचक सवाल पूछा, “How are your lawns so beautiful ? ( आपका यह लॉन कैसे इतना सुंदर है ?) चांसलर का जवाब इस बारऔर भी शानदार और जबरदस्त था। उन्होंने उत्तर दिया ‌By mowing and rolling for 900 years ( इस लॉन की सुंदरता बीते 900 सालों के निरंतर प्रयास का प्रतिफल है) इस दृष्टांत के जरिए लेखक ने भारतीय विश्वविद्यालयों में क्षरित हो रही स्वस्थ परंपराओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। यहां किस तरह बहुतेरे वाइस चांसलर दूसरे कुलपति ( प्रयोगधर्मी और नवोन्मेषी) के अच्छे प्रयासों को आगे बढ़ाने के बजाय उसे नजरअंदाज करने या बेमौत मारने में ही अपनी ऊर्जा खपाते रहते हैं इसके ढेर सारे उदाहरण इस पुस्तक में मौजूद हैं।

छात्र केंद्रित क्यों नहीं हैं विश्वविद्यालय ?

जिन विश्वविद्यालयों को विद्यार्थी केंद्रित होना चाहिए वे किस तरह उनके हितों की उपेक्षा करते हुए आर्थिक दोहन के केंद्र बनते जा रहे हैं इस पर गहरी चिंता जताई गई है और विश्वविद्यालय में कभी शुरू की गई स्वस्थ परंपराओं को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाए जाने पर बल दिया है। यह पुस्तक किसी ऐसे युटोपिया या आदर्शलोक की बात नहीं करती जिसे साधना या उसका क्रियान्वयन एक दिवास्वप्न की तरह हो। इसमें उन प्रयोगों का जिक्र है जिसे क्रियान्वित कर उसका आश्चर्यजनक परिणाम देखा जा चुका है। एक कुलपति चाहे तो विश्वविद्यालय को नवोन्मेष ( Innovation) की प्रयोगशाला बनाकर उसमें मानव रूपी ऐसे रत्न तराश सकता है जिनकी मेधा की खुशबू से देश ही नहीं सारा जहां सुरभित हो जाय। एक कुलपति का अपने विश्वविद्यालय में किस तरह लगाव (Involvement) और समर्पण होना चाहिए और उस समर्पण और लगाव के क्या चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं पुस्तक में इस तरह के ढेरों दृष्टांत संग्रहीत हैं। प्रोफेसर भूमित्रदेव का इस पुस्तक के माध्यम से एक ही संदेश है कि विश्वविद्यालयों में जिस भी कुलपति या प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक ने जिन भी स्वस्थ परंपराओं की नींव डाली है उसे अविरल चलते रहना चाहिए। उसे इसलिए खारिज करके नेपथ्य में नहीं धकेल देना चाहिए कि वह उसके पूर्ववर्ती द्वारा शुरू की गई हैं, ऐसे में उसे आगे बढ़ाना उत्तराधिकारी कुलपति की तौहीन होगी।

प्रोफेसर भूमित्रदेव की यह पुस्तक विश्वविद्यालयों को छात्रोन्मुख ( Student centric) बनाने पर बल देती है। हमारे विश्वविद्यालय हर साल लाखों की संख्या में ग्रेजुएट्स पैदा कर रहे हैं पर वे बेरोजगारी का दंश झेलने को अभिशप्त हैं। बहुतेरे रोजगार के काबिल भी नहीं हैं। यानी जो शिक्षा मिल रही है वह सिर्फ कागजी डिग्री देने वाली है न कि काबिल बनाने वाली। खासतौर से तकनीकी शिक्षा और इंडस्ट्री में एक समन्वय होना चाहिए जो नहीं है इसीलिए ज्यादातर मामलों में युवाओं को मिलने वाली शिक्षा उन्हें सड़क पर ला खड़ा कर रही है। युवा पीढ़ी को निष्प्रयोज्य साबित करने वाली शिक्षा मिल रही है। प्रोफेसर भूमित्रदेव अपनी इस पुस्तक में जिस छात्रोन्मुख विश्वविद्यालय बनाने की बात की है उसका मकसद यह है कि विश्वविद्यालय के कुलपति हों चाहे शिक्षक उनके लिए छात्र पहली प्राथमिकता होने चाहिए। चाहे छात्रावास से जुड़ी उनकी समस्याएं हों या पठन-पाठन से उसे एक अभिभावक की तरह सुलझाना और समाधान करना होगा तभी विश्वविद्यालय में स्वस्थ परंपराएं अंकुरित होंगी। प्रोफेसर भूमित्रदेव की परिकल्पना में सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान वह है जहां शिक्षक और छात्र दोनों साथ साथ सीखते हैं। एक अच्छा शिक्षक अपने क्लास का सर्वश्रेष्ठ छात्र होता है। वह ज्ञात और अज्ञात के क्षितिज पर जब तक अपने को खड़ा हुआ नहीं मानेगा अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाएगा।

पुस्तक की भाषा :

जब लेखक का विजन साफ हो वह जो कहना चाहता है वह उसका आचरित सत्य है तो ऐसे में भाषा सहज, सुगम और संगीतमय हो जाती है। सरलता सशक्त अभिव्यक्ति की पहचान है। प्रोफेसर भूमित्रदेव विद्यार्थी जीवन से जमीन से जुड़े रहे हैं इसलिए उनकी दृष्टि बेहद साफ और कुछ नया करने के लिए सृजन के जोखिमों को उठाने की ताकत रखती है। मथुरा जिले के नीमगांव के मूल निवासी प्रोफेसर भूमित्र देव को कुछ नया करने की ताकत और सलाहियत अपने गांव की मिट्टी और अपने पिता से विरासत में मिली है। पुस्तक का सातवां चैप्टर Snake Bite and Campus Life उनकी अदम्य जिजिविषा के साथ साथ विश्वविद्यालयों की छात्रों के प्रति घोर उपेक्षा की करुण दास्तान है। अगर किसी व्यक्ति के सामने साक्षात मौत खड़ी हो और वह जिंदगी के बारे में चिंतित होने की जगह अपने मिशन के अधूरा रहने का पाश्याताप करे ऐसा करने वाला कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो सकता। अपने छात्रावासी जीवन में प्रोफेसर भूमित्रदेव जहरीले कोबरा के गहन दंश का शिकार हो गए। 20 दिन जीवन और मौत के बीच झूलते रहे मगर उन्हें अपनी जिंदगी से ज्यादा अपने मिशन के अधूरे रह जाने की चिंता सता रही थी। इस चैप्टर से गुजरते हुए बरबस आंखें नम हो जाती हैं। इस दास्तान के जरिए उन्होंने विश्वविद्यालय के छात्रावासों की दुर्दशा और वहां रह रहे छात्रों के प्रति इंतजामिया की घोर उदासीनता को रेखांकित किया है। इन सारे अनुभवों को समेटकर उन्होंने अपने कार्यकाल में कैंपस में छात्रहित में अभिनव प्रयोग किए।

लेखक ने अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने और पाठक पर अमिट छाप छोड़ने के लिए दुनिया के प्रसिद्ध विद्वानों, प्रख्यात अनुसंधानकर्ताओं और वैज्ञानिकों के प्रेरक कोटेशंस मणि मुक्ताओं की तरह प्रयोग किए हैं। यह पुस्तक सही मायनों में प्रोफेसर भूमित्रदेव की आत्मा का गान ( Song Of The Soul) है। उसका एक एक शब्द एक हलफनामा है।

पुस्तक के कुछ सुंदर अंश द्रष्टव्य हैं :

  • We are living in an age of guided missiles but misguided men.
  • In fact the students are not useless, they are used less, they are not careless but cared less.
  • When opinions differ, they need not be disagreeable ( मतभेद बिना मनभेद के)
  • It is clear that faster development in any university is possible only when its administration is fair and transparent following an open door policy with frequent interaction with students. (विद्यार्थियों से निरंतर संवाद, पारदर्शिता और खुली खिजडकी नीति अपनाने से ही विश्वविद्यालयों का तेजी से विकास हो सकता है)
  • Today we live in a knowledge based world which rests on four golden pillars : Information, Knowledge, Wisdom and intuition leading to the highest levels of creativity.
  • We save time but often reduced age.
  • Our knowledge transfer time has increased while our rumour time has diminished.
  • Less work but more network leads to faster success
  • We should be ready for modernization, but not trapped in the prevalent trend of westoxication.
  • Boredom has changed our early learners into late bloomers.
  • We see an increase in innovative methods of cheating, but decline in creative methods of teaching.

विश्वविद्यालयों के नैराश्य के वातावरण में यह पुस्तक उम्मीद की एक मशाल की तरह है। इसका एक ही संदेश है , माना की विश्वविद्यालयों में नैराश्य का वातावरण है मगर उम्मीद की किरण भी यहीं से फूटेगी। इस पुस्तक में प्रोफेसर भूमित्रदेव ने सेवक से लेकर शिक्षक, छात्र, मार्गदर्शक, स्वामी तक अपने उन सभी सहयोगियों, सहधर्मियों का जिक्र किया है जिन्होंने उनके सृजन के इस महायज्ञ में किंचित एक तिनका भी समिधा डाली है। इस पुस्तक के सृजन के पीछे उनकी मंशा पूरे समाज का वह कर्ज उतारना है जो उनके व्यक्तित्व के निर्माण में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से शामिल रहा है। विश्वविद्यालयों के प्रति चिंता जताते हुए उनके सुधार की दिशा में यह पुस्तक अप्रतिम रूप से एक दिशा देने वाली है।

गोरखपुर यूनिवर्सिटी का दृष्टांत :

हमारे विश्वविद्यालय जिन्हें अध्ययन, अध्यापन, शोध और नवोन्मेष के केंद्र होने चाहिए वहां इन क्षेत्रों में उबासी और उदासी का माहौल है। अध्ययन, अध्यापन और शोध तीनों उबाऊ और समय काटने का सबब बन गए हैं। पुस्तक के लेखक ने आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति रहते हुए इस दिशा में एक अभिनव प्रयोग किया था। यह प्रयोग था विश्वविद्यालय के टॉपर्स के नाम पर वृक्षारोपण करने और अच्छे शोध को शोधार्थी की क्रेडिट के साथ सार्वजनिक रूप से डिस्प्ले करने का। इस छोटे से प्रयास ने विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल को ऊर्जा से भर दिया। विश्वविद्यालय के शिक्षण को कैसे उबाऊ और थकाऊ होने से बचाया जा सकता है और छात्रों को कक्षाओं के प्रति आकर्षित किया जा सकता है इसके लिए अनेक वैज्ञानिक तरीके सुझाए गए हैं। लेक्चर के दौरान समझाने के लिए प्रयोग किए गए विजुअल माध्यम विश्वविद्यालयों के छात्रों के भ्रम और कन्फ्यूजन को दूर कर विषय को बेहतर समझने में सहायक हो सकते हैं इसका प्रायोगिक अनुभव पुस्तक में साझा किया गया है। इस तरीके को ब्रेवो मेथड ऑफ टीचिंग (BRAVO यानी, Brachial,Audio-Visual Oral )नाम दिया गया है। यह तकनीक विद्यार्थियों की एकाग्रता और स्मृति दोनों की वृद्धि में सहायक और उपयोगी पाई गई है।

हमारे चारो ओर का समूचा परिवेश किस तरह से बदल गया है, अगर उसे समझते हुए तदनुरूप विश्विवद्यालयों के शैक्षणिक माहौल में आमूल-चूल सकारात्मक बदलाव नहीं किया गया तो विश्वविद्यालय अपनी आभा और उपयोगिता दोनों खो देंगे। इसके लिए पुस्तक में दिए गए टिप्स विश्वविद्यालयों को सुधारने में आने वाली चुनौतियों से निपटने की नई राह दिखाते हैं। पर दुखद यह है कि चीटिंग यानी धोखाधड़ी के लिए नित नए तरीके तो निकाले जा रहे हैं मगर अध्यापन के रचनात्मक तरीके दिनोंदिन गिरावट की ओर अग्रसर हैं। पढ़ने की आदत में क्रमागत ह्रास नियम लागू है जबकि मोबाइल फोन और टेलीविजन की ओर झुकाव में दिनोंदिन इजाफा हो रहा है। किसी विषय पर एकाग्र करने की जो हमारी क्षमता थी उसमें भी काफी गिरावट आई है। स्वार्थपरता सामाजिक सरोकारों से दूर करती जा रही है। हम बौद्धिक रूप से भले ही बढ़ रहे हैं मगर भावनात्मक आध्यात्मिक रूप से अकिंचन होते जा रहे हैं। विश्वविद्यालय इन सारे अवयवों से बनता है। उसे इसी तरह की स्वस्थ परंपराएं बनाती हैं। किसी भी राष्ट्र के निर्माण में वहां के विश्वविद्यालयों का दायित्व बहुत बड़ा होता है। वहां नस्लें गढ़ी जाती हैं।

वह समृद्ध परंपराओं के सृजन और उन्नयन की उर्वर भूमि है। जिस तरह के मेधासंपन्न और चेतना संपन्न लोग विश्वविद्यालयों में अध्ययन, अध्यापन के लिए चयनित किए जाते हैं उनका यह दायित्व है कि वे अपने अधिकारों के प्रति जितने सजग हैं उतने ही सजग और ईमानदार अपने कर्तव्यों के प्रति भी हों। प्रोफेसर भूमित्रदेव की यह पुस्तक विश्वविद्यालय के कुलपति से लेकर छात्र और मुलाजिम तक सबके लिए एक लेशन देने वाली, दिशा देने वाली है। इसमें विश्वविद्यालय में आए दिन आने वाली समस्याओं का तर्कसंगत और संजीदा समाधान है। सही मायनों में यह ऐसी पुस्तक है जिसे विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, शिक्षकों और विद्यार्थियों सबको पढ़नी चाहिए। पुस्तक यह समाधान देती है कि कैसे डिजिटल होती इस दुनिया में हम वैश्विक चुनौतियों के प्रति अपने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों कौ तैयार करें। पुस्तक में एकेडमिक और प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर साक्षात्कार देने के तरीके के टिप्स देने के लिए विश्वविद्यालयों के दायित्व को याद दिलाया गया है। कैसे यूनिवर्सिटीज और इंडस्ट्री के बीच समन्वय बनाया जाय, इन पर फोकस है। सही मायनों में इस पुस्तक में विश्वविद्यालयों को छात्र केंद्रित (Student Centric)बनाने और उसके अनुरूप पूरे कैंपस में माहौल बनाने के नायाब विजन है।


प्रोफेसर भूमित्रदेव एक परिचय :

प्रोफेसर भूमित्रदेव
  • गोरखपुर, बरेली, आगरा और अलीगढ़ विश्वविद्यालयों के कुल मिलाकर छह बार कुलपति रह चुके हैं
  • राजस्थान, असम और उत्तर प्रदेश की यूनिवर्सिटीज में विभागाध्यक्ष और प्रशासनिक पदों पर रह चुके हैं
  • हाईस्कूल से लेकर एमएससी तक टॉपर रहे हैं।
  • अपनी पढ़ाई के दौरान उन्हें आधा दर्जन से अधिक गोल्ड और सिल्वर मेडल मिले हैं।
  • लखनऊ विश्वविद्यालय में सभी संकायों ( आर्ट, साइंस, कामर्स फैकल्टी) में टॉप करने के लिए चांसलर मेडल से नवाजा जा चुका है।
  • छह फेलोशिप के लिए कनाडा, यूके, फ्रांस, जर्मनी और यूएसए में चयनित होने का गौरव हासिल है।
  • अमेरिका में कम्युनिटी कॉलेजों के अध्ययन के लिए भेजे गए शिष्टमंडल के सदस्य नामित रह चुके हैं।
  • 11 देशों में 75 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं ।
  • 21 पीएचडी, स्कॉलर्स के शोध सुपरवाइजर रह चुके हैं।
  • किडनी की फिजियोलाजी से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय समस्या का समाधान का फार्मूला देने का श्रेय उन्हीं को है।
  • तीन पुस्तकें और 100 से अधिक लेख अब तक प्रकाशित हो चुके हैं।
  • अध्ययन, शोध और चिंतन पर उम्र का कोई प्रभाव नहीं है। वह अहर्निश जारी है।

 

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