नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करने के लिए करें, वर्ष के प्रथम दिन संवत्सर की पूजा 

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आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र

आजकल जो पंचांग उपलब्ध है उसे विक्रम संवत और शक संवत का उल्लेख किया जाता है और काल विवेचन में इसी से सहायता प्राप्त की जाती है। अनुसंधान मंजुषा ग्रन्थ के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अत्यंत पवित्र तिथि है और यह तिथि सुपूजित तिथि के रुप में मान्य है। पौराणिक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा ने इसी दिन समस्त संसार की रचना की थी इसलिए इस दिन सृष्टि के प्रधान – प्रधान देवी, देवताओं,यक्ष- राक्षस, गन्धर्वों,ऋषि मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों,पशु पक्षियों और किटाणुओं का ही नहीं – रोगों और उनके उपचारों का भी पूजन किया जाता है।कहने का आशय है कि ब्रह्मा के साथ चराचर सृष्टि की पूजा वर्ष के प्रथम दिन किया जाता है। विष्णुधर्मोत्तर के अनुसार संवत्सर सर्वप्रधान और महामान्य है।

हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार 22 मार्च से नया वर्ष प्रारंभ हो रहा है। इसी दिन बासन्तिक नवरात्र भी शुरू होगा। उत्तरी भारत में ऐसी मान्यता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना इसी दिन की थी। इसी को दृष्टिगत करते हुए महाराज विक्रमादित्य ने इसी दिन से अपने पंचांग की शुरुआत की थी। कुछ संभागों को छोड़कर प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसी दिन से नया वर्ष माना जाता है।हलांकि गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ अंचलों में वर्ष की शुरुआत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से भी माना जाता है।

जाने किसे कहते हैं संवत्सर

संवत्सर उसे कहते हैं जिसमें मास – दिन और समस्त समय भलीभांति निवास करते हैं।जिस प्रकार महिने के चान्द्रादि तीन भेद हैं ,उसी प्रकार संवत्सर के भी सौर, सावन और चान्द्र- ये तीन भेद हैं। संवत्सर 12 महिने का होता है परन्तु अधिक मास से चान्द्र मास तेरह हो जाते हैं।वैसे संवत्सर 12 महिने का ही होना चाहिए।इसके लिए स्मृतिकारों ने समाधान किया है।बादरायण ने 30 – 30 महिने को दो महिने नहीं माने हैं। उन्होंने 60 दिन का एक महिना माना है। इसलिए संवत् के बारह महिने ही होते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार संवत्सर के सौर, सावन,चान्द्र, बार्हस्पत्य और नाक्षत्र- ये पांच भेद है।चान्द्र संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।इस पर यह प्रश्न उठता है कि जब चान्द्र मास कृष्ण प्रतिपदा से प्रारंभ होता है तो संवत्सर शुक्ल पक्ष से क्यों ? इसका समाधान है कि कृष्ण पक्ष के आरंभ में मलमास आने की सम्भावना रहती है और शुक्ल पक्ष में नहीं रहती है।इस कारण संवत्सर की प्रवृत्ति या आरंभ कहें, शुक्ल प्रतिपदा से ही अनुकूल रहती है।

ब्रह्मा ने शुक्ल प्रतिपदा से किया सृष्टि निर्माण

इसके अतिरिक्त पौराणिक मान्यता के अनुसार इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का आरंभ इसी शुक्ल प्रतिपदा से किया था और इसी दिन मत्स्यावतार का आविर्भाव तथा सतयुग का आरंभ इसी दिन हुआ था। इस महत्व को देखते हुए सार्वभौम सम्राट विक्रमादित्य ने अपने संवत्सर का आरंभ ( आज से दो हजार से कुछ अधिक) चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से किया था। इसमें संदेह नहीं है कि विश्व के समस्त संवत्सरों में शालिवाहन शक और विक्रम संवतसर  ये दोनों उत्कृष्ट हैं। परन्तु शक का प्रयोग गणित में ज्यादा किया जाता है और विक्रम संवत् का प्रयोग गणित, फलित,लोक व्यवहार और धर्मानुष्ठानों के समय ज्ञान आदि में अमिट रूप से उपयोग और आदर किया जाता है। आरंभ में प्रतिपदा लेने का प्रयोजन है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि आरंभ किया, तब उन्होंने इसको प्रवरा ( सर्वोत्तम) तिथि घोषित किया।आज भी इस तिथि को अबूझ मुहूर्त कै रुप में देखा जाता है।यह सर्वोत्तम तिथि है। इसमें संवत्सर का पूजन, नवरात्र घट- स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्यंग- स्नान, वर्षेश का फलपाठ, परिभ्रमण का पत्र- प्राशन, और प्रपा- स्थापन ( प्याऊं लगवाना)आदि लोक प्रसिद्ध और विश्वोपकारक अनेक कार्य किए जाते हैं।

संवत्सर महोत्सव पूर्णतः वैज्ञानिक

इस दिन संवत्सर का महोत्सव मनाया जाता है। ईसाई समाज पहली जनवरी को नववर्ष मनाते हैं लेकिन भारतीय समाज और धर्म में पहली जनवरी कै नववर्ष मनाने की परम्परा नहीं रही है।यह तो ब्रिटिश काल से प्रारंभ हुआ और ग्रोगेरियन कैलेंडर की शुरुआत अंग्रेजों के भारत में आगमन के पश्चात ही प्रारंभ हुआ था। लेकिन यह अवैज्ञानिक है।पहली जनवरी के आसपास न ही ऋतुओं का परिवर्तन होता है और न ही काल गणना की दृष्टि से कोई महत्वपूर्ण समय ही है। बसन्त ऋतु को सर्वोत्तम ऋतु के रूप में परिभाषित किया गया है और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा बसंत ऋतु में ही रहता है। इसलिए नववर्ष के प्रारंभ की भारतीय प्रणाली वैज्ञानिक और लोकप्रणाली – दोनों ही दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाता है।

संपूर्ण देवताओं का पृथक- पृथक अथवा एकत्र यथा विधि पूजन किया जाता है। इस दिन विभिन्न प्रकार की उत्तम भोज्य पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद एक समय स्वयं भोजन करें। पूजन के पश्चात नवीन पंचांग से वर्ष के राजा, मंत्री, सेनाध्यक्ष, धनाधिप, धान्याधिप, दुर्गाधिप, संवत्सर निवास और फलाधिप आदि का फल सुनना चाहिए।अपने निवास स्थान को ध्वजा,पताका,तोरण, और बंदनवार आदि से सुशोभित करें। द्वारदेश और देवी पूजा के स्थान में सुपूजित घट स्थापना करें। परिभद्र के कोमल पत्तों और पुष्पों का चूर्ण करके उसमें काली मिर्च, नमक, जीरा और अजवाइन मिलाकर भक्षण करें। नीम्ब के कोमल पत्तों को भी खाना चाहिए।यदि सामर्थ्य हो तो प्याज़ की भी स्थापना करें। इस प्रकार करने से राजा, प्रजा और साम्राज्य में वर्ष पर्यंत व्यापक शांति रहती है और घर से नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है।

संवत्सर पूजन का विधान

ब्रह्माण्ड पुराण में संवत्सर पूजन के विषय में निर्देश मिलता है। संवत्सर पूजन‌ चैत्र शुक्ल को किया जाता है।यदि चैत्र मे अधिक मास आ जाए,तो अधिक मास को छोड़कर दूसरे चैत्र ( शुद्ध चैत्र मास) में संवत्सर पूजन करना चाहिए। इसमें सर्वव्यापिनी प्रतिपदा ली जाती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उस दिन उदय में जो वार हो , वही उस वर्ष का राजा होता है। यदि उदय व्यापिनी दो दिन हो या दोनों दिन में ही न हो, तो पहले दिन जो वार हो , वह वार ही वर्ष का राजा होता है।कभी कभी देखा जाता है कि चैत्र मास में मलमास आ जाता है,उस समय संवत्सर पूजन आदि का कार्य शुद्ध चैत्र में किया जाता है।मलमास में कृष्ण पक्ष के काम पहले महिने में और शुक्ल पक्ष के काम दूसरे चैत्र महिने में करना चाहिए। जैसे शीतला पूजन पहले चैत्र में और नवरात्र तथा गौरी पूजन दूसरे चैत्र में किया जाता है।

कैसे करें संवत्सर पूजा

 

इसके लिए बताया गया है कि इस दिन अत्यंत प्रातःकाल उठकर नित्यक्रिया से निवृत्त होकर संकल्प करें–” मम सकुटु्ंबस्य सपरिवारस्य स्वजन परिजन सहितस्य आयु आरोग्य ऐश्वर्य सकल शुभफल अभिवृद्धयर्थं ब्रह्मादि संवत्सर देवतानां पूजनं करिष्ये।” यह संकल्प करके एक नवनिर्मित चौकी पर या बालू की बेदी बनाकर वस्त्र बिछाएं।उस पर हल्दी या केसर से रंगे हुए अक्षतों से अष्टदल कमल रेखांकित करें।अष्टदल कमल के मध्य में चांदी की निर्मित ब्रह्मा की मूर्ति या अभाव में केवल सुपारी रखकर ब्रह्मा जी की स्थापना करें। पुनः”ऊं ब्रह्मणे नमः ” इस नाम मंत्र से ब्रह्मा जी का आवाहन,आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान,वस्त्र, यज्ञोपवीत,गंध,अक्षत, पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य,आचमन, तांबूल, दक्षिण, पुष्पांजलि और प्रार्थना करें।

तिलक व्रत का विधान

भविष्य पुराण में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को तिलक व्रत करने का विधान मिलता है। इसके निमित्त नदी या तालाब के तट पर जाकर अथवा अपने घर पर ही संवत्सर की मूर्ति बनाकर संवत्सराय नमः , चैत्राय नमः बसंताय नमः आदि नाम मंत्रों से पूजन करके विद्वान ब्राह्मणों को कुछ दान करने का विधान है। इस प्रकार प्रत्येक शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ कर प्रत्येक शुक्ल प्रतिपदा का व्रत वर्ष पर्यंत करने से समस्त बाधाएं शांत हो जाती हैं। विष्णुधर्मोत्तरा में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भी आरोग्य व्रत करने के विषय में निर्देश है। इसमे सूर्य का ध्यान करें और सूर्यनारायण को चीनी, दूध भात और मिष्ठान अर्पण करने का विधान है। अर्पित समस्त सामग्री को दान करने से और एक वक्त भोजन करने से निरंतर वर्ष पर्यंत आरोग्यता बनी रहती है।

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