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अंकों का आविष्कार भारतीय मनीषियों की देन
अंक शास्त्र का प्रचार प्रसार में पश्चिमी विद्वानों का बड़ा योगदान है। हालांकि अंको का ज्ञान भारतवर्ष की देन है। आर्यभट्ट प्रथम अंक शास्त्र के जनक माने जाते हैं। पूर्व में भी यजुर्वेद में अंको का विवरण मिलता है। कालांतर में पाश्चात्य विद्वान सेफर रियल, कीरो, मानटरस और संत जरमिन इसे स्वतंत्र विद्या के रूप में विकसित किया। इन विद्वानों ने अपने अंक संबंधी विशेष अध्ययन और अनुभवों को पुस्तक रूप में अभिव्यक्त कर अंक शास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर पाठक जी का कथन है कि अंक शास्त्र वर्तमान युग की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। राशियों, नक्षत्रों योगों, करणों, दिनों- इन सबको अंक में ही निरूपित किया गया है। जिसकी संपूर्ण परिगणना अंकों में ही अभिव्यक्त है। कितने नक्षत्र, कितने अंश, कला, विकला इत्यादि को अंक में ही समाहित किया गया है।
प्राचीन काल से अंक के ज्ञान के अभाव में कुछ भी संपादित नहीं किया जा सकता है। हमारे देश में भी अंकशास्त्र के अनेक विद्वान वर्तमान में है। और उन्होंने अनेक ग्रंथों का वर्णन किया है। अंक शास्त्रियों का कथन है कि मूल रूप में समस्त शब्द ब्रह्म के रूप है। प्रत्येक शब्द एकाधिक आवृत्ति के उपरांत ही पूर्णता को प्राप्त होता है। इसी कारण शब्द और संख्या में घनिष्ठ संबंध है। इसलिए जिस प्रकार समस्त पदार्थों के में शब्द है उसी प्रकार अंक भी समाहित है।
शब्द और अंक के मूल शून्य कहते हैं। शून्य निष्क्रिय, निराकार, निर्विकार ब्रह्म का द्योतक है। शून्य से शब्द और अंक का प्रादुर्भाव होता है। शून्य आकाश का ही प्रतिरूप है और आकाश शब्द का जन्मदाता। इसीलिए शून्य के द्वारा 9 अंकों को उत्पत्ति हुई है, जिन्हें क्रमशः 1,2,3,4,5,6,7,8,9 के रूप में जाना जाता है। सभी अंक क्रमागत आवृत्ति के उपरांत पुनः शून्य पर आकर समाप्त हो जाते हैं ।दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शून्य आत्मा है और सभी अंक इसके शरीर रूप हैं, जो क्रमशः परिवर्तित होकर दूसरा स्वरूप धारण करते हैं और अंततः उसी शून्य में विलीन हो जाते हैं। शून्य समस्त अंकों का जन्मदाता होने के कारण साक्षात ईश्वर के रूप में स्मरण किया जाता है।
परिभाषा उद्भव एवं विकास
अंक शास्त्र अंको का विज्ञान है। इसमें अंको को भिन्न-भिन्न प्रकार से अध्ययन करके मानव जीवन पर प्रभाव का अध्ययन होता है। अंक का गणित की शाखा सांख्यिकी से संबंध है। जिस प्रकार सांख्यिकी में एक महत्वपूर्ण नियम की प्राथमिकता के लिए विभिन्न आंकड़े एकत्र करके उनके विश्लेषण के उपरांत ही किसी स्थिर परिणाम पर पहुंचा जाता है, उसी प्रकार से अंक शास्त्र में अंकों के गुण दोषों के आधार पर किसी स्थिर परिणाम पर पहुंचा जाता है और व्यक्तिगत घटनाओं पर प्रकाश डाला जाता है। इस प्रक्रिया में जातक के जीवन संबंधी आंकड़ों (जन्म तिथि, जन्म समय, पारिवारिक स्थिति) आदि को आधार बनाकर, अंकों द्वारा वर्तमान, भूत और भविष्य का फलादेश, अंकों का विश्लेषण कर फलादेश करते हैं। प्रत्येक कार्य के लिए निर्धारित की गई संख्याओं को देखकर यह प्रतीत होता है कि अंकशास्त्र भारतीय दैवज्ञो की देन है। इसका जन्म भारत वर्ष में हुआ जबकि विकास पाश्चात्य विद्वानों के संरक्षण में हुआ है।
तात्विक विवेचन
हम पाते हैं कि 108 मणियों की माला का उपयोग प्राचीन समय से संप्रति मान्य है। सूर्य 1 वर्ष में 360 अंश(खगोलीय वृत्त) पूर्ण कर लेता है ।कलाएं 21600 होती हैं ।1वर्ष में दो अयन होते हैं। एक अयन 10800 कला का होता है। दैनिक जीवन में भी संख्या (अंक) का बहुत महत्व है। दिन,मास, वर्ष, घंटे, मिनट और लेन-देन के अतिरिक्त समस्त कार्य अंक में किए जाते हैं। अंक शास्त्रियों ने अंकों के आपसी संबंध अर्थात स्वामी, मित्र, सम, अधिमित्र और अधिशत्रु शत्रु का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया है।
अंक 1 का स्वामी सूर्य उसका मित्र अंक 5 , सम अंक 3, 9, 4 और शत्रु अंक 8 है। अधिमित्र 2 और 7 हैं और अधिशत्रु 8 है। इसी प्रकार चंद्रमा का अंक 2 हैं। इसका मित्र अंक 1, 4 ,3 है। शत्रु 7, 9 है। अधिमित्र 5 है और उसका कोई अधिशत्रु नहीं है। बृहस्पति का अंक 3 है। इसका मित्र अंक 8 है। सम अंक 1, 4 । अधिमित्र 2, 7, 8 और अधिशत्रु 6, 5 है। हर्षल का अंक 4 है। इसका मित्र अंक 5 है। 3 और 9 सम। 1 और 6 शत्रु। अधिमित्र 2 और 7 और अधिशत्रु 8 है।
इसे सभी स्वीकार करते हैं कि विश्व में सर्वप्रथम अंको का ज्ञान भारतीयों को हुआ था। कालांतर में यह बेबीलोन से होते हुए पश्चिम के देशों में गया। वहां सर्वप्रथम चैल्डील्स नामक पाश्चात्य ज्योतिषी ने भारतीय अंक शास्त्र से प्रभावित होकर उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर पाश्चात्य अंक शास्त्र का आविष्कार किया। अष्टक वर्ग पद्धति भारतीय अंक विज्ञान का परिष्कृत स्वरूप है। अंक शास्त्रियों ने अनुभव व शोध के आधार पर विभिन्न मान्यताओं को स्थापित किया। उनकी मान्यताओं में अल्प अंतर है, परंतु अंतिम निष्कर्ष सब का समान है। यह निरंतर प्रगति पर आरुढ़ है। इसके विकसित प्रारूप का उपयोग भूत, वर्तमान और भविष्य जानने में सर्वमान्य है।
कुंडली के अंकों से जानें ग्रहों का हाल
इसी प्रकार अंक शास्त्र में एक से लेकर 9 अंक के पृथक-पृथक गुणधर्मों और जातकों के स्वभाव, रूप, रंग, व्यवसाय, क्रिया कलापों, उनके उत्तम वर्षों, मास , दिन तथा अरिष्ट वर्ष, मास, दिन की व्याख्या की गई है। सम्प्रति इस शास्त्र पर अनेक पुस्तकें कुछ प्रामाणिक ग्रंथों के आधार पर और कुछ वर्तमान खोज और अनुसंधान के आधार पर उपलब्ध है। बुध ग्रह का अंक 5 है। इसका मित्र अंक 3 है। सम अंक 2, 7 और 6 है। शत्रु अंक 8 और 9 है। अधिमित्र 1 और 4 का अंक है। 6 अंक का स्वामी शुक्र ग्रह है। इसका मित्र अंक 3 है। सम अंक 1, 2 ,4 ,5 ,7 ,8 है। 9 शत्रु अंक है। इसका कोई अधिमित्र और अधिशत्रु नहीं है। अंक 7 का स्वामी नेपच्यून ग्रह है।
इसका मित्र अंक 3 और 6 है सम अंक 1 और 4 हैं। शत्रु अंक 2 और 9 है। अधिमित्र 5 है। जिसका कोई अधिशत्रु नहीं है। 8 के अंक का स्वामी शनि ग्रह इसका मित्र अंक 3 है। सम अंक 2, 5 , 6, 7 और 8 है। जिसका कोई शत्रु और अधिमित्र नहीं है। अधिशत्रु 1 और 4 है। इसी तरह 9 का अंक मंगल ग्रह का है। इसका मित्र अंक 8 है ।सम अंक 1, 2, 3, 4, 7 अंक है। इसका कोई अधिमित्र अंक नहीं है। शत्रु अंक 6 और अधिशत्रु 5 है। अंक ज्योतिष शास्त्र में तीन प्रकार के अंको का प्रयोग किया जाता है। मूलांक, भाग्यांक और नामांक। किसी जातक के बारे में जानने के लिए सर्वप्रथम जातक की जन्म तिथि और नाम मालूम होना चाहिए।
यह जानने के लिए कि कौन सी तिथि शुभ होगी तो इसके लिए है कि 2-11-20 तिथियां प्रत्येक माह की शुभ होगी। यह तिथि यदि सोमवार के दिन पड़ जाए तो और अधिक शुभ रहेगी। क्योंकि सोमवार के दिन का अंक 2 है। इसी क्रम से यह तिथियां फरवरी के महीने ( साल का दूसरा महीना) की होंगी तो अधिक शुभ कहीं जायेगी। यदि जातक का शुभ महीना जानना हो तो इसको दो प्रकार से देखा जाएगा। एक तो जातक के आयु के आधार पर और द्वितीय वर्ष के अंकों के आधार पर, जैसे 2 अंक के लिए उसकी आयु के सभी अंकों का योग 2 हो। 2, 11, 20, 29, 38, 47, 56, 65, 74 वर्ष शुभ माना जाएगा। दूसरे आधार पर वर्ष 1964-1973-1982-1991-2000-2009-2018-2022 आदि शुभ रहेंगे। यदि आयु और वर्ष दोनों ही मेल के रहते हैं तो वह वर्ष सर्वोत्तम होता है।
मूलांक और भाग्यांक
जन्मतिथि के आधार पर जातक का मूलांक और भाग्यांक ज्ञात किया जाता है। जन्मतिथि में से यदि सिर्फ तिथि की अंको को जोड़ दिया जाता तो मूलांक ज्ञात होता है। जैसे यह 11 – 7 – 1964 में मूलांक हेतु 11 में 1 + 1 = 2 अर्थात मूलांक 2 होगा। भाग्यांक निकालने के लिए जन्म तिथि को माह और वर्ष को साथ-साथ जोड़ा जाता है। अर्थात 1 + 1 + 7 + 1 + 9 + 6 + 4 = 29 = 2 + 9 = 11 = 1 + 1 = 2 होगा। अर्थात इस जातक मूलांक और भाग्यांक 2 ही है। अंक का अधिष्ठाता ग्रह चंद्रमा है। अतः अंक विज्ञान के अनुसार जातक का स्वभाव, शारीरिक गठन, भाग्य आदि सभी कुछ चन्द्रमा के आधार पर निश्चित किया जाएगा।