जानें सनातन धर्म के अनुसार त्रिपिंडी श्राद्ध का क्या है महत्व

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आचार्य पं शरदचन्द्र मिश्र, अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी

ऐसी मान्यता है कि त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों की तथा प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद दु:ख संतप्त आत्माओं को मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए पितृपक्ष में वाराणसी के पिशाच मोचन पर भीड़ लगी रहती है। काशी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है। यह कहा जाता है कि भगवान शिव ने सृष्टि का कार्य यहीं से प्रारम्भ किया था। यहां‌ जो मनुष्य अन्तिम सांस लेता है वह मोक्ष प्राप्त करता है। यही कारण है कि लोग अपने अन्तिम समय में काशी में जाकर बस जाते हैं। त्रिपिंडी श्राद्ध करने से प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद व्याधियों से मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए पितृपक्ष और अन्य समय में श्राद्ध करने के लिए पिशाच मोचन पर भीड़‌ लगी रहती है। इसके अतिरिक्त देश के अन्य पितृ तीर्थों पर भी आत्माओं की मुक्ति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करने के लिए गमन करते रहते हैं। श्राद्ध की इस विधि का वर्णन गरुड़ पुराण और वायुपुराण में वर्णित है। काशी में स्थित पिशाच मोचन का वर्णन शास्त्र में उल्लेखित है। काशी खण्ड की मान्यता के अनुसार पिशाच मोचन का महत्व सर्वोपरि है।

सनातन धर्म पुनर्जीवन में विश्वास करता है। जीवन की संसृति की प्रक्रिया मोक्ष प्राप्ति के पूर्व चलती रहती है। जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख दुख का भोग करता रहता है। शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात जीवात्मा नये शरीर का निर्माण कर जीवन की प्रकिया को संचालित करता रहता है। मात्र यह जीव के एक बार जन्म लेकर समाप्त नहीं होता है। सेमेटिक धर्मानुयाई मानते हैं कि एक बार ही मनुष्य जन्म लेता है और अपने सुकर्मो और दुष्कर्मों‌ के अनुसार कयामत के फैसले के अनुसार सुख दुख प्राप्त करता है लेकिन भारतीय मान्यता ऐसा नहीं है। भारतीय पृष्ठभूमि से उपजे समस्त धर्म पुनर्जीवन में विश्वास करते हैं। प्राचीन यूनान और मिस्र में पुनर्जन्म की अवधारणा थी। संसार के बहुत से समाजों में आज भी इस विचार के अनुपोषक है।

मीमांसा दर्शन कहता है संसार कर्म से चल रहा है। मीमांसकों ने कर्म को ही संसार के संचालनकर्ता की संज्ञा दी है। जिन धर्मों में ईश्वर का निषेध है उनमें भी पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया गया है जैसे बौद्ध और जैन धर्म। ग्रह गोचरों का सिद्धांत भी कहता है कि कर्मो के फल का संचालन करने वाला हमारा अपना कर्म है। थियोसाफिकल सोसायटी और तिब्बत के लामाओं ने इस पर बहुत अनुसंधान किया है और इस पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान्यता दी है। जीवात्माओं में बहुत सी आत्माएं होती है जो मृत्यु के पश्चात भटकती रहती हैं। इसके अतिरिक्त हमारे पितरगण भी पितर लोक में निवास करते हैं।वे अपने सन्तानों से कुछ अपेक्षा रखते हैं। उनकी सन्तति उन्हें श्रद्धा के रुप में कुछ अर्पण करती हैं। जो कुछ उन्हे अर्पण किया जाता है उनमें जलांजलि और पिण्ड दान प्रमुख है।

ऐसा माना जाता है कि यदि लगातार तीन वर्षों तक पितरों का श्राद्ध न किया जाए तो पितर क्रुद्ध हो जाते हैं। कुछ लोगों का कथन है कि त्रिपिंडी श्राद्ध का मतलब तीन पीढी (पिता- माता, दादा जी- दादी जी,परदादा- परदादी) को सन्तुष्ट करना होता है। परन्तु यह श्राद्ध केवल तीन पीढ़ियों के लिए ही नहीं है, इसमें अस्मद् कुले मातामह, मातृ पक्ष, ससुराल कुल और अन्य रक्त से सम्बन्धित लोग भी सम्मिलित हैं। काशी के पिशाश मोचन में में एक विशाल पीपल का वृक्ष है। मान्यता है कि इस पर अतृप्त आत्माओं को‌ बिठाया जाता है। इसके लिए पेड़ पर एक सिक्का रखा जाता है ताकि पितरों का ऋण चुकता हो जाए। प्रेत बाधाएं तीन प्रकार की होती है।

इसमें सात्विक,राजस और तामस शामिल हैं। इन तीन प्रकार की बाधाओं से मुक्ति दिलवाने के लिए सफेद, लाल और काले झण्डे का आरोपित किया जाता है। इसमें शान्ति के लिए तीनों देवताओं को तृप्त किया जाता है। कुण्डली में यदि पितृदोष परिलक्षित होता है तो उसकी शान्ति के लिए पितृ तीर्थ पर जाकर तर्पण और श्राद्ध किया जाता है। त्रिपिंडी श्राद्ध का अर्थ है कि पीछली तीन पीढ़ियों के पूर्वजों के लिए पिण्डदान। यदि पीछे की तीन पीढ़ियों में किसी की कम उम्र में मृत्यु हो जाती है तो उनके निमित्त त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है। इसके अतिरिक्त कोई भी मृत आत्मा जो अशान्त अवस्था में है उसके उद्धार के लिए भी यह श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। कभी कभी अकाल मृत्यु को प्राप्त आत्माएं समस्या का कारण बन जाती हैं। उन आत्माओं की मुक्ति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है।

कोई भी आत्मा जो शान्त नहीं है और अशांति के कारण शरीर का परित्याग कर चुकी है वे भविष्य में आने वाली पीढ़ियों से लगाव के कारण अन्य लोगों को परेशान कर सकती है। उनके उद्धार के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध का उद्देश्य पूर्वजो‌ के लिए उनके वंशजों द्वारा ईमानदारी से किया गया अनुष्ठान। त्रिपिंडी श्राद्ध एक ऐसा अनुष्ठान है जो भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यह काम्य श्राद्ध है। शास्त्रों में श्राद्ध के लिए 96 अवसरों की चर्चा की गई है और यह भी कहा गया है कि व्यक्ति को एक वर्ष में 72 बार अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध करना चाहिए। हम इसे नही कर पाते हैं। और यह भी है कि हम कई वर्षों तक श्राद्ध के माध्यम से तृप्त नहीं कर पातें है। इससे पुर्वजों की आत्मा दुखी होती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्वजों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यदि श्राद्ध का अनुष्ठान न किया जाए तो इस दोष के कारण विभिन्न प्रकार के कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यदि घर में प्रेतात्मा का निवास हो गया है तो भी श्राद्ध करके उस प्रेत आत्मा को शांत करना चाहिए।

जिस व्यक्ति की कुण्डली में ग्रहण योग या पितृदोष हो उसे यह श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। विवाहित और अविवाहित दोनो‌ं यह श्राद्ध कर सकते हैं। यह भी कहा जाता है अविवाहित महिलाएं इस श्राद्ध को न करें। परिवार को कोई भी व्यक्ति यह श्राद्ध कर सकता है। इस धार्मिक अनुष्ठान को किसी पवित्र स्थान पर करना चाहिए। यदि किसी कारण से पितृ तीर्थ तक नहीं जा सकते तो ऐसी स्थिति में तुलसी वृक्ष और अश्वत्थ वृक्ष (पीपल) के सान्निध्य में भी कर सकते हैं। लोग इसको गंगा नदी या पवित्र नदी के किनारे भी करते हैं। त्रिपिंडी श्राद्ध सपत्नीक किया जाता है। मध्य भारत में स्थित त्रयंम्बकेश्वर तीर्थ भी त्रिपिंडी श्राद्ध और पितृदोष की शान्ति के लिए श्रेष्ठ स्थान माना जाता है। अपने दिवंगत पितरों को भेंट श्राद्ध के माध्यम से अर्पण करने का महत्व है। नवरात्रि में यह श्राद्ध नहीं करना चाहिए। उस समय तीर्थ श्राद्ध भी न करें।यह भी विधान है कि यदि आप तीर्थ श्राद्ध के लिए जा रहें हैं तो पहले त्रिपिंडी श्राद्ध और पश्चात तीर्थ श्राद्ध करें।

प्रत्येक बारह वर्ष में कम से कम एक बार इस त्रिपिंडी श्राद्ध को अवश्य करें। इसमें हमारे पूर्वज प्रसन्न होते है और ग्रह दोष भी समाप्त होते हैं। पुरखों को तृप्त करने की परम्परा विश्व के समस्त संभागों में किसी न किसी रुप में व्याप्त है। श्राद्ध की परम्परा भारतवर्ष में वैदिक काल से ही प्रचलित है। पितरों की आराधना में ऋग्वेद की एक ऋचा में यम और वरुण के संवाद में उद्धृत है। तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितृ गण प्रलयपर्यन्त तक तृप्त रहते हैं। तुलसी की गन्ध से युक्त पिण्ड से पितरों को बहुत सुख मिलता है। श्राद्ध की साम्रगी अग्निष्वात आदि दिव्य पितरों के माध्यम से पूर्वजों को प्राप्त हो जाती है। अग्निष्वात आदि पितरों की ऐसी योनि हैं जो दूर की बात सुन लेतें है, दूर की पूजा ग्रहण कर लेतें है और दूर से की गई स्तुति से प्रसन्न हो जाते हैं। ये भूत, वर्तमान और भविष्य की समस्त बातें जानते हैं और वस्तुओं को सभी स्थानों पर पहुंचा देते हैं जैसे मनुष्यों का आहार, अन्न का सार तत्व गन्ध आदि। वे अन्न का सार तत्त्व ले लेते हैं और शेष वस्तुएं यही छोड़ देते हैं। यम स्मृति में कहा गया है कि श्राद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है। वंशवृद्धि और समृद्धि के लिए श्राद्ध ही एकमात्र साधन है।

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