एक बौद्ध भिक्षु को अपनी तपसाधना पर अहंकार हो गया। वे चारो ओर घूम घूम कर अपना प्रचार करने लगे। उन्हें बौद्ध धर्म के प्रचार से कोई मतलब नहीं रह गया। वे जिस नगर में भिक्षा के लिए निकलते वहां अपने ज्ञान का अहंकार बघारते। विनम्र होकर भिक्षा के लिए किसी गृहस्थ के दरवाजे खड़ा होना बौद्ध धर्म का नियम है। लेकिन अहंकारी भिक्षु इस नियम का पालन नहीं करते थे। उनके अहंकार की चर्चा नगर में होने लगी।
नगर के गृहस्थ इस बौद्ध भिक्षु के वचनों पर चकित थे। एक दिन अहंकारी भिक्षु नगर के मार्ग पर जा रहा था। उसके सामने क्रोधी आक्रमणकारी मेढ़ा आ गया। मेढ़ा ने लाल आंखों से भिक्षु को घूरा। फिर वह पीछे हटा। उसने सिर झुकाया। नागरिक चीख पड़े भदंत ! आप मार्ग से हट जाइए। यह मेढ़ा आपके ऊपर आक्रमण करने वाला है। भिक्षु हंसकर बोला, आयुष्मानों चिंता मत करो।
मेरी तप साधना के समक्ष सिर झुका रहा है । एक नागरिक ने कहा आपको भ्रम हो रहा है। यह मेढ़ा आक्रमण करने के लिए सिर झुका रहा है। आप फौरन मार्ग से हट जाइए। चबूतरे पर चढ़ जाइए। नहीं तो आपका प्राण संकट में पड़ जाएगा । भिक्षु अहंकार में बोला, मूर्ख ! तुम मेरी साधना पर अविश्वास करते हो, यह मेढ़ा मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। मेढ़े ने तेजी से आगे बढ़कर भिक्षु को अपनी सींग पर उठा लिया और दूर फेंक दिया। तब तक नागरिक लाठी लेकर मेढ़े पर टूट पड़े। आक्रमणकारी मेढ़ा भाग गया। भिक्षु की हड्डियां टूट गईं। वे अचेत हो गए।
नागरिकों ने उन्हें किसी तरह उठाकर शल्य चिकित्सक के पास पहुंचाया। तब तक भिक्षु को होश आ गया था । वे वेदना से कराह रहे थे। शल्य चिकित्सक ने सारी घटना सुनकर कहा। भिक्षु आप तप समाधि में लीन हैं, यह अच्छी बात है लेकिन किसी भिक्षु को तप का अहंकार नहीं करना चाहिए । अपने गांवों में एक दोहा कहा जाता है। जो मेढ़ा पीछे हटे, लपकत चले तुरंग, जो शत्रू हंसकर मिले तबहि संभालो खड्ग।