आइए जानते हैं भारतीय सनातन धर्म में यज्ञोपवीत का क्या है महत्व 

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Shrad Chandra mishra
आचार्य पं शरदचन्द्र मिश्र, अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी

उपनयन शब्द- उप- उपसर्ग- नी-धातु से ल्यु प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है अर्थात आचार्य के समीप नयन अर्थात बालक को विद्याध्ययन कहते हैं। बालक के पिता अपने पुत्र को विद्या ध्यानार्थ आचार्य के समीप ले जाय, यही उपनयन का अर्थ है। बालक में वह योग्यता आ जाय, इसलिए विशेष विशेष कर्म द्वारा उसे संस्कृत किया जाता है ‌उसे संस्कार करने का संस्कार ही उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार कहलाता है। इसी का नाम व्रतबन्ध है। इसमें यज्ञोपवीत धारण कर बालक विशेष विशेष व्रतों में उपनिबद्ध हो जाता है।द्विजो का जीवन व्रतमय हो जाता है,जिसका आरम्भ इसी व्रतबन्ध संस्कार से होता है।इसी व्रतबन्ध संस्कार से बालक दीर्घायु, बली और तेजस्वी होता है- यज्ञैपवीतमसि यज्ञस्य त्वां यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि दीर्घायु त्वाय ब्वाय वर्चसे।

तीन ऋणों से मुक्ति यज्ञोपवीत बिना संभव नहीं

वेद ज्ञान प्राप्त करने से विप्र तथा वे तीनों बातें होने से वह श्रोत्रिय कहलाता है। इसलिए द्विजों का दो बार जन्म होता ‌है और दो बार जन्म होने से द्विज संज्ञा सार्थक होती है। तैत्तिरीय संहिता में बताया गया है कि मनुष्य तीन ऋणों को लेकर जन्म लेता है -1-ऋषि ऋण,–2–देव ऋण,–3–पितृ ऋण।इन तीनों ऋणों से मुक्ति बिना यज्ञोपवीत हुए सम्पन्न नहीं होती है। यजन पूजन आदि के द्वारा देव ऋण से मुक्त होता है। मनुष्य यज्ञोपवीत संस्कार के अनन्तर विहित यज्ञोपवीत के अनन्तर ब्रह्मचर्यादि का पालन कर ऋषियों के ऋण से मुक्त होता है। गृहस्थ धर्म का पालन पूर्वक सन्तानोत्पत्ति से पितृ ऋण से मुक्त होता है।

उपनयन से ही होती है द्विजत्व की प्राप्ति

उपनयन कर्म से ही उसका द्विजत्व प्राप्त होता है। उपनयन संस्कार में समन्त्रक एवं संस्कारित यज्ञोपवीत धारण तथा गायत्री मंत्र का उपदेश- यह दो प्रधान कर्म होते हैं‌। शेष कर्म अंगभूत होते‌हैं। उपनयन का अधिकार केवल द्विजाति- ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य को ।है प्रथम माता के गर्भ से उत्पत्ति एवं द्वितीय जन्म मौंजीबन्धन उपनयन संस्कार द्वारा होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यों की -द्विज संज्ञा होती है। शंख स्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों को द्विज कहते हैं। इनका दूसरा जन्म संस्कार से होता है। मौंजीबंधन संस्कार के अंतर के जन्म होने पर उनका पिता आचार्य होता है और माता गायत्री होती है। ब्रह्म पुराण में कहा गया है कि ब्राह्मण माता-पिता के सविधि विवाह के अवसर उत्पन्न बालक ब्राह्मण है।जब उस बालक का 5 से 8 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवित संस्कार होता है,तब वह द्विज होता है।

यह योग्यता उपनयन संस्कार के अनन्तर यज्ञोपवीत धारण करने पर ही प्राप्त होती है। उपनयन के बिना देवकर्म और पितृकर्म नहीं किए जा सकते हैं और श्रौत-स्मार्त कर्मों में तथा विवाह, सन्ध्या, तर्पण आदि कर्मों में उसका अधिकार नहीं रहता है। हिन्दू संस्कारों में यज्ञोपवीत समेत 16 संस्कार मुख्य माने जाते हैं।उनमें भी उपनयन की सर्वोपरि महत्ता है।उपनयन के विना बालक किसी भी श्रौत-स्मार्त कर्म का अधिकारी नहीं हो सकता है। मनुस्मृति में ‌कहा गया है -न ह्यस्मिन् युज्यते‌ कर्म किंचित् मौंजिबन्धात् …

ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य के यज्ञोपवीत की अलग अलग उम्र

यज्ञोपवीत संस्कार कब करें,इसके विषय में आचार्य पारस्कर ने ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य बालक के लिए क्रम से जन्म से या गर्भ से आठ,ग्यारह और बारह वर्ष तक यज्ञोपवीत तक का काल‌ बताया गया है।यही मनुस्मृति में भी कहा गया है।किसी कारण से मुख्य वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार न हो सके तो ब्राह्मण बालक का सोलह वर्ष, क्षत्रिय बालक का बाइस और वैश्य बालक का चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार हो जाना चाहिए।यह उपनयन काल की चरमावधि है।

समय पर यज्ञोपवीत न हो तो प्रायश्चित का प्राविधान

उपनयन के लिए मुख्य काल और गौड़ व्यतीत हो जाने पर वह द्विज बालक वायव्य कहलाता है। अर्थात वह संस्कार न होने से पतित हो जाता है।विगर्हित -निन्दित हो जाता है।वह सभी प्रकार के व्यवहार से अयोग्य हो जाता है और धर्म कर्म में उसका अधिकार नहीं रहता है।वह प्रायश्चीत्ती हो जाता है।ऐसे अनुपवीत के विषय में व्यवस्था दी गई है कि ऐसी स्थिति में अनादिष्ट प्रायश्चित करके वह पुनः संस्कार की योग्यता प्राप्त कर सकता है।उसे व्रात्यस्तोम प्रायश्चित करके उपनयन संस्कार करना चाहिए।यह व्रात्यस्तोम लौकिक होता है।इस व्रात्यस्तोम की विधि कात्यायन श्रौत सूक्त में उपलब्ध है। अज्ञानतावश यदि यज्ञोपवीत नहीं किया गया तो अधिक उम्र हो जाने पर भी प्रायश्चित करके यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य और संयम का प्रतीक है यज्ञोपवीत

यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो इन तीनों कर्मों को करने का अधिकार उसको अधिकार नहीं रहता है।इस संस्कार में मौंजीबन्धन के कारण इसे मौंजीबन्धन संस्कार भी कहते हैं।यह संस्कार उसके ब्रह्मचर्य और विद्याध्ययन का प्रतीक है। यज्ञोपवीत से पूर्व तक कामचार ,कामवाद तथा कामभक्षण जन्य दोष बालक को नहीं लगता है तथा उसके कर्मों का प्रत्यवाय भी नहीं लगता है। यज्ञोपवीत संस्कार के अनन्तर उसे ब्रह्मचर्य, सदाचार,शौचाचार,भक्ष्याभ्यक्ष आदि नियमों का सावधानी पूर्वक पालन करना चाहिए।यम-नियम संयम पूर्वक पालन करना चाहिए।वास्तव में जितने भी संस्कार हैं,वे सब द्विजत्व प्राप्ति के उपकारों हैं। यज्ञोपवीत के पूर्व के जातकर्मादि संस्कार भी द्विजत्व प्राप्ति में सहयोगी हैं।उसके बाद के विवाहादि संस्कार भी बिना यज्ञोपवीत संस्कार हुए सम्पन्न नहीं होने चाहिए। इसलिए यह संस्कार बहुत ही उपयोगी है और आवश्यक भी है किंतु विडंबना है कि वर्तमान में सबसे हानि इस यज्ञोपवीत संस्कार की ही हो‌ रही है।

ब्रह्मतेज से संपन्न होता है यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत और उसकी उत्पत्ति की परम्परा अनादि काल से माना जाता है।सनातन धर्म के अनुसार यह परम्परा उसी काल से हे जब मानव की सृष्टि हुई थी। सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने स्वयं यज्ञोपवीत धारण किया था। यज्ञोपवीत के मन्त्र में कहा जाता है कि शुभ अनुष्ठानार्थ बनाने वाला , आयुष्य को प्रदान करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, अत्यंत पवित्र यज्ञोपवीत को धारण करता हूं।यह मुझे तेज और बल प्रदान करें। ब्रह्मसूत्र ही यज्ञोपवीत है, मैं ऐसे यज्ञोपवीत को धारण करता हूं।सार रुप में यह मन्त्र यज्ञोपवीत की उत्पत्ति का स्पष्ट संकेत है।देवता भी यज्ञोपवीत धारण करतें हैं। ग्रन्थों में भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण के यज्ञोपवीत संस्कार का बड़ा भव्य वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों में इसका उल्लेख होने से यह किन्हीं परवर्ती ऋषियों द्वारा निर्मित सूत्र नहीं है यज्ञोपवीत निर्माण की कुछ विधियां शास्त्रों में वर्णित है। इससे सिद्ध‌ होता है कि माला जैसा दिखने वाला मात्र यह सूत्र भर नहीं है अपितु यह ब्रह्मतेज को धारण करने वाला एवं पितृ कर्मों को सम्पादित कर सकने की योग्यता प्रदान करने वाला देवसूत्र है।

96 चौओ का होना चाहिए जनेऊ का धागा 

यज्ञोपवीत स्वयं अथवा ब्राह्मण कन्या या साध्वी ब्राह्मणी के हाथों से काते गए कपास के सूत्रों के 9 तारों को तीन-तीन तारों में बंटकर बनाए गए तीन सूत्र को 96 चौओं के नाप में तीन वृत्तों की तैयार की गई माला है। जिसके मूल में ब्रह्मग्रन्थि लगाकर गायत्री और प्रणव मंत्रों से अभिमंत्रित किए जाने के पश्चात यज्ञोपवीत नाम दिया गया है ।इसे निश्चित आयु ,काल और विधान के साथ द्विज बालकों को ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ– इन‌तीन आश्रम व्यवस्था में श्रौत और स्मार्त कर्म करने हेतु पिता आचार्य द्वारा या गुरु द्वारा गायत्री मंत्र के साथ धारण कराया जाता है। इसी कारण बालक का दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहा जाने लगता है।

किस उम्र में करें उपनयन

आचार्य पारस्कर ने कुल परंपरा का समाधान करते हुए बताया है कि उपर्युक्त बताए गए उपनयन काल के लिए नियत अथवा गौड़ वर्षों में बालक का उपनयन न हो सके तो अपने कुल परम्परा के अनुकूल उपनयन काल की सीमा के अंदर 9 वें, 10 वें, 11 वें, 12 वें, 13 वें, 14 वें और 15 वें वर्ष में भी उपनयन संस्कार हो सकता है। ब्राह्मण बालक को विशेष ब्रह्मतेज की इच्छा हो तो 5 वें वर्ष में, बल की अभिलाषा क्षत्रिय बालक को हो तो छठे वर्ष में तथा वैश्य बालक कै धन की अभिलाषा हो तो वैसे को 8 वें वर्ष में यज्ञोपवीत कर देना चाहिए ।उपनयन संस्कार में मुख्य रूप से यज्ञोपवीत धारण करना होता है। मौंजीबन्धन आवश्यक है, परन्तु समावर्तन में उसकी आवश्यकता नहीं है‌।समावर्तन के बाद वैवाहिक आश्रम में प्रवेश होता है। हिंदू समाज को चाहिए कि वह यज्ञोपवीत और शिखा सूत्र धारण करें। सन्यास धारण करने के पूर्व तक यज्ह बना रहता है ।यगोपवित सदैव धारण करना चाहिए।बिना शिखा सूत्र के जो भी धर्म-कर्म किया जाता है वह निष्फल होता है। सामान्य अर्थों में यज्ञोपवीत तीन धागों के जोड़ में लगी ग्रंथियों से बनी एक नौ सूत्र की एक माला है। इसे ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य धारण करते हैं वैदिक अर्थों में यज्ञोपवीत दो शब्दों के योग से बना है जिसका अर्थ है यज्ञ से पवित्र किया गया। साकार परमात्मा को यज्ञ और निराकार परमात्मा को उप कहा गया है। इन दोनों को प्राप्त करने का अधिकार दिलाने वाला यह सूत्र यज्ञोपवीत है। ब्रह्मसूत्र को सविता सूत्र के नाम से भी जाना जाता है।

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