पितृ पक्ष पर विशेष : पितरों की कृपा प्राप्ति का साधन है श्राद्ध

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आचार्य पं शरदचन्द्र मिश्र, अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन ” पितृपक्ष” के नाम से विख्यात है।इन पन्द्रह दिनों में सनातनी हिन्दू अपने पितरों को जल देते है तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करते हैं। पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। पितृपक्ष श्राद्धों के लिए पन्द्रह तिथियों का एक समूह है। इस पक्ष में पूर्णिमा तिथि का अभाव है। इसलिए जिनके पूर्वज पूर्णिमा को दिवंगत हुए हैं, उनके लिए यह सोलह दिन का हो जाता है। वर्ष के किसी भी दिन तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष के उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पुत्र के अभाव में पौत्र तथा पौत्र तथा किसी के न रहने पर भाई-भाई की संतान भी श्राद्ध करने का अधिकारी होती है। पुत्र के अभाव में विधवा पत्नी भी अपने पति का श्राद्ध कर सकती है। पत्नी का श्राद्ध पति तभी कर सकता है जब उसे कोई पुत्र न हो, परंतु पुत्र के रहते हुए पति को पत्नी का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। यदि कोई पुत्र न हो तो सगोत्र का पुत्र गोद ले लेना चाहिए। सनातन धर्म परिवारों में आज के इस वैज्ञानिक युग में भी अपने पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्धा है। संभव ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो पितृपक्ष में पितरों का श्राद्ध न करते हों। पितृपक्ष में श्राद्ध तो मुख्य तिथियों में ही होते हैं, परंतु तर्पण प्रतिदिन किया जाता है। देवताओं और ऋषियों को जल देने के अनंतर पितरों को जल देकर तृप्त किया जाता है।
यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है, तथापि आश्विन की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है‌ इसी प्रकार पितृपक्ष की नवमी को माता के लिए परम फलदायी माना गया है। श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थान गया तीर्थ है। जिस प्रकार पितरों की मुक्ति निमित्त गया को परम पुण्यफलदायी माना गया है, उसी प्रकार माता के लिए काठियावाड़ का सिद्धपुर स्थान परम फलदायी माना गया है।इस पुण्यक्षेत्र में माता का श्राद्ध कर के पुत्र अपने मातृ ऋण से लिए सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

पितृपक्ष में श्राद्ध की महिमा

आयु: पुत्रान् यश: स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बदन श्रियम् ।पशून सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।।

श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित

जो श्राद्ध करने के अधिकारी हैं पूरे 15 दिनों तक क्षौर कर्म नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। प्रतिदिन स्नान के बाद तर्पण करके ही कुछ खाना पीना चाहिए। तेल उबटन आदि का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्षौर कर्म पित्र पक्ष के पूर्व या पश्चात कराना चाहिए।

महालया ( पितृ विसर्जनी अमावस्या)

आश्विन कृष्ण अमावस्या को पितृ विसर्जनी अमावस्या अथवा महालया कहते हैं। यह 25 सितंबर को है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध – तर्पण नहीं करते ,वो इस अमावस्या को अपने पूर्वजों के निमित्त श्राद्धादिक सम्पन्न करते हैं। जिन पितरों की तिथि ज्ञात न हों, उनके निमित्त श्राद्ध – तर्पण – दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। इस दिन सभी पितरों का विसर्जन होता है। अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादिकों के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्धादि के लिए इस आशा में आते हैं। यदि उन्हें पिण्डदान या तिलांजलि आदि न मिलती है,तो वे शाप लेकर चले जाते हैं। अतः एकदम श्राद्ध का परित्याग न किया जाए। अपने पितरों को सन्तुष्ट अवश्य करना चाहिए।

धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का श्राद्ध करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र- पौत्रादि ,यश, स्वर्ग, पुष्टि बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन – धान्यादि को प्राप्त करता है। यही नहीं पितरों की कृपा से ही उसे सब प्रकार की समृद्धि और सौभाग्य तथा राज्य की प्राप्ति होती है ‌आश्विन मास के इस पितृपक्ष में पितरों को आशा लगी रहती है कि हमारे पुत्र- पौत्रादि हमें पिंडदान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। यही आशा लेकर यह पितृलोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं। अतएव प्रत्येक हिंदू गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध और तर्पण अवश्य करें। वह अपनी शक्ति के अनुसार फल मूल जो भी संभव पितरों के निमित्त प्रदान करें। पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व समय है। इस पक्ष में पार्वण श्राद्ध किया जाता है, एकोद्दिष्ट नही। यद्यपि प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि पितरों के लिए पुण्य तिथि है परंतु आश्विन मास की अमावस्या अत्यंत फलदायिनी है।

इस वर्ष पितृपक्ष के मुख्य दिन –

  • 1- चौथ भरणी या भरणी पंचमी – गत वर्ष जिनकी मृत्यु हुई है, उनका श्राद्ध इस तिथि पर किया जाता है। यह इस वर्ष 14 सितम्बर दिन बुधवार को है।
  • 2- मातृनवमी-अपने पति के जीवन काल में मरने वाली स्त्री का श्राद्ध इस तिथि पर किया जाता है। यह 19 सितम्बर दिन सोमवार को है।
  • 3- घात चतुर्दशी युद्ध में या किसी तरह मारे गए व्यक्तियों का श्राद्ध इस तिथि में होता है। यह 24 सितम्बर दिन शनिवार को है।
  • 4- सर्व पैत्री अमावस्या इस दिन सब पितरों का श्राद्ध होता है। यह 25 सितंबर दिन रविवार को है।

मातामही श्राद्ध – नाना का श्राद्ध आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को होता है। यह 26 सितंबर दिन सोमवार को है।

पूर्णिमा श्राद्ध – 10 सितंबर दिन शनिवार

प्रतिपदा श्राद्ध – 11 सितंबर दिन रविवार

द्वितीया श्राद्ध और तृतीया श्राद्ध – दोनों 12 सितंबर दिन सोमवार ( इस दिन कुतप काल में दोनों तिथियां विद्यमान है)।

चतुर्थी श्राद्ध – 13 सितंबर दिन मंगलवार

पंचमी श्राद्ध – 14 सितंबर दिन बुधवार

षष्ठी श्राद्ध 15 सितंबर दिन बृहस्पतिवार

सप्तमी श्राद्ध 17 सितंबर दिन शनिवार

अष्टमी श्राद्ध –18 सितंबर दिन रविवार

नवमी श्राद्ध 19 सितंबर दिन सोमवार

दशमी श्राद्ध- 20 सितंबर दिन मंगलवार

एकादशी श्राद्ध – 21 सितंबर दिन बुधवार

द्वादशी श्राद्ध –22 सितंबर दिन बृहस्पतिवार ( इस दिन यति ओर संन्यासियों का भी श्राद्ध होता है)।

त्रयोदशी श्राद्ध –23 सितंबर दिन शुक्रवार

 चतुर्दशी श्राद्ध – 24 सितंबर दिन शनिवार

सर्व पैत्री अमावस्या श्राद्ध – 25 सितंबर दिन रविवार

दौहित्रकर्तृक मातामह ( नाना का श्राद्ध)- 26 सोमवार। पिता के रहते नाना का श्राद्ध इस तिथि पर किया जाता है।

 

हृषीकेश पंचांग के अनुसार श्राद्ध तालिका

मातृनवमी-  आश्विन पक्ष‌ की नवमी को मातृ नवमी कहते हैं। जिस प्रकार पुत्र अपने पिता, पितामहादिकों का श्राद्ध करता है, उसी प्रकार बहुएं अपने मृत सांस आदि के लिए श्राद्ध करती हैं।मातृनवमी के दिन पुत्र अपनी मृत माता आदि के लिए मातृपार्वण एवं अन्वाष्टाका श्राद्ध करते हैं।अन्वाष्टका अथवा मातृपार्वण में माता का स्थान प्रथम होता है। पितृपार्वण में पिता, पितामह, प्रपितामह और मातामही, प्रमातामह व वृद्ध प्रमातामह को सपत्नीक बोलकर पूजा या पिण्डदान करते हैं। उसी प्रकार अन्वष्टका और मातृपार्वण में माता,पितामही, प्रपितामही, पिता, पितामह, प्रपितामह, मातामही, प्रमातामह, वृद्ध प्रमातामह सपत्नीक इस क्रम से पूजा या पिण्डदान होता है। पिता के जीवित रहते  पुत्र अपने मृत माता, पितामही, प्रपितामही के निमित्त पितृपक्ष में माता की तिथि के दिन मातृपार्वण कर सकता है। इसका नाम मातृपार्वण और नवमी के दिन किए जाने वाले श्राद्ध का नाम अन्वष्टका श्राद्ध है।

श्राद्ध से सम्बन्धित कुछ खास बाते

श्राद्ध में ब्राह्मण कैसा होना चाहिए, इस विषय में धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि समस्त अच्छे लक्षणों से युक्त विचारशील एवं सद्गुणों से सम्पन्न तथा पुरुषों में विख्यात ब्राह्मणों के द्वारा श्राद्ध सम्पन्न कराना चाहिए। लंगड़ा, काना, दाता का दास, अंगहीन एवं अधिक अंग वाला ब्राह्मण श्राद्ध में निषिद्ध हैं। निर्णय सिंधु में कहा गया है कि देश कार्य, पूजा पाठ में ब्राह्मणों की परीक्षा न करें, किन्तु पितृकार्य में अवश्य करें। श्राद्ध में विल्वपत्र, मालती, चम्पा, नागकेसर, कनेर, जवापुष्प( अड़हुल), केतकी एवं समस्त रक्त पुष्प वर्जित हैं। इन पुष्पों को श्राद्ध में व्यवहार करने से पितरों को नहीं मिलता है, उसे राक्षस ग्रहण करते हैं। श्राद्ध कर्म में केवल श्वेत ( सफेद) पुष्प काम में लेना चाहिए। श्राद्ध के समय आंसू आने से पाक प्रेतों को, क्रोध से शत्रुओं को, असत्य भाषण से कुत्तों को, पांव के स्पर्श से राक्षसों को और पाक को उछालने से पापियों को मिलता है।

श्राद्ध के प्रकार

निर्णय सिंधु में 12 प्रकार के श्राद्ध लिखे हैं।

1-नित्य श्राद्ध- इसमे पितरो के निमित्त लिए कुछ अन्न का दान नित्य किया जाता है, यह श्राद्ध कहलाता है।

2- नैमित्तिक श्राद्ध- यह श्राद्ध विशेष अवसर पर किया जाता है जैसे पिता आदि के मृत्यु तिथि के दिन इसे करते हैं। इसे एकोदिष्ट श्राद्ध भी कहा जाता है। इसमें विश्वदेव की पूजा नहीं होती है केवल एक पिंड मात्र दिया जाता है। नैमित्तिक श्राद्ध प्रतिनिधि द्वारा भी किया जा सकता है।

3- काम्य श्राद्ध – किसी कामना विशेष के लिए मह में श्राद्ध किया जाता है जैसे पुत्र आदि की प्राप्ति।

4- वृद्धि श्राद्ध – सौभाग्य की वृद्धि के लिए यह श्राद्ध किया जाता है‌

5- सपिंडन श्राद्ध- इसमें मृत व्यक्ति को बारहवें दिन पितरों में मिलातें हैं। यह श्राद्ध स्त्रियां भी कर सकती हैं।

6- पार्वण श्राद्ध- पिता, पितामह, प्रपितामह सपत्नीक और मातामह, प्रमातामह, वृद्ध प्रमातामह सपत्नीक के निमित्त होता है। इसमें दो विश्वदेव की पूजा होती है ।

7- गोष्ठी श्राद्ध- यह कुटुंब के लोगों के एकत्र होने के समय किया जाता है।

8- शुद्धयर्थ श्राद्ध-  शुद्धता के लिए किया जाता है । पितरों के प्रतिनिधि रूप में परिमित संख्यक ब्राह्मणों को भोज दिया जाता है। यह श्राद्ध का मुख्य अंग है।

9- कर्मांग श्राद्ध – यह श्राद्ध किसी संस्कार के समय किया जाता है।

10- तीर्थ श्राद्ध – यह तीर्थ में जाने पर किया जाता है।

11- यात्रार्थ श्राद्ध – यह यात्रा की सफलता के लिए किया जाता है ‌।

12- पुष्टयर्थ श्राद्ध – शरीर के स्वास्थ्य और भलाई के लिए यह किया जाता है।

श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित चीजें

दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, भोजन न करना, स्त्री प्रसंग, औषधि सेवन, दूसरे का अन्न- श्राद्ध में वर्जित हैं। दौहित्र (पुत्री का पुत्र) कुतप( मध्यान्ह का समय) और तिल- यह तीन श्राद्ध में अत्यंत पवित्र हैं और क्रोध, अध्वगमन( श्राद्ध करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना) एवं श्राद्ध करने में शीघ्रता ये तीन वर्जित हैं। मनुष्य जिस अन्न को स्वयं भोजन करता है, उसी अन्न से पितर और देवताओं को तृप्त करें। पकाया हुआ अथवा बिना पकाया हुआ अन्न प्रदान करके पुत्र अपने पितरों को तृप्त करें,ऐसा मनु का वाक्य है। ऐसे तो श्राद्ध में अधिक से अधिक ब्राह्मणों को अपनी शक्ति के अनुसार भोजन कराएं, अन्यथा आठ या तीन या कम से कम एक ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन अवश्य कराना चाहिए ।

श्राद्ध सम्बन्धी कुछ अन्य बातें

यदि व्यक्ति के पास धन का अभाव हो तो वह भी श्राद्ध कर सकता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि ऐसे श्रद्धालु को वन में जाकर या एकांत स्थान में जाकर अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर यह कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न तो धन है, न ही सामग्री है। मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूं वह मेरी भक्ति से ही लाभ प्राप्त करें। श्राद्ध न करने पर पितर लोग लाचार होकर अपने वंशजों को शाप देकर लौट जाते हैं‌ मत्स्य पुराण के अनुसार 15 मुहूर्तों में विभक्त दिन के अष्टम भाग को कुतप कहतें हैं। श्राद्ध का अधिकारी पिता का पुत्र, पुत्र नहीं है तो भाई करें। स्त्री भी श्राद्ध कर सकती है। उसके बाद का सपिण्ड का कोई व्यक्ति करें। दामाद एवं दौहित्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। सभी के अभाव में राजा करें।क्योंकि राजा को सभी का बन्धू बांधव कहा गया है।

दत्तक पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी

दत्तक पुत्र एवं अनुपनीत( विना यज्ञोपवीत) पुत्र भी श्राद्ध करने के अधिकारी हैं। गंगाजल, दूध, मधु, तसर का कपड़ा, दौहित्र, कुतप और तिल श्राद्ध में महत्वपूर्ण होते हैं। श्राद्ध में तुलसी की गंध मात्र से पितर प्रसन्न होकर विष्णु लोक चले जाते हैं। श्राद्ध में श्राद्ध में मध्याह्नोत्तर काल, खंगपात्र, नेपाली कंबल, चांदी, कुश और दौहित्र- ये आठ श्रेष्ठ माने गए हैं। श्राद्ध में कुश का बहुत महत्व है। बिना फूफ कुश को दर्भ कहते हैं। फूल आने पर उसका नाम खुश हैं जाता है पुराने पर उसका नाम कुश हो जाता है। गंध में कपूर, केसर ,अगर, खस, चंदन आदि प्रशंसनीय है। सोना, चांदी, कांसा तथा तांबे के पात्र उत्तम कहे गए हैं। केले के पत्तों में श्राद्ध कराना (भोजन कराना) निषिद्ध है। नित्य तर्पण दोनों हाथों से, किंतु श्राद्ध का तर्पण केवल दाहिने हाथ से करना चाहिए‌ तर्पण जल में खड़े होकर करना चाहिए। ग्रहण, महालय, तीर्थ एवं गया आदि में तिल से दर्पण का कोई निषेध नहीं है। अतिरिक्त श्राद्ध के लिए शुक्रवार, रविवार, गजच्छाया योग, संक्रांति युग , युगादि मन्वादि तिथियों में तर्पण निषिद्ध है। तिलों को हाथ में चिपके नहीं रहने देना चाहिए । तिल तर्पण खुले हाथ से देना चाहिए।

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