छठ पूजा पर विशेष : जानिए बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश के महापर्व- छठ पूजा की कथाएं और मुहूर्त

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आचार्य पंडित शरदचन्द्र मिश्र

अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी

भारत पर्वों का देश है। यहां प्रत्येक दिन, प्रत्येक मास कोई न कोई पर्व अवश्य ही मनाया जाता है। पर्वोत्सव की दृष्टि से कार्तिक मास का विशेष है। इसी कार्तिक मास में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण एवं पवित्र पर्व मनाया जाता है जिसे छठ पर्व के नाम से जाना जाता है। छठ पर्व बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक प्रचलित और लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान के रूप में जाना जाता है। इस अवसर पर प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्यनारायण की पूजा की जाती है। श्री बाल्मीकि रामायण मैं आदित्य ह्रदय स्त्रोत्र के द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति करते हुए बताया गया है कि यही भगवान सूर्य- ब्राह्मा, विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति , इंद्र कुबेर, काल, चंद्रमा और वरुण हैं तथा पितर आज भी यही हैं। हे राघव!विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा किसी भय के अवसर पर यदि कोई पुरुष इन सूर्य देव का कीर्तन करता है उसे दुख नहीं भोगना पड़ता है। छठ पर्व सूर्योपासना का अनुष्ठान है। इस अनुष्ठान को वर्ष में दो बार- चैत्र तथा कार्तिक मास में संपन्न किया जाता है। दोनों ही मासों में शुक्ल पक्ष की षष्ठी एवं सप्तमी तिथि को छठ का आयोजन होता है। षष्ठी तिथि को अस्ताचलगामी सूर्य देव को सायंकाल अर्घ्य प्रदान किया जाता है और सप्तमी तिथि को प्रातः काल उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दान किया जाता है।

छठ पर्व का सर्वाधिक महत्व उसकी पवित्रता में है, यों तो यह पर्व विशेष रूप से स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है किंतु पुरुष भी इस पर्व को बड़े उत्साह से मनाते हैं। चतुर्थी तिथि को व्रती स्नान करके सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे बिहार की स्थानीय भाषा में- नहाए खाय- के नाम से जाना जाता है। पंचमी तिथि को पूरे दिन व्रत रहकर संध्या को प्रसाद ग्रहण किया जाता है इसे खरना या लोहंडी कहा जाता है। षष्ठी तिथि के दिन संध्याकाल में नदी या तालाब के किनारे व्रती महिलाएं एवं पुरुष सूर्यास्त के समय अनेक प्रकार के पक्वान्नो को बांस की सूप में सजाकर सूर्य को दोनों हाथों से अर्घ्य अर्पित करते हैं। सप्तमी तिथि को प्रातः काल उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद प्रसाद ग्रहण किया जाता है। इसी दिन व्रत की समाप्ति भी होती है और व्रती द्वारा भोजन ग्रहण किया जाता है। किसी भी पर्व को मनाने के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य ही होता है। छठ पर्व को मनाने के पीछे अनेक अनेक पौराणिक एवं लोक कथाएं हैं एवं एक लंबा इतिहास लिखा हुआ है।

भारत में सूर्य उपासना की परंपरा वैदिक काल से ही रही है। महाभारत की कथा में सूर्य -उपासना, पूजा का सविस्तार वर्णन मिलता है। वैदिक साहित्य में भी सूर्य को सर्वाधिक प्रत्यक्ष देवता माना गया है। सन्ध्योपासना रुप अवश्य करणीय कर्म में मुख्य रूप से भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, उपस्थान किया जाता है और सूर्य मंडल में भगवान नारायण का ध्यान किया जाता है। छठ पर्व की एक लोकगाथा को द्रौपदी से जोड़ते हुए ऐसा कहा गया है कि जब पाण्डव जुए के खेल में अपना संपूर्ण राजपाट हार गए तब उन्हें राज्य छोड़कर जंगल जाना पड़ा था। पांडव जंगल में भटक रहे, तब द्रौपदी भी उनके साथ ही थी। पांडवों की स्थिति से दु:खी द्रौपदी ने जुए में खोए हुए राज्य की प्राप्ति और सुख समृद्धि की कामना को लेकर कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को सूर्य की आराधना, उपासना की थी। द्रौपदी की अत्यंत श्रद्धा भक्तों से प्रभावित होकर भगवान सूर्य ने उसे मनोवांछित फल प्रदान किया था, जिससे पांडवों ने अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लिया था।

राजा के इस प्रस्ताव को सुनकर च्यवन ऋषि प्रसन्न हो गए। सुकन्या ऋषि के समीप रहकर उनकी सेवा करने लगी। कार्तिक मास में एक दिन सुकन्या जल लाने के लिए एक पुष्करणी के समीप गई। वहां पर उसने एक नागकन्या को देखा। सुकन्या ने नागकन्या से उपस्थिति का कारण पूछा ।सुकन्या के पूछने पर नागकन्या ने बताया कि कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को सूर्य की उपासना एवं व्रत करने पर मनोकामनाएं पूरी हो जाती है। सुकन्या ने भी पूरी निष्ठा के साथ छठ व्रत किया, जिसके प्रभाव से च्यवन मुनि को आंखों की ज्योति वापस मिल गई। एक अन्य कथा के अनुसार मगध सम्राट राजा जरासंध के किसी पूर्वज को कुष्ठ रोगहो गया था। उन्हें कुष्ठ रोग से मुक्त करने के लिए शक्ल द्वीपीय ब्राह्मण मगध में उपस्थित हुए तथा सूर्योपासना के माध्यम से उनके कुष्ठ रोग को दूर करने में सफल हुए। कुष्ठ जैसे कठिन रोग को सूर्योपासना के माध्यम से दूर होते देखकर मगध के नागरिकों ने छठ पर्व को अपनाया और यह नागरिकों के मध्य महत्वपूर्ण हो गया।

षष्ठी व्रत की एक अन्य कथा को राजा प्रियव्रत से जोड़ा जाता है और यह प्रसिद्धि है कि महाराज स्वयंभू मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को अधिक समय बीत जाने के बाद भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। तदुपरांत महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी को चरू प्रदान किया। इससे कर्म तो ठहर गया किंतु मृत पुत्र उत्पन्न हुआ। मृतक पुत्र को देखकर रानी मूर्छित हो गईं। उसे लेकर प्रियव्रत शमशान गए ।पुत्र वियोग में प्रियव्रत ने भी प्राण त्यागने का यत्न किया। उसी समय मणियुक्त विमान पर एक देवी वहां आ पहुंची। मृत बालक को भूमि पर रखकर राजा ने उस देवी को प्रणाम किया और पूछा -” से सुव्रते आप कौन हैं? देवी ने कहा -“राजन! मैं ब्रह्मा की मानस मानस कन्या देवसेना हूं। मेरे पिता ने स्वामी कार्तिकेय से मेरा विवाह किया था। मैं सभी मातृकाओं में विख्यात स्कन्दपत्नी हूं। मूल प्रकृति के छठे उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। मैं पुत्रहीन को पुत्र, निर्धन को धन, रोगी को आरोग्य तथा कर्मवान को उनके श्रेष्ठ कर्मों का फल प्रदान करती हूं। देवी ने आगे कहा- ” तुम मेरा पूजन करो और अन्य जनों से भी कराओ।”- इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी उस बालक को उठा लीं और खेल खेल में पुनः जीवित कर दिया। राजा ने उसी दिन घर जाकर बड़े उत्साह से नियमानुसार षष्ठी देवी की पूजा संपन्न की। चूंकि यह पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को की गई थी। अतः इस तिथि को षष्ठीदेवी या छठी देवी का व्रत होने लगा।

क्या कहा जाता है कि मगध क्षेत्र में ही सबसे पहले सूर्य की पूजा पूजा शुरू हुई थी। मग ब्राह्मणों होने के कारण यह क्षेत्र मगध कहलाया और मग लोग सूर्य के उपासक थे। सूर्य की रश्मियों से चिकित्सा करने में इन्हें भारी सफलता मिली थी इसीलिए पूरी निष्ठा एवं नियम पूर्वक चार दिवसीय सूर्य- उपासना के रूप में छठ पर्व की परंपरा प्रचलित प्रचलित हुई और उत्तरोत्तर समृद्ध होती चली गई ।एक अन्य लोक मान्यता के अनुसार भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कंद को कृत्तिकाओं ने अपना स्तनपान कराकर बालक की रक्षा की थी उस समय स्कंध के छह मुख हो गए थे। कृतिकाओं द्वारा इन्हें दुग्धपान कराया गया था इसीलिए एक कार्तिकेय भी कहलाते हैं। लोक विश्वास है कि यह घटना जिस मास में घटी, उस मास का नाम कार्तिक पड़ गया। छठ मैया की पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को की जाती है। यह पर्व बच्चों के कष्ट निवारण एवं सुख- समृद्धि के लिए किया जाता है।

एक दूसरी कथा के अनुसार शर्याति नामक एक राजा थे। उनकी अनेक स्त्रियां थी, किंतु उन स्त्रियों से उन्हें मात्र एक कन्या पैदा हुई थी। चूंकि राजा की वह इकलौती संतान थी अतः वह उन्हें काफी प्रिय थी। वह अत्यंत सुंदर और चंचल भी थी। उसका नाम सुकन्या रखा गया था। एक बार की बात है कि राजा जंगल में शिकार खेलने गए। शिकार के ही क्रम में वह ससैन्य दस दिन तक जंगल में रहे। सखियों के साथ सुकन्या दी गई। एक दिन सुकन्या फूल लेने जंगल में गई और संयोग से वह एक स्थान पर पहुंच गई जहां च्यवन मुनि ध्यान मग्न हो तपस्या में लीन थे। वे तपस्या में इतने लीन थे कि उनके शरीर पर दीमक लग गई थी, किंतु इसका आभास तक उन्हें न हुआ था। बांबी से उनकी दोनों आंखे जुगनू की तरह चमक रही थी।

सुकन्या ने कौतूहल बस उन बॉबी के दोनों छिद्रों में जहां से प्रकाश आ रहा था तिनके डाल दिए, जिससे मुनि की दोनों आंखें फूट गई एवं उनके आंखों के फूटते ही उनके शाप से राजा के सैनिकों का मल मूत्र निकलना बंद हो गया। फल यह हुआ कि तमाम सैनिक दर्द एवं पीड़ा से झटपटाने लगे ।राजा भी चिंतित हो गए। राजा ने सैनिकों से इस विषय में पूछा किंतु कोई कुछ बता न सका ।तब घबराते हुए सुकन्या ने पिता से अपना अपराध निवेदन कर दिया। फिर क्या था राजा सुकन्या को लेकर एवं उनके पास गए और हाथ जोड़ते हुए अपनी पुत्री का अपराध क्षमा करने तथा सेना के स्वस्थ हो जाने का निवेदन करने लगे और भोले प्रभु! मेरी कन्या के अनजाने अपराध के कारण आपकी यह दशा हुई है। अतः आपकी सेवा के लिए मैं अपनी कन्या सुकन्या को आपकी सेवा के लिए समर्पित करता हूं। कृपया इसकी सेवा को स्वीकार कर मेरी सेना को वेदना से मुक्त करें और मुझे कृतार्थ करें।

श्रीमद् देवीभागवत महापुराण के अनुसार मूल प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न होने के कारण इस देवी का नाम षष्ठी देवी पड़ा । जो व्यक्ति षष्ठी देवी के बीज मंत्र का निष्ठा पूर्वक जप करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। बीज मंत्र इस प्रकार है- ऊं ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा। यूं तो प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को षष्ठी देवी का पूजन होता है परंतु विशेषतः शरद् और बसंत ऋतु में षष्टि देवी के पूजन का विशेष महत्व है। तन और मन को रोग मुक्त रखने के लिए ही छठ व्रत का पालन करने की परंपरा विकसित हुई, ताकि छठ माता में श्रद्धा भक्ति रखने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष वर्ष भर स्वस्थ और सुखी जीवन जी सकें। छठ व्रत का उत्सव लोकोत्सव है।यह लोक चेतना और लोक संस्कृति से अनुप्राणित है। लोक जीवन के सहज उल्लास से स्पंदित लोक अनुशासन से नियंत्रित यह पर्व बिहार की आत्मा है।

सूर्योपासना का छठ पर्व महोत्सव – 28 अक्टूबर शुक्रवार से 31 अक्टूबर सोमवार तक – चतुर्थ दिवसीय है डाला सूर्य षष्ठी व्रत 

सूर्य षष्ठी व्रत वर्ष में दो बार किया जाता है, हलांकि इसकी कार्तिक मास में ज्यादा प्रचलन है।एक चैत्र मास में दूसरा कार्तिक मास में। चैत्र शुक्ल षष्ठी पर मनाए जाने वाले षष्ठी पर्व को चैती छठ एवं कार्तिक शुक्ल षष्ठी पर मनाए जाने वाले छठ पर्व को कार्तिक छठ पर्व कहते हैं।छठ पूजा पर्व में व्रत, उपवास,उपासना पूजा, अर्घ्य आदि में पवित्रता आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है। दीपावली पर हुई साफ- सफाई के उपरांत भी इस पर्व में पुनः घर , रसोई आदि को धोया जाता है और व्रत में उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की पवित्रता पर विशेष ध्यान रखा जाता है।इस पर्व पर निर्मित भोजन – प्रसाद आदि में लहसुन, प्याज आदि वर्जित होते हैं।

नहाय खाय से व्रत का शुभारंभ :

छठ पर्व का आरंभ नहाय खाय से आरंभ होता है। यह 28 अक्टूबर दिन शुक्रवार को है।इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 25 मिनट पर, तृतीया तिथि दिन में 12 बजकर 29 मिनट, पश्चात चतुर्थी तिथि, अनुराग नक्षत्र दिन में एक बजकर 25 मिनट पश्चात ज्येष्ठा नक्षत्र,इस दिन रवियोग और सर्वार्थ सिद्धि योग, नामक दो सिद्धिकारी योग भी विद्यमान है।इसी दिन से सूर्य षष्ठी व्रत आरंभ हो रहा है।नहाय खाय के अन्तर्गत व्रती को सामान्यतः घर की जो प्रमुख महिला होती है, वह समीप के नदी या तालाब पर जाकर स्नान करती है और उसके बाद घर पर आकर खाना पकाती है।खाने में कद्दू और चावल पकाया जाता है।इसे कद्दू बात कहते हैं।व्रती महिला उपवास करती है और रात में जमीन या काष्ठासन पर होती है। सांयकाल एक समय कुछ प्रसाद ग्रहण करती है।

खरना :

खरना-व्रत का द्वितीय दिन 29 अक्टूबर दिन शनिवार – इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 25 मिनट, शुक्ल चतुर्थी का मान‌ 10 बजकर 28 मिनट, पश्चात पंचमी तिथि,इस दिन ज्येष्ठा नक्षत्र दिन में 12 बजकर 5 मिनट, पश्चात मूल नक्षत्र और अतिगण्ड और सुकर्मा नामक योग है। यह सूर्य षष्ठी व्रत का द्वितीय दिवस रहेगा।इस दिन व्रती महिला उपवास करती है और सायंकाल पूजा करने के बाद व्रत खोलती है। व्रत खोलने में नैवेद्य अर्थात प्रसाद का उपयोग होता है।इस प्रकिया को करना कहते हैं।

निर्जल उपवास – यह व्रत का तीसरा दिन है।यह 30 अक्टूबर दिन रविवार को है।यह कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि का दिन होता है।इस दिन सायंकालीन अर्घ्य ( सूर्यास्त के समय) षष्ठी तिथि में दिया जाता है।इस दिन सूर्योदय 6‌ बजकर 26 मिनट तक और पंचमी तिथि प्रातः 8 बजकर 15 मिनट तक पश्चात षष्ठी तिथि है।इस दिन मूल नक्षत्र दिन में 10 बजकर 34 मिनट तक पश्चिम पूर्वाषाढ़, सुधर्मा और सिद्धि नामक औदायिक योग है।इस दिन व्रती महिला निर्जल उपवास रखती है। सूर्यास्त के समय से कुछ ही पूर्व तालाब या नदी के किनारे जाती हैं और पूर्व निर्मित षष्ठी माता की पूजा करती है। सूर्यास्त के समय जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य प्रदान करती है। अर्घ्य दूध और जल से दिया जाता है। अर्घ्य देने के बाद सूपों में रखा सामान भगवान सूर्य और माता षष्ठी देवी को अर्पित किया जाता है। प्रसाद सामग्री में मौसमी फलों के अलावा ठेकुआ और लड़ूंगा आदि मुख्य होते हैं। ठेकुआ गेंहू के आटे से बनाया जाता है और लडुआ चावल के आटे से। सूर्यास्त के पश्चात प्रसाद की सामग्री को सूपों में रखकर घर लाया जाता है और रात्रि में जागरण कर षष्ठी माता की कहानी सुनी जाती है।

चार दिन का पर्व :

इस व्रत का चतुर्थ दिवस- इस दिन सप्तमी तिथि में प्रातः काल अर्घ्य दिया जाता है। इस दिन सूर्योदय 06 बजकर 27 मिनट पर , प्रातः 8 बजकर 56 मिनट तक पूर्वाषाढ़ और धृति योग है। चन्द्रमा की स्थिति अपने परम मित्र बृहस्पति के राशि धनु पर रहेगा। सूर्योदय के समय व्रती महिला तालाब के किनारे जाकर स्नान करती है और जल में खड़े होकर अरूणोदय के समय भगवान सूर्य को अर्घ्य प्रदान करती है।सूप में सामग्री बदलकर पुनः भगवान सूर्य और माता षष्ठी को प्रसाद चढ़ाती है। इसके बाद व्रती महिलाएं घर के अन्य सदस्यों को‌ एवं आसपास के व्यक्तियों को प्रसाद देती हैं।घर के बच्चों को अपने गीले आंचल से पोछतीं है।इसके पीछे मान्यता यह है कि ऐसा करने से उन्हें आगामी एक वर्ष तक त्वचा से सम्बन्धित रोग नहीं होते हैं।इस प्रक्रिया के पश्चात व्रती महिलाएं अपना व्रत खोलती है।

सुबह का अर्घ्य :

इस दिन प्रातःकाल अर्घ्य का समय – सूर्योदय प्रातः 6 बजकर 27 मिनट पर है। इसलिए इसी समय अर्घ्य प्रदान किया जायेगा।

शाम का अर्घ्य :

सायंकाल अर्घ्य का समय- सूर्यास्त 5 बजकर 34 मिनट पर है। इसी समय अर्घ्य दिया जाएगा।

छठ के प्रचलित गीत:

पर्व के चारों दिनों में हर्षोल्लास का माहौल रहता है। सूर्यास्त एवं सूर्योदय पर अर्घ्य के दौरान नदी एवं तालाब के किनारे मेरे जैसा माहौल रहता है।व्रती महिला के साथ घर के सभी सदस्य भी पूजा स्थल पर पहुंचते हैं और व्रती महिला से आशिर्वाद लेते हैं।नदी और तालाबों के किनारे दीपों की श्रंखला देखते ही बनती है।चारो ओर सूर्य षष्ठी या मां छठ के गीतों से वातावरण गुंजायमान रहता है।ऐसे ही कतिपय गीतों की अन्तरा निम्नानुसार हैं-” अन्न दिहले, धन दिहले, वंश बढ़ावे ना, जब बबुआ होई हमके, तब हम छठ करबों ना।। केलवा जे फरेला घवद से,ओह पर सुगा मेडराय।। उगु न सूरज देव भइलो अरग के बेर।। हम करेली छठ बरतियां से उनके लागी–।। सेवि ले चरन तोहार हे छठ मईया, महिमा तोहार अपार ।।

इस पूजा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता, भक्ति एवं अध्यात्म है।इसकी उपासना पद्धति एकदम सरल है, जिसमें किसी आचार्य की आवश्यकता नहीं है।यह लौकिक रीति- रिवाजों एवं सरल ग्रामीण जीवन पर आधारित है। वर्तमान में इसकी सादगी में परिवर्तन आ रहा है। अब बड़े- बड़े पाण्डाल लगाए जा रहे हैं, जिसमें सूर्यदेव की मूर्ति स्थापित की जा रही है।पटाके छोड़े जा रहे हैं और बड़ी- बड़ी सन्ध्याएं भजन आयोजित की जा रही हैं।

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