शास्त्र का मत- होलिका के पूजन और दहन के विषय में पूर्वाचार्यों के मत इस प्रकार है – नारद जी का वाक्य- ” प्रदोषकाले ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी”– दुर्वासा जी कहते हैं –“निशागमे तु पूज्येत होलिका सर्वतोमुखै:”– निर्णयामृत का वाक्य है — सायाह्ने होलिकां कुयात् पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम् “–अर्थात इन सभी मतों के अनुसार पूर्णिमा की रात में ही होलिका का पूजन और दहन करना चाहिए । यह भी कहा गया है कि यदि पूर्णिमा की रात में भद्रा हो तो भद्रा के मुख का परित्याग कर उसके पूंछ में पूजन और दहन करें।–” तस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।”– भविष्य पुराण में भी इसी से मिलता वाक्य है –“पृथिव्यां यानि कर्माणि शुभानि ह्यशुभानि च।यानि सर्वाणि सिद्धयन्ति विष्टिमुखे न संशय: “–वाराणसी से प्रकाशित हृषीकेश पंचांग के अनुसार 6 मार्च दिन सोमवार को सूर्योदय 6 बजकर 11 मिनट पर और चतुर्दशी तिथि का मान सायंकाल 3 बजकर 56 मिनट तक। उसके बाद पूर्णिमा तिथि,इस दिन मघा नक्षत्र भी सम्पूर्ण दिन और रात्रि 11 बजकर 53 मिनट तक सुधर्मा योग। रात को 8 बजकर 55 मिनट तक ध्वांक्ष नामक औदायिक योग है।दूसरे दिन ( अर्थात 7 मार्च को ) पूर्णिमा सायंकाल 5 बजकर 39 मिनट तक ही है और सूर्यास्त 5 बजकर 49 मिनट पर हो जाएगा। ऐसी स्थिति में 7 मार्च को रात्रि के समय पूर्णिमा का अभाव है। शास्त्र के अनुसार होलिका का पूजन और दहन पूर्णिमा कालिन भद्रा रहित समय में किया जाता है। 7 मार्च को रात में पूर्णिमा के अभाव के कारण होलिका का पूजन और दहन 6 मार्च की रात में किया जाएगा। परन्तु रंगभरी होली मधुमास में मनाई जाती है। 8 मार्च को मधुमास ( चैत्र कृष्ण प्रतिपदा होने से मधुमास का उत्सव ( रंगभरी होली )इसी दिन होगा।
प्रतिपदा, चतुर्दशी और दिन में होली दहन वर्जित
यह भी कहा गया है कि भद्रा के समय होली न जलाई जाए। लेकिन रात भर भद्रा होने से भद्रा के पूंछ भाग में होलिका पूजन का भी विधान शास्त्रों में कहा गया है। यह भी ध्यातव्य है कि प्रतिपदा, चतुर्दशी और दिन में होली का दहन नहीं किया जाता है। इनमें होली जलाना सर्वथा त्याज्य है।कुयोगवश यदि जला दी जाए तो वहां राज्य, नगर और मनुष्य अद्भुत उत्पातों से ग्रसित हो जाते हैं। मुहूर्त चिंतामणि में स्पष्ट रुप से भद्रा हो तो भद्रा के पूंछ में होलिका दहन की अनुज्ञा है
इस वर्ष 6 मार्च को भद्रा सायंकाल 3 बजकर 56 मिनट से 7 मार्च को प्रातःकाल 4 बजकर 48 मिनट तक होने से होलिका दहन भद्रा के पूंछ भाग में होगा।(यह समय 6 मार्च को रात में 12 बजकर 23 मिनट से 1 बजकर 35 मिनट है।)इसी के मध्य होलिका दहन किया जाएगा।
वैदिक संदर्भ में होलिका पूजन और दहन
हास परिहास, व्यंग्य – विनोद और सामाजिक मेल जोल का प्रतीक पर्व होली अथवा होलिका वास्तव में एक यज्ञ है, जिसका मूल स्वरूप आज विस्तृत हो गया है।होली के आयोजन के समय समाज में प्रचलित हंसी ठिठोली , गायन वादन, हुड़दंग और अबीर इत्यादि के उद्भव और विकास को समझने के लिए, हमें उस वैदिक स्वरूप को समझना होगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व में निहित है। वैदिक यज्ञों में सोमयज्ञ सर्वोपरि है। वैदिक काल में प्रचुरता से उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़ कर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किए जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे जाते थे।यह सोमलता कालांतर में लुप्त हो गई। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसके अनेक विकल्प दिए गए हैं, जिसमें पूतिक और अर्जुन वृक्ष मुख्य है। अर्जुन वृक्ष हृदय के लिए अत्यंत शक्तिवर्धक माना गया है।आज भी आयुर्वेद में इसके छाल को हृदय रोगों के निवारण के लिए विशेष प्रशंसा की जाती है। महाराष्ट्र में आजकल सोमयागों के अनुष्ठान में राशेर नामक वनस्पति का प्रयोग किया जाता है।सोमरस इतना शक्तिवर्धक होता था कि इसको पीकर वैदिक ऋषियों को अमरता जैसी अनुभूति होती थी। ऋग्वेद में कहा गया है –अपाम सोमममृता अभूम। सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे– एकाह,अहीन और सत्रयाग।यह वर्गीकरण अनुष्ठान दिवसों की संख्या के आधार पर है।सत्रयाग का अनुष्ठान पूरे वर्ष भर चलता था। उसमें प्रमुख रूप से ऋषि गण भाग लेते थे और यज्ञ का फल ही दक्षिणा के रूप में मान्य था।गवामयन भी इसी प्रकार का एक सत्रयाग है,इसका अनुष्ठान 360 दिनों में सम्पन्न होता था।इसका उपान्त्य ( अन्तिम दिन से पूर्व का) दिन ” महाव्रत” कहलाता था।इस महाव्रत में प्राप्य यहां शब्द वास्तव में प्रजापति का द्योतक है, जो वैदिक परम्परा में संवत्सर के अधिष्ठाता माने जाते हैं। और इन्ही पर वर्ष की सुख समृद्धि निर्भर है। महाव्रत के अनुष्ठान का प्रयोजन इस प्रजापति को प्रसन्न करना है। ताण्ड्य ब्राह्मण के सामने भाष्य में इसका उल्लेख मिलता है । महाव्रत के अनुष्ठान के दिन वर्षभर अनुष्ठान में व्यस्त श्रान्त क्लांत ऋषिगण अपना मनोविनोद करते थे।इस दिन अनुष्ठान के साथ कुछ ऐसे आमोद प्रमोद किए जाते थे, जिनका प्रयोजन आनंद और उल्लासमय वातावरण की सृष्टि करना है।होलिकोत्सव इसी महाव्रत की परम्परा का संवाहक है। होली में जलाई जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नि का द्योतक है।
वैदिक युग से होलिका का विधान
वैदिक युग में इस यज्ञवेदी के समीप एक उदुम्बर वृक्ष की टहनी गाड़ी जाती थी, क्योंकि गूलर का फल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। हरिश्चन्द्रोपाख्यान में कहा गया है कि जो निरंतर चलता रहता है, यज्ञ में निरत रहता है, उसे गूलर के मधुर फल खाने को मिलते हैं। गूलर का फल इतना मीठा होता है कि उसके पकते ही उसमें कीड़े पड़ने लगते हैं।उदुम्बर( गूलर) वृक्ष की यह टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतिकात्मक अभिव्यक्ति करती थी। इसके नीचे बैठे वेदपाठी अपने- अपने शाखा के मन्त्रों का पाठ करते थे। सामवेद के गायकों की चार श्रेणियां थीं-उद्गाता,प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य । पहले वे सामगान के अपने- अपने भाग को गाते थे, फिर सभी मिलकर समवेत स्वर में गायन करते थे।
एरण्ड और गूलर की टहनी से स्थापित करते हैं होलिका
होली में लकड़ियों को चुनने से लगभग दो सप्ताह पूर्व गाड़ी जाने वाली एरण्ड वृक्ष की टहनी इसी औदुम्बरी ( गूलर की टहनी)का प्रतीक है।धीरे- धीरे इस गूलर वृक्ष का मिलना कठिन हो गया,तो अन्य वृक्ष के टहनियों का प्रयोग होने लगा। एरण्ड एक ऐसा वृक्ष है,जो सर्वत्र सुलभ माना गया है। संस्कृत में एक कहावत है, जिसके अनुसार यदि कोई वृक्ष सुलभ न हो तो वहां एरण्ड को ही वृक्ष माना लेना चाहिए –“निरस्तपादपे देशे एरण्डऽपि द्रुमायते”–।उद्गाता तो उदुम्बर काष्ठ से बनी आसन पर ही बैठ कर सामगान करता था। सामवेद के गाने वालों की यह मण्डली महावेदी के विभिन्न स्थानों पर घूम – घूम कर पृथक पृथक सामों का गायन करती थी। सामवेद के अतिरिक्त महाव्रत अनुष्ठान के दिन यज्ञवेदी के चारों ओर सभी कोणों में दुन्दुभि अर्थात नगाड़े भी बजाए जाते थे। इसके साथ ही जल से भरे घड़े लिए स्त्रियां -यह मधु है, यह मधु है –कहती हुई यज्ञवेदी के चारों ओर नृत्य करती थीं।तांड्य ब्राह्मण में इसका विशद वर्णन उपलब्ध होता है।इस नृत्य के समानांतर अन्य स्त्रियां और पुरुष वीणावादन करते थे।उस समय प्रचलित वीणाओं के अनेक प्रसंग मिलते हैं। इसमें अपघाटिला,काण्डमयी,पिच्छोदरा,बाण आदि मुख्य वीणाएं थी। कुछ वीणाएं सौ सौ तार की थीं।इस शततन्त्रीका जैसी वीणाओं से सन्तूर का विकास हुआ है।
होली में दिखने वाली हंसी ठिठोली का मूल अभिगर- अपगर संवाद में निहित है।भाष्यकारों के अनुसार अभिगर ब्राह्मण का वाचक है और अपगर शूद्र का।ये दोनों एक दूसरे पर आक्षेप करते हुए सांस परिहास करते थे।इसी क्रम में अनेक प्रकार की बोलियां बोलते थे, विशेष रूप से ग्राम्य बोलियों का प्रयोग किया जाता था। महाव्रत के विधान वर्ष भर की एकरसता को दूर कर वेदपाठी ब्राह्मणों के स्वस्थ मनोरंजन का वातावरण प्रदान करता था। यज्ञों की व्यवस्था ऋषियों ने मानव जीवन के समानांतर की है, जिसमें हास परिहास अभिन्न अंग है। महाव्रत के दिन घरों में स्वादिष्ट पकवान पकाए जाते थे। होली के आयोजनों में महाव्रत के इस विधि विधान का प्रभाव अद्यावधि निरन्तर परिलक्षित होता है। दोनों के अनुष्ठान का दिन एक ही है – फाल्गुनी पूर्णिमा। प्रारंभ में उत्सवों और पर्वों का आरंभ लघु बिन्दु से होता है, जिसमें निरन्तर विकास होता रहता है। सामाजिक आवश्यकताएं इनके विकास में विशेष भूमिका निभाती है।यही कारण है कि होली जो मूलतः एस वैदिक सोमयज्ञ के अनुष्ठान से आरंभ हुआ,आगे चलकर प्रह्लाद और बुआ होलिका के आख्यान से जुड़ गया।गवामयन के अन्तर्गत महाव्रत के इस परिवर्धित पर्व संस्करण में नई फसल ( नव शस्येष्टि) तथा मदनोत्सव अथवा वसन्तोत्सव समावेश भी इसी क्रम में आगे हो गया।
होलिका स्थापित करने की विधि
माघ शुक्ल पक्ष के पूर्णिमा के दिन वृक्ष की टहनी को गाजे बाजे के साथ अपने नगर या ग्राम के बाहर पश्चिम दिशा में होली का दण्डा आरोपित किया जाता है।इसे इन गंधादि से पूजन किया जाता है।जनता में इसे होलीदंड या प्रह्लाद के नाम से जाना जाता है।इसे नवान्नेष्टि का स्तम्भ भी माना जाता है।– इस दिन किए जाने वाले कृत्य — व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः काल स्नानादि के अनन्तर हाथ में जल,अक्षत, पुष्प, सुपाड़ी और द्रव्य लेकर संकल्प करे–मम बालकबालिकादिभि: सह सुख शांति प्राप्त्यर्थं होलिकाव्रतं करिष्ये।–और नि: शंकर होकर खेल खुद करें। परस्पर हंसे।इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल से प्रोक्षण करें और सूखा काष्ठ , सूखा उपले आदि स्थापित करें। सायंकाल जब होलिका दहन का मुहूर्त हो तो पुरवासियों के साथ होलिका दंड जहां गाड़ा गया हो , वहां जाएं और वहां पूर्वाभिमुख या उत्ताराभिमुख होकर होलिका दंड की पूजा करें और किसी अछूत के घर से अग्नि मंगाकर होली को दीप्तिमान करें और निम्न मंत्र का उच्चारण करें–“असृक्पाभय संत्रस्तै:कृता त्वं होलि बालिशै:।अतस्त्वां पूजयिष्यामि बूते भूतिप्रदा भव।” इस मंत्र से तीन परिक्रमा करें। पुनः प्रार्थना कर अर्घ्य प्रदान करें।होलिका के झंडे को शीतल जल से अभिषिक्त करें और घर से लाए जौं, गेहूं,चने की बालियों को सेंके। पश्चिम उन बालियों और भस्म को लेकर घर आएं।
घर में उसी अग्नि से पक्वान्न बनाएं।इस पर्व से सम्बन्धित की पौराणिक कथाएं भी है।इसे ढोंढा राक्षसी और प्रह्लाद की बुआ होलिका से जोड़ कर भी देखा जाता है।कहते हैं कि होली जलाने से ढूंढा नामक राक्षसी का दोष समाप्त हो जाता है। मान्यता है कि त्रेता युग में ढ़ूंढा बालकों का भक्षण करती थी और उसे उस समय के लोगों ने कोलाहल करके उसे नगर के बाहर किया था। होली के दिन शोरगुल करने से ढूंढा जनित नकारात्मक ऊर्जा का निष्कासन होता है और घर परिवार में सुख शांति का आगमन होता है।एक अन्य कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु की बहन प्रह्लाद जी का वध करना चाहती थी। हिरण्यकशिपु ने उसे प्रह्लाद को नष्ट करने की जिम्मेदारी सौंपी।उसे वरदान प्राप्त था कि वह आग में जल नहीं सकती।वह अपने भतीजे प्रह्लाद को फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन गोंद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। भगवान की कृपा से प्रह्लाद बच गए और होलिका जल कर भस्म हो गई।