सनातन धर्म-संस्कृति पर चोट करते ‘स्वयंभू भगवान’

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दृश्य 1 :

“वो परमात्मा हैं।”
किसने कहा ?
“किसने कहा का क्या मतलब..! उन्होंने ख़ुद कहा है वो परमात्मा हैं।”
मैं समझा नहीं, ज़रा साफ कीजिये किस परमात्मा ने ख़ुद कहा ?
“वही परमात्मा जिन्हें हम भगवान मानते हैं।”
अच्छा आप सूरजपाल सिंह उर्फ़ भोलेबाबा की बात कर रहे हैं।
“अरे..! आपको पता नहीं है क्या..?, वही तो हैं साक्षात परमात्मा !”

दृश्य 2 :

  • सवा सौ से ज़्यादा लोग यहाँ हुए हादसे में मारे गये, इसका ज़िम्मेदार किसे मानते हैं आप ?
  • “जीना मरना तो लगा रहता है साहब। ये लोग जो यहाँ मरे हैं, दरअसल मरे नहीं, इन्हें तो मोक्ष मिल गया। साक्षात परमात्मा के दर्शन करते हुए इस संसार से विदा होना सबके नसीब में नहीं होता।”
  • इतनी बड़ी घटना घटने के बाद अब भी आप सूरजपाल उर्फ़ भोले बाबा को परमात्मा मानते हैं ?
  • “मानते हैं का क्या मतलब..! अरे वो हैं परमात्मा, उन्होंने ही तो ये संसार बनाया है। आप उनको अभी जानते नहीं हैं न इसलिये अज्ञानियों की तरह ऐसी बेवकूफ़ी की बात कर रहे हैं, एक बार आ जाइये उनकी शरण में तब पता चलेगा आपको वही हैं इस धरती के एकमात्र भगवान।”

दृश्य – 3 : 

  • आप पढ़ेलिखे समझदार भलेमानस जान पड़ते हैं। कहाँ तक पढ़ाई की है आपने, क्या करते हैं आप..?
  • (हँसते हुए) “क्या करेंगे आप ये सब जानकर, फिर भी बता देता हूँ, मैंने पीएचडी की है, शिक्षा के लिये विदेश भी गया हूँ। डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता हूँ।
  • इतना बड़ा हादसा हो गया है यहाँ इतने लोग मारे गये हैं। क्या आप इसके लिये सूरजपाल सिंह उर्फ़ भोले बाबा को ज़िम्मेदार मानते हैं ? जिन्हें भोलेभाले लोग अब भी ‘अपना भगवान’ बता रहे हैं।
  • “(मुस्कराते हुए) ऐसा है आप जानते हैं कि सदियों से दुनिया भर में भगवान के नाम पर अपनी सत्ता चलाते हुए एक छोटे से समूह ने एक बहुत बड़े तबके को बेवकूफ बना रखा है, उनकी आँखों पर पर्दा डाल रखा है। अब जब साक्षात परमात्मा स्वयं सामने आकर उनका पर्दाफ़ाश कर रहे हैं तो उन्हें तकलीफ़ तो होगी ही न ! इसीलिये लोग ‘परमात्मा’ को बदनाम करने के लिये इस तरह की साज़िश रच रहे हैं। जबकि सच यह है कि पता नहीं कितने रोगी बस उनके आश्रम में लगे हैंडपंप का पानी पी कर ठीक हो गये। हार्ट, लीवर, किडनी यहाँ तक कि कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित गम्भीर रोगियों को उन्होंने अपनी दिव्यदृष्टि से बस एक नज़र डाल के ठीक कर दिया। हमारे ‘परमात्मा’ तो लोगों को जीवन देते हैं, वो भला अपने भक्तों को कैसे मार सकते हैं..!”
  • ताज्जुब है, आप जैसा पढ़ालिखा व्यक्ति भी ऐसी बात कर रहा है..! अरे एक सामान्य इंसान की तरह जन्मे व्यक्ति को परमात्मा-भगवान बता रहे हैं आप ! जवाब के बजाय सवाल आया – “क्योँ राम नहीं पैदा हुए थे..? कृष्ण नहीं जन्मे थे क्या..?”
  • राम, कृष्ण या अन्य देवी-देवताओं के अवतार के बारे में तो न जाने कितने वेद पुराण ग्रन्थ आदि में उल्लेख मिलता है, कहाँ है उनमें कहीं ‘आपके परमात्मा’ का कोई ज़िक्र..?

(पुनः मुस्कराते हुए) – “किसने लिखे ये वेद पुराण ग्रन्थ..? किसी इंसान ने ही न..! यही तो सदियों से चला आ रहा वो तिलिस्म है जो आप जैसा सामान्य इंसान जानता ही नहीं, मुझे भी कहाँ पता था..! वो तो जब स्वयं को ‘परमात्मा’ को सौंप दिया तब उन्होंने ही मुझे मेरी आत्मा से मिलवाया, मतलब आत्मसाक्षात्कार कराया.. मुझे ‘सच्चा ज्ञान दिया’। ऐसे आपको समझ नहीं आयेगी मेरी बात, जब तक उनकी कृपा न हो आप समझ ही नहीं सकते, बस एक बार आप भी आ जाइये ‘परमात्मा’ की शरण में तब आपको पता चलेगी दुनिया की सच्चाई, तभी आप जान पायेंगे हमारे ‘परमात्मा’ क्या हैं, अरे इस दुनिया का कौन सा ऐसा बिगड़ा काम है जो मात्र उनकी चरणरज माथे पर लगा लेने से बन न जाय..! उन्होंने हम सब को ही नहीं इस सृष्टि को भी बनाया है। ये जिन्हें आप भगवान मानते हैं न, दरअसल इनको भी उन्होंने ही बनाया है, ये सभी देवी देवता उन्हीं में समाये हैं।”

ये कोई कपोल कल्पना नहीं है बल्कि प्रामाणिक प्रतिक्रिया है हाथरस हादसे के बाद सूरजपाल सिंह उर्फ़ नारायण साकार उर्फ़ विश्व हरि उर्फ भोले बाबा के भक्त-अनुयायियों की। ताज़्जुब की बात तो यह कि ऐसा नहीं कि इन ‘भक्तों’ में सिर्फ़ अनपढ़ गंवार, कम पढ़ेलिखे भोलेभाले ग्रामीण ही शामिल हों, बल्कि इनमें शहरों में आधुनिक जीवनशैली में रचेबसे, आलीशान घरों में रहने वाले पढ़े लिखे यहाँ तक कि उच्च शिक्षाप्राप्त डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, अध्यापक, सरकारी अधिकारी/कर्मचारी, बड़े बड़े व्यापारी-व्यवसायी नेता-अभिनेता सब शामिल हैं। अजब गजब देश है हमारा। सूरजपाल सिंह उर्फ़ नारायण साकार उर्फ़ विश्व हरि उर्फ भोले बाबा ऐसा पहला धूर्त नहीं है जिसने स्वयं को भगवान या फिर भगवान से भी ऊपर परमात्मा घोषित कर दिया हो, और लाखों की संख्या में उसके अनुयायी ‘मूर्ख अंधभक्तों’ ने इसे न केवल सच मान लिया बल्कि इसे सही साबित करने के लिये लड़ने मरने पर उतारू हो गये। इससे पहले भी कई और तथाकथित ‘स्वयंभू भगवानों’ ने न केवल ख़ुद ही ख़ुद को परमात्मा, विधाता, आदिशक्ति, देवी-देवता, भगवान घोषित कर दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए सारे देवी देवताओं को स्वयं में समाहित अथवा अपने अधीन बता दिया। कुछ ने तो यहाँ तक दावा कर दिया कि फलाँ-फलाँ देवी-देवता को मैंने ही तो बनाया..! और मज़े की बात इनके अंधभक्तों ने आँख बंद कर उसे सच भी मान लिया !

दरअसल विश्वास और अंधविश्वास हैं तो विपरीत ध्रुव किंतु इनमें फ़ासला बहुत बारीक है। एक हल्की से रेखा पार हुई और हो गये इधर से उधर। श्रद्धा और भक्ति जैसे ही ‘अंध’ की श्रेणी में आती है व्यक्ति के सोचने समझने की शक्ति जाती रहती है, बुद्धि कुछ इस तरह कुंद/संकुचित हो जाती है कि वो अपने ‘स्वयंभू भगवानों’ के बताये/बनाये गये दायरे से बाहर कुछ सोच ही नहीं सकता। ये तथाकथित ‘स्वघोषित स्वयंभू देवी-देवता’ या इनके बनाये गये विधान कुछ ऐसा चक्कर चलाते हैं कि और कुछ हो न हो किंतु इनके चंगुल में आया व्यक्ति ‘आत्मसाक्षात्कार या सच्चा ज्ञान’ के नाम पर कूपमण्डूक हो सिर्फ़ इनका अंधभक्त बन के रह जाता है। अज्ञात और आश्चर्यजनक ढंग से वो इनका कुछ ऐसा मुरीद बन जाता है कि इनके लिये मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। इनकी कही ऊलजलूल बातें भी उसके लिये ब्रह्मवाक्य और दुनिया के सारे वेद-पुराण-ग्रन्थ आदि सब झूठे..! अलबत्ता उसकी निगाह में हज़ारों साल पहले ये सारे ग्रन्थ तो रचे ही बस इस साज़िश के साथ थे कि ‘इनके वाले देवी-देवता’ का रास्ता रोक सकें..! अंधभक्तों की इस मान्यता में अनपढ़-गंवार या पढेलिखे का भेद नहीं होता। सब धान बाइस पसेरी। विशिष्ट ‘आत्मसाक्षात्कार या सच्चे ज्ञान’ द्वारा किसी के ज्ञान चक्षु खुलें न खुलें हाँ सांसारिक आँखों से ‘खुली आँखों’ भी देखने-समझने की शक्ति जाती रहती है। ऐसा मोतियाबिंद हो जाता है सबकी आँखों में कि उन्हें सिर्फ़ वही दिखाई पड़ता है जो इनके ‘स्वयंभू सरगना’ इन्हें दिखाना चाहें।

मजेदार तथ्य यह कि इस तरह के प्रत्येक स्वघोषित देवी-देवता के अनुयायी सिर्फ़ अपने वाले को ही असली बाकी सबको धूर्त-मक्कार-फ़र्ज़ी-फ्राड बताते हैं। आनादिकाल में उल्लिखित 33 करोड़ देवी देवताओं में समन्वय-सामंजस्य सह अस्तित्व, सम्मान सहज ही दिख जाएगा किंतु क्या मजाल जो ये ‘आधुनिक-भगवान’ और इनके अंधभक्त एक दूसरे को फूटी आँख भी सुहा सकें..! अपने अलावा किसी अन्य का अस्तित्व किसी को किसी क़ीमत पर बर्दाश्त नहीं। ये सभी अपने तथाकथित ‘प्रवचन’ के दौरान दूसरे को धूर्त बताते, भलाबुरा कहते, यहाँ तक कि गरियाना नहीं भूलते। इनके अंधभक्त अनुयायी तो ‘अपने वाले’ को छोड़ दूसरे का नाम सुनना भी पसंद नहीं करते। एक के सामने दूसरे का नाम भर लीजिये कि उनके मुँह का कसैला स्वाद चेहरे पर साफ़ झलक जायेगा। बाहरहाल ये तो बात हुई इन ‘स्वयंभू सरगनाओं’ के अंधभक्ति आधारित साम्राज्य के मनोविज्ञान की, अब थोड़ा विश्लेषण करते हैं इनके ‘प्रादुर्भाव’ और विस्तार का।

हमारी भारतभूमि अनादि काल से धर्म-धरा रही है। धर्मपरायणता जहाँ इसका मेरुदंड है वहीं धर्मभीरुता इस देश का सनातन संस्कार। वैदिक और पौराणिक काल में एक से बढ़कर एक ऋषि-मुनि संत-महात्मा मनीषी-विद्वान हुये। उन्होंने पहाड़-पाताल गुफाओं कंदराओं से लेकर व्यवहारिक-सांसारिक जीवन में रहते बरसों बरस जप-तप तपस्या की। सामान्य से लेकर गूढ़ रहस्य उजाकर करते ज्ञान-आधारित अनेकानेक ग्रन्थ लिखे किंतु उनमें से कोई भी ऐसा ‘महाज्ञानी’ या दम्भी नहीं हुआ जो ख़ुद को ही देवी-देवता, भगवान-परमात्मा घोषित कर दे! ये सिलसिला अनादिकाल से शुरू हो मध्यकाल में आदिशंकराचार्य तक कायम दिखाई पड़ता है। तो फिर आधुनिक काल आते आते ऐसा क्या हुआ जो तेज़ी से इन ‘स्वयंभू-स्वघोषित सरगनाओं’ का ‘उदय’ होने लगा ! गहन शोध के बाद जो विश्लेषण मैं कर पाया उसमें उभरते कुछ मुख्य बिंदु यहाँ रख रहा हूँ।

लगभग साढ़े तीन चार सौ साल के मुगलकालीन दौर तक इस तरह के ‘स्वघोषित भगवान’ सोते दिखाई पड़ते हैं। किंतु अंग्रेज़ी हुकूमत जाते जाते इस तरह के ‘फ़र्ज़ी भगवानों’ के ‘जागने’ का दौर शुरू हो जाता है। दरअसल ये एक सोची समझी दूरगामी साज़िश का परिणाम है। धर्म प्रसार के लिये जहाँ इस्लाम का मुख्य हथियार क्रूरता है तो वहीं इस मोर्चे पर ईसाइयत का हथियार रहा है कुटिलता। एक बल का सहारा लेता है तो दूसरा छल की नीति अपनाता है। इस्लामी शासकों ने दुनिया भर में तलवार के बल पर बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन कराया। भारत में भी इस निमित्त क्रूरता की पराकाष्ठा जानने समझने के लिये गुरु गोविंद सिंह और उनके साहबजादों का उद्धरण पर्याप्त है। ईसाइयों ने इस बात का अध्धयन करना शुरू किया कि क्रूरता की पराकाष्ठा पार करने के बाद भी मुस्लिम शासक इस देश का इस्लामीकरण क्यों नहीं करा पाये। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि इस देश में सनातन संस्कार की जड़े बहुत गहरी हैं और उससे भी ज़्यादा मज़बूत है वैदिक शिक्षा पर आधारित गुरुकुल शिक्षा प्रणली। इस्लामी शासकों ने नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों समेत अनेक बड़े शिक्षा संस्थानों को तो ध्वस्त कर दिया, किंतु देश के सुदूर अंचलों में फैले गुरुकुल लाख जतन के बावजूद उनका कोपभाजन बनने से बचे रह गये।

गुरुकुल के सुदृढ नेटवर्क का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेज़ी गजट के अनुसार सन 18 सौ पचास-साठ के दशक तक भारत में कुल 7 लाख 32 हजार गुरूकुल अपनी पूर्ण क्षमता से संचालित थे। अंग्रेज यह देखकर दंग रह गए कि इसी गुरूकुल शिक्षा प्रणाली के कारण उस कालखंड में भारत की नब्बे प्रतिशत से अधिक आबादी शिक्षित, सभ्य और धर्मभीरु थी। उनके इस अध्ययन से निष्कर्ष निकला कि यदि गुरुकुल व्यवस्था ऐसे ही चलती रही तो ईसाइयत का प्रचार प्रसार तो दूर भारत को लंबे अरसे तक गुलाम बनाये रखना भी संभव नहीं होगा। इससे पार पाने के लिये उन्होंने एक नीति के तहत सबसे पहले वैदिक शिक्षा पद्धति को ध्वस्त करने का निर्णय लिया गया।

इस मिशन को अंजाम देने के लिये लोर्ड मैकाले और कर्नल जॉनस्टोन जैसे धूर्त अंग्रेज अफसरों की तैनाती की गई। लार्ड मैकाले ने एक ड्राफ्ट तैयार किया जिसके आधार पर 1858 में इंडियन एजूकेशन ऐक्ट लागू कर एक झटके में गुरुकुल शिक्षा पद्धति को ध्वस्त कर भारत की वैदिक संस्कृति की रीढ़ पर प्रहार किया गया। इस एक्ट के आने का तात्कालिक दुष्प्रभाव यह हुआ अपना देश जो गुरुकुल शिक्षा पद्धति के तहत 99% मात्र साक्षर नहीं बल्कि शिक्षित आबादी वाला देश था वो रातोंरात पश्चिमी पैरामीटर के अनुसार 99% अशिक्षित आबादी वाला देश हो गया। साज़िश के दूसरे चरण के तहत अब बारी भारतीय संस्कृति, सभ्यता, संस्कार, परम्परा, आस्था आदि पर चोट पंहुचाने की थी। इस नीति का उद्देश्य इस देश की सनातन सामाजिक व्यवस्था, पारंपरिक और धार्मिक-आध्यत्मिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करते हिंदू समाज को विखंडित कर मानसिक रूप से गुलाम बनाया जाना था।

चूंकि अंग्रेजों ने क्रूरता और बल के स्थान पर कुटिलता और छल का रास्ता चुना था इसलिए उन्होंने एक दूरगामी रणनीति के तहत बिना धर्म परिवर्तन कराये हिन्दू समाज में ही कुछ अतिमहत्वाकांक्षी धूर्तों को परोक्ष समर्थन देना या चुपचाप प्रायोजित कर ‘प्लांट’ करना शुरू किया जो हिन्दू धर्म का ही चोला धारण रखते हुए इसकी जड़ों को खोखला करने का काम कर सकें। ये दीर्घकालिक प्रक्रिया आज भी जारी है। जिसे सनातन द्रोही विदेशी ताकतों द्वारा हर तरीक़े से भरपूर समर्थन और सहायता दी जा रही है।

आप ध्यान दें तो ज्ञात होगा कि बीसवीं शताब्दी से लेकर अब तक ये जितने भी स्वघोषित स्वयंभू ‘देवी-देवता, भगवान-परमात्मा’ प्रकट हुए हैं उनमें एक बात समान रूप से दिखाई देगी। अपने गोल ‘गैंग’ में शामिल होने वाले (या फँसने वाले) कुंदबुद्धि मूढ़मगज अंधभक्तों के लिये ये कुछ आवश्यक नियम निर्देश जारी करते हैं। ये सभी नियम-निर्देश उस संगठन/समूह पंथ/सम्प्रदाय के शिकंजे में आये शिकार को वैदिक सनातन संस्कृति से परे धकेलने वाले होंगे।

जैसे माथे पर चंदन टीका-तिलक आदि न लगायें, चरणस्पर्श न करें, जनेऊ धारण न करें, मूर्तिपूजा मंदिर से दूर रहें, भारतीय पारंपरिक व्रत-त्योहार आदि से परहेज करें, जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले सनातन संस्कृति के सोलहों संस्कारों से जुड़े रीत-रिवाज़, अनुष्ठान आदि सब पाखंड हैं आडम्बर हैं अतः इनसे गुरेज़ करें। चूंकि ब्राह्मण अनादिकाल से सनातन वैदिक संस्कृति के संचालन की धुरी रहा है अतः ब्राह्मण का तीव्र विरोध इन सभी ‘स्वयंभू-सरगनाओं’ में समान शगल मिलेगा।

धर्म-अध्यात्म अध्ययन के मामले में प्रायः ‘करिया अक्षर भैंस बराबर’ इन सभी धूर्तों ने अपने जीवनकाल मे भले ही कभी कोई एक आध्यत्मिक/धार्मिक पुस्तक लिखना तो दूर शायद पढ़ी भी न हों, किंतु सारे वैदिक-पौराणिक धर्म ग्रन्थों को एक सुर में निरर्थक पोथी पत्रा करार देंगे। संस्कृत में भले शून्य हों किंतु कुछ टूटी-फूटी तो कुछ धाराप्रवाह अंग्रेज़ी अवश्य जानते होंगे। इनका यह गुण ऐसे लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने में बड़ा कारगर होता है जो थोड़ा कम पढ़े-लिखे हैं अथवा जो शैक्षिक और सामाजिक तौर पर पीढ़ियों से विपन्न रहे हैं किंतु ख़ुद थोड़ा पढ़लिख कर, थोड़ा धनार्जन कर आधुनिक दिखने की चाह रखते हैं। शोध करके देख लीजिये, ये जितने डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर, मास्टर इनके अनुयायियों में मिलेंगे उनमें ये तथ्य-लक्षण समान पाया जाएगा। दूसरे अंग्रेज़ी ज्ञान देसी अंधभक्तों पर रौब ग़ालिब करने के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्यता बढ़ाने(धंधा फैलाने) में सहायक सिद्ध होता है। ये सभी बहुरूपिये स्वयंभू सरगना भले ही एक दूसरे के कट्टर विरोधी हों किंतु एक मुद्दे पर इनमें गजब की समानता दिखाई पड़ेगी।

इन सभी बहुरूपियों के निशाने पर हमेशा सनातन धर्म ही रहता है। और मज़ेदार तथ्य यह कि ये सभी अपना साम्राज्य फैलाने के लिये हिन्दू धर्म-संस्कृति का छद्मावरण ओढ़, हिन्दू देवी देवताओं, हिन्दू धर्म के धार्मिक-आध्यात्मिक प्रतीकों को ही अपनी ठगविद्या का हथियार भी बनाते हैं। ऐसे सारे धूर्त-ठग हिन्दू धर्म मे व्याप्त पाखंड कुरीतियों पर चोट करने के नाम पर बड़ी चालाकी से अपना स्वयं का धर्म-सम्प्रदाय स्थापित करने की कुटिल मंशा के साथ अपना प्रचार प्रसार करते दिखाई पड़ेंगे। एक और बात इनमें समान रूप से देखी जा सकती है, इन्हें हिन्दू धर्म संस्कृति परंपरा में तो अनेक बुराई दिखाई पड़ेंगी किंतु अन्य धर्मो की कुरीतियों विसंगतियों की तरफ ये न केवल आँख मूँदे रहेंगे बल्कि परोक्ष/प्रत्यक्ष रूप से उनका महिमामंडन करते उन्हें अपनाने का निर्देश ही नहीं बल्कि स्वयं दृष्टांत देते भी दिखाई पड़ेंगे। हिन्दू धर्म प्रतीकों, सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कार, कर्मकांड के प्रति तो ये तरह तरह के ऊलजलूल कुतर्क, झूठे सच्चे किस्से और मनगढ़ंत दृष्टांत देते उनसे दूर रहने की सख़्त हिदायत देते दिखाई देंगे किंतु बेशर्मी से अन्य धर्मों के बेसिरपैर के पाखंड को प्रश्रय देने से इन्हें कोई गुरेज़ नहीं।

ये हिन्दू सनातन मान्यताओं का उपहास कर उनके प्रति अपने ‘भक्तों’ के मन मे हीन भावना पैदा करने के साथ ‘अपने गैंग’ शामिल लोगों को कूपमण्डूक बनाने के बावजूद विशिष्ट होने का अहसास भरेंगे। एक और मज़ेदार तथ्य मिलेगा यूँ तो ये स्वयंभू देवी देवता दकियानूसी मान्यताओं से दूर रहने की ताक़ीद करते बड़े बड़े क्रांतिकारी भाषण देंगे किंतु आश्चर्यजनक रूप से अपने अंधभक्त अनुयायियों को भूत-प्रेत का भय दिखाना नहीं भूलेंगे। ये कुछ वो लक्षण हैं जो इन तथाकथित स्वयंभू देवी-देवताओं में समान रूप से अवश्य देखने को मिलेंगे। अब सवाल ये उठता है कि बड़ी संख्या में ‘भक्त’ इनके झाँसे में आ कैसे जाते हैं ? आइये थोड़ा इस तिलिस्म को भी समझने का प्रयास करते हैं।

धार्मिक आध्यात्मिक चेतना के क्षरण के के कारण हमारी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का तेज़ी से ह्रास हो रहा है। संयुक्त परिवार रहे नहीं जिनमें बड़े-बूढ़े धार्मिक आध्यात्मिक किस्से कहानियां प्रसंग सुनाकर बच्चों में धर्म-संस्कार रोपित करते उनकी आध्यात्मिक चेतना जागृत करते थे। ‘न्यूक्लियर फेमिली’ के ज़माने में हर व्यक्ति वस्तुतः एकाकीपन का शिकार है। ऐसे में वो एक अवलंबन ढूंढता है। धार्मिक आध्यात्मिक चेतना तो उसकी जागृत है नहीं कि वो स्वयं को प्रेरित कर सके और गूढ़ ग्रंथों का अध्ययन उसके बूते के बाहर है। सो ऐसे में मानसिक शांति की तलाश में इन बहुरूपियों की लच्छेदार बातों में फंस जाता है। इस तरह के किसी समूह से जुड़ने पर उसे झूठा सुरक्षाबोध होने लगता है। इसके बाद बड़ी भूमिका अदा करते हैं संयोग, मनोविज्ञान और विशुद्ध विज्ञान।

रोग-व्याधि लाभ-हानि सफलता-असफलता ये मानव जीवन का अंग हैं। ऐसे समूहों से जुड़े लोग भी इससे अछूते नहीं, बल्कि यह मुख्य तथ्य है कि अधिकांश लोग इन्हीं वजहों से ऐसे ‘समूह’ का शिकार बनते हैं। अब मान लीजिए समूह में सौ सदस्य हैं। दुर्योग से उनमें से दस किसी रोग-व्याधि से पीड़ित हो गये। संयोग से उनमें से दो-चार भी वैज्ञानिक(चिकित्सा), प्राकृतिक या स्वाभाविक कारणों से स्वस्थ हो गये..! बस अंधविश्वास, अंधश्रद्धा की जड़ों को खाद पानी मिल गया। वो स्वयं और उनका समूह अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से ज़ोर शोर से इस बात का
बखान-प्रचार करना शुरू कर देंगे – “अरे डॉक्टरों ने तो हाथ खड़े कर दिये थे, कोई सम्भवना नहीं थी, निराश हो हमने तो आँख बंद कर हाथ जोड़ बस प्रार्थना की और धन्यभाग हमारे जो ऐसे में हमारे ‘भगवान-परमात्मा देवी-देवता’ ढाल बनकर खड़े हो गये !” यही सिद्धांत लाभ-हानि, साफलता-असफलता के मामले में भी लागू होते हैं।

सारी स्थितियों के बावजूद ये ‘कूपमण्डूक अंधभक्त’ होते तो हैं समाज का ही हिस्सा। जैसे ही उपरोक्त समस्याओं से दो-चार सामान्य समाज का कोई भी व्यक्ति संयोग से इनके संपर्क में आया या समूह के सदस्य/सदस्यों ने योजनाबद्ध तरीक़े से उससे संपर्क किया, वो उस व्यक्ति को स्वयं से जुड़े अथवा ‘शरणागत’ हुए किसी अन्य सदस्य के अर्धसत्य आधारित झूठे-सच्चे क़िस्से ख़ूब मिर्च-मसला लगा बढ़ाचढ़ा कर दृष्टांत के रूप में सुनाएँगे, इतना ही नहीं उसकी तस्दीक़ के लिए ‘तथाकथित भुक्तभोगी’ सदस्य से मिलवाएंगे भी। बस ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज़ पर वो परेशान हाल हताश निराश व्यक्ति इनके झाँसे में आ इनके ‘देवी-देवता परमात्मा-भगवान के चरणों मे समर्पित हो गया। ऐसे दस मामलों में से संयोगवश दो चार का भी ‘कल्याण’ हो गया तो बस फँस गया फंदे में नया शिकार। अच्छा जिनका काम बन गया उनपर तो सिर्फ़ इनके ‘आराध्य’ की कृपा, जिनका नहीं बना उनके लिये रटी रटाई सांत्वना है ‘होनी को कौन टाल सकता है..!?, पूर्वजन्मों के पापों से भी तो मुक्त होना है अन्यथा मोक्ष कैसे प्राप्त होगा..! आप स्वार्थवश अभी ही जुड़े थे न, सो ‘आराध्य’ आपकी परीक्षा ले रहे हैं। पूर्ण समर्पित भाव से जुड़े रहेंगे तो निश्चित ही कल्याण होगा, फ़लाने के साथ भी ऐसा ही हुआ था, ढिकाने को देख लीजिये क्या था,आज क्या है..!” आदि आदि।
मुझे अंदाज़ है आप में से अधिकांश ने नक-कटों के गाँव की कथा सुनी होगी। इन ‘स्वयंभू सरगनाओं’ साम्राज्य धीरे धीरे ठीक उसी
तर्ज़ पर फैलता है।

यहाँ ज़्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि इधर हाल के कुछ वर्षों में रामपाल, राम रहीम, राधे माँ, नित्यानंद, आसाराम और अब सूरज पाल जैसे (अभी जीवित) कुछ ‘स्वघोषित भगवान’ स्वयंभू सरगनाओं के काले कारनामे सामने आने के बाद भी भले ही इनके अधिकांश ‘अंधभक्त’ आज भी इन्हें ‘भगवान’ ही मानें किंतु राहत की बात यह है कि नये लोग इनकी ओर आकर्षित नहीं होंगे, उनका मोह भंग होगा, इनके झाँसे में आने से बच जायेंगे, अर्थात जीते जी इनका पर्दाफ़ाश हो गया। किंतु ज़्यादा चिंता का विषय वो ‘स्वघोषित देवी-देवता’ हैं जो अपने गोरखधंधे का मकड़जाल फैलाते अपने भक्तों को कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से बचाने का दावा करने के बावजूद ख़ुद सामान्य या असाध्य बीमारी से पीड़ित होने पर सामान्य इंसान की तरह अस्पताल या डॉक्टरों से इलाज कराते अपनी मौत मर के इस दुनिया से निकल लिये किंतु उनके अंधभक्त अनुयायियों द्वारा उनके तथाकथित ऊलजलूल प्रवचनों और मनगढ़ंत साहित्य में समाई सनातन धर्म-संस्कृति को नुकसान पंहुचाने वाली सामग्री आज भी बेरोकटोक धड़ल्ले से परोसी जा रही है। जिसे कोई भी व्यक्ति इनके लिखित, मुद्रित साहित्य और रिकॉर्डेड प्रवचनों में देख सुन सकता है। ये सामग्री धीरे धीरे ही सही किंतु लोगों को दिग्भ्रमित करते सनातन धर्म को बड़ा नुकसान पँहुचाने वाली साबित हो सकती है। दरअसल जीवित ‘स्वघोषित देवी-देवताओं’ से ज़्यादा ख़तरनाक और नुकसानदेह मर चुके ‘स्वघोषित देवी-देवताओं’ के प्रवचन और साहित्य हैं। उनका पर्दाफ़ाश बहुत ज़रूरी है। धर्म संस्कृति के क्षेत्र में सलंग्न व्यक्ति-विभूतियों, ज़िम्मेदार संस्थाओं और सरकार को इस दिशा में गंभीरता से देखने-समझने और आवश्यक कार्यवाही करने की ज़रूरत है।

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