बासन्तिक नवरात्र रहेगा पूरे नौ दिनों का

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Shrad Chandra mishra
आचार्य पं शरदचन्द्र मिश्र, अध्यक्ष- रीलीजीयस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी

2 अप्रैल दिन शनिवार से बासन्तिक नवरात्र प्रारंभ हो रहा है‌‌ यह नए संवत्सर का प्रथम दिन भी है। शनिवार को नया वर्ष प्रारंभ होने के कारण वर्ष का अधिपति शनि ग्रह ही माना जाएगा। इस वर्ष नवरात्र पूरे नौ दिनों का है। कोई तिथि न खंडित,(क्षय) है और न वृद्धि को प्राप्त है। यह नवरात्रि संतुलन को बनाए रखने वाला और भारतीय समाज में सौम्यता और संतुलन की दृष्टि से उत्तम रहेगा। 2 अप्रैल दिन शनिवार को ( ऋषिकेश पंचांग के अनुसार) सूर्योदय 5 बजकर 51 पर हो रहा है और प्रतिपदा तिथि का मान दिन में 11 बजकर 29 मिनट तक रहेगा। इसी तरह रेवती नक्षत्र दिन में 12 बजकर 57 मिनट तक है, पश्चात अश्विनी नक्षत्र है। ऐन्द्र योग प्रातः काल 8 बजकर 22 मिनट तक, पश्चात् वैधृति योग है। इस दिन धाता नामक औदायिक योग भी है। बासंतिक नवरात्रि का समापन 10 अप्रैल दिन रविवार को हो रहा है। इस दिन दुर्गानवमी और रामनवमी का महापर्व आयोजित होगा। बसंत ऋतु में आयोजित होने वाले इस नवमी को रामनवमी के नाम से जाना जाता है।इसमें शक्ति और शक्तिधर दोनों की पूजा होती है जहां एक तरफ मां दुर्गा की आराधना की जाती है वहीं दूसरी तरफ भगवान विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी की भी आराधना प्रतिदिन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान रामचंद्र का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी के दिन हुआ था, इसलिए लोक में यह दुर्गानवमी और राम नवमी दोनों के नाम से विख्यात है। महानिशा पूजा बलिदान के लिए 8 अप्रैल शास्त्रोक्त मान्य रहेगा ‌ 8 अप्रैल को सूर्योदय 5 बजकर 47 मिनट पर और सप्तमी तिथि का मान सायंकाल 8 बजकर 29 मिनट, पश्चात रात में अष्टमी है। इस दिन महानिशा पूजा और देवी के निमित्त बलिदानादिक क्रियाएं संपन्न की जाएंगी।

चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से लेकर नवमी तक व आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तक जो दुर्गा का पवित्र पर्व काल है, उसे नवरात्र कहते हैं। यह पूजा परम सिद्धिदायिनी है। जिसमें नौ दिनों तक नवरात्र व्रत किया जाता है। नवरात्र व्रत करने वाले को नौ दिनों तक केवल एक समय भोजन करना होता है। जो नवरात्र व्रत में उपवास नहीं कर सकते हैं, वे यदि सप्तमी, अष्टमी और नवमी इन तीन तिथियों में उपवास करें, तो भी उनकी कामना सिद्ध होती है। प्रायः देखा जाता है कि जन सामान्य नवरात्रि के आदि और अंत दो दिनों में ही व्रत करके पुण्यार्जन प्राप्त कर लेते हैं। इस व्रत में नौ दिन,सात दिन, पांच दिन, तीन दिन, दो दिन या केवल एक दिन भी व्रत करतें हैं। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस व्रत में एक समय भोजन करके या रात्रि में भोजन करके, या बिना मांगे जो मिल जाए, उसी को प्राप्त करके भगवती दुर्गा की पूजा समस्त लोग प्रसन्नता पूर्वक भक्ति भाव के साथ प्रत्येक ग्राम, नगर और घर में करते हैं। शास्त्र विधि के अनुसार जो पूजा करने में असमर्थ है, वे गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य से पंचोपचार पूजा करें। यदि पंचोपचार की सामग्री भी संभव न हो, तो केवल पुष्प एवं जल से ही पूजा करें। यहां तक कहा गया है कि यदि पुष्प और जल भी प्राप्त न हो तो केवल भक्ति भाव से प्रणाम करके ही देवी की आराधना करें। भविष्य पुराण में कहा गया है नवरात्र में तिथि न्यून अथवा वृद्धि हो तो भी प्रतिपदा से ही अर्चन आरंभ करें और समस्त कार्य का संपादन इन्हीं दिनों में ही संपन्न करें। 9 अप्रैल दिन शनिवार को महाष्टमी का व्रत किया। जाएगा इस दिन सूर्योदय 5 और बजकर 46 और अष्टमी तिथि का मान रात्रि 10 और बजकर 26 तक रहेगा इसी तरह पुनर्वसु नक्षत्र भी संपूर्ण दिन और अर्द्धरात्रि के बाद 1 बजकर 56 तक है। सूर्योदय की तिथि में अष्टमी होने से और अर्धरात्रि में नवमी का संयोग होने से महाष्टमी व्रत के लिए यह दिन पूर्ण प्रशस्त रहेगा।

दुर्गानवमी या रामनवमी 10 अप्रैल दिन रविवार को

इस दिन सूर्योदय 5 बजकर 45 और नवमी तिथि का मान संपूर्ण दिन एवं रात को 12 बजकर 8 मिनट तक है। इसी तरह पुष्य नक्षत्र भी संपूर्ण दिन व रात्रि शेष 4 बजकर 8 तक है। दिन में सुकर्मा और धृति नाम का योग तथा श्रीवत्स नाम का महा औदायिक योग भी है। नवरात्र में अमावस्या से युक्त प्रतिपदा की तिथि अच्छी नहीं होती है। यदि आरंभ में घट स्थापन के समय चित्रा और वैधृति का योग हो तो उसका परित्याग कर देना चाहिए। क्योंकि चित्र में धन और वैधृति में पुत्र का नाश होता है। धर्म शास्त्र के अनुसार घट स्थापन का समय प्रातः काल उत्तम होता है। मध्याह्न के समय अभिजीत मुहूर्त में कलश स्थापन करना अत्यंत उत्तम माना जाता है। देवी का आवाहन,प्रवेशन,नित्यार्चन और विसर्जन यह सब प्रातः काल में शुभ होते हैं‌ अतः उचित समय का अनुपयोग न होने दें । स्त्री हो या पुरुष सब को नवरात्रि व्रत करना चाहिए‌‌ यदि कारणवश न हो सके तो प्रतिनिधि( पति- पत्नी, जयेष्ठ पुत्र,सहोदर या ब्राह्मण ) द्वारा संपन्न करावें। नवरात्र व्रत नौ रात्रि पूर्ण होने से पूर्ण होता है, परंतु इतना समय न मिल सके तो कम दिन में भी संपन्न किया जा सकता है ।इस व्रत में भी उपवास, अयाचित नक्त या एकभुक्त -जो बन सके यथा सामर्थ वही कर लें‌ यदि नवरात्रों में घट स्थापन करने के बाद सूतक हो जाए तो कोई दोष नहीं है। परंतु पहले हो जाए तो पूजन आदि कार्य स्वयं न करें। नवरात्र में शक्ति की उपासना तो प्रसिद्ध है, साथ ही शक्तिधर की उपासना भी की जाती है। उदाहरण के लिए एक और देवीभागवत ,कालिका पुराण, मार्कंडेय पुराण, नवार्ण मंत्र और दुर्गा पाठ की शत- सहस्त्र- अयुत चंडी आदि होते हैं तो दूसरी ओर श्रीमद् भागवत, अध्यात्म रामायण, बाल्मीकि रामायण, तुलसीकृत रामचरितमानस, राममंत्र जप, अखंड राम नाम ध्वनि और रामलीला आज किए जाते हैं। यही कारण है कि ये देवी -नवरात्रि और राम नवरात्र के नामों से प्रसिद्ध है।

पूजन विधि 

देव मंदिर अथवा जिस घर में भगवती दुर्गा की पूजा करनी हो वहां की मिट्टी को अच्छी तरह से धोकर पवित्र करके नवरात्र का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति को प्रतिपदा के दिन प्रातः काल शान से निवृत्त होकर दो वस्त्र धारण करना चाहिए।दीवाल पर लिखे हुए भगवती दुर्गा के त्रिशूल आदि के चित्र के सामने, या मां दुर्गा के चित्र के सामने, पूर्व अथवा उत्तर मुख होकर कर आसन पर विराजमान हो जायें। पूजा की समस्त सामग्री तैयार करके रख ले।एक पीढ़ा पर अपने बायें ओर आधे में सफेद वस्त्र और दाहिनें तरफ आधे में लाल वस्त्र बिछाकर, सफेद वस्त्र पर नवग्रह की नौ आकृति चावल से तथा लाल कपड़े पर गेहूं की 16 कुंड़ी षोडशमातृका के लिए तैयार कर लें। बीच में एक कोशे में चावल भर के उस पर एक सुपारी में मौली लपेटकर श्रीगणेश जी का निर्माण कर लें।

इसके बाद शुद्ध मिट्टी में गेहूं या जौ मिलाकर जवारा के लिए तैयार कर लें। यदि कलश पर मूर्ति विराजमान कर भगवती दुर्गा की पूजा करनी हो तो वरुण कलश के अतिरिक्त एक और कलश स्थापित करना चाहिए। अन्यथा दीवाल पर त्रिशूल आदि की पूजा करनी हो तो एक ही कलश स्थापित होगा। इस तरह एक या दो कलश में स्वस्तिक बनाकर उसके गले में मौली बांधकर तैयार करें तथा गणेश इत्यादि देवताओं के पूजन के लिए एक दीपक ज्योति देवी के पूजन के निमित्त घी और रूई की बत्ती लेकर तैयार कर लें तथा एक थाली में नवरात्र पूजा की सभी सामग्री रख लें। एक बात ध्यान में रखें भगवती के चित्र या त्रिशूल में घी, सिन्दूर मिलाकर उससे दीवाल पर लिखकर तैयार करें। वैकल्पिक व्यवस्था में भगवती के त्रिशूल की भी पूजा कर सकते हैं। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि दीवाल पर त्रिशूल का या चित्र बनाकर पूजा करनी हो तो देवी के चित्र के नीचे पूजास्थल पर सामने कलश स्थापन कर उसके नीचे मिट्टी रखकर जवारा बोना चाहिए। यदि सोने की मूर्ति बनाकर पूजा करें तो कलश अपने सामने जवारा पर रखें और वरुण कलश अपने बाईं तरफ पीढ़े के पास स्थापित करें।

दाहिने हाथ में पवित्री धारण कर जल, अक्षत, चन्दन , सुपाड़ी और पैसा लेकर संकल्प करें-“मम महामाया भगवती प्रीतये आयुर्बलवित्तारोग्यसमादरादि प्राप्तये नवरात्र व्रतंमहं करिष्ये।”यह संकल्प करके कलश स्थापना करके षोडशोपचार विधि से पूजन सम्पन्न करें। उसके बाद यदि हो सके तो प्रतिदिन कन्याओं का पूजन भी करें। यदि प्रतिदिन कन्या न उपलब्ध हो अष्टमी या नवमी के दिन ही अर्चन किया जाय। चैत्र शुक्ल पंचमी को लक्ष्मी जी की विशेष उपासना के विषय में निर्देश है।कहा गया है कि चैत्र शुक्ल पंचमी को सुविधि लक्ष्मी का अर्चन किया जाय।इस दिन पूजन में धान्य, हल्दी,अदरक, गन्ना, गुड़ इत्यादि अर्पण करके कमल पुष्पों से लक्ष्मीसूक्त से हवन करें।यदि कमल ने उपलब्ध हों तो बेल के टुकड़ों और वे भी न हों तो केवल घी का ही हवन करें। इससे विपुल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

व्रती को चाहिए कि इन दिनों में मिताहार, ब्रह्मचर्य का पालन, क्षमा, दया, उदारता तथा उत्साह की वृद्धि के साथ पूजन और क्रोध, लोभ, मोह का त्याग करें। इस प्रकार नवरात्र व्यतीत होने पर दसवे दिन प्रातः काल विसर्जन करें तो सब प्रकार के विपुल सुख साधनों‌ की प्राप्ति होती हैं और भगवती की प्रसन्नता प्राप्त होती है। भविष्य पुराण में नवरात्र के अंतर्गत अन्य कार्यों का वर्णन है। कहा गया है कि जो पूरे नवरात्र नहीं रह सकते हैं यह पंचमी को एकभुक्त रहे , अर्थात एक समय भोजन करें। षष्ठी को नक्त व्रत अर्थात सायंकाल भोजन करें। सप्तमी को बिना मांगे जो मिल जाए उसे ग्रहण करें। अष्टमी को उपवास करें और नवमी को पारण करें। इससे मां की कृपा प्राप्त होती है। विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है कि शुक्ल‌ द्वितीया को सूर्यास्त के समय शुद्ध जल से स्नान कर चंद्रमा की पूजा करें। और उन्हें गन्ना, गुड़ सुपारी और द्रव्य अर्पण करें। इस प्रकार इस दिन से आरम्भ कर प्रत्येक शुक्ल द्वितीया को करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है। इस दिन तेल से पके हुए अन्न को खाने का निषेध है।

इस मास में शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन सूर्य षष्ठी व्रत था और कुमार व्रत दोनों व्रतों के करने की विधि शास्त्रों में निर्देशित है। वर्ष में दो बार सूर्यषष्ठि व्रत मनाया जाता है। एक कार्तिक शुक्ल षष्ठि को और दूसरा चैत्र शुक्ल षष्ठी तिथि के दिन। इस चैत्र शुक्ल षष्ठी व्रत का प्रचलन दक्षिणी बिहार और झारखंड में मिलता है। कहीं-कहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी कुछ लोग इस दिन मां षष्ठी और भगवान सूर्य की आराधना करते हैं। इस दिन भगवान कार्तिकेय की पूजा की जाती है‌ ।इससे तेज की अभिवृद्धि होती है। भविष्यपुराण में चैत्र शुक्ल सप्तमी से सूर्य की पूजा करने के विषय में कहा गया है।वर्षकृत्य रत्नावली और कूर्म पुराण में चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन अशोक के वृक्ष के आठ कलियों के भक्षण और इनकी पत्तियों से शिव जी के पूजन के विषय में कहा गया है। इससे वर्ष भर शोक से निवृत्ति होती है। अष्टमी के दिन भवानी का प्रादुर्भाव हुआ था इसलिए इस दिन देवी जी को मालपुआ का भोग अर्पित किया जाता है।इस दिन के व्रत का सर्वाधिक महत्त्व है।

विष्णुधर्मोत्तर में रामनवमी व्रत के विषय में बताया गया है। इस व्रत की चारों जयन्तियों में घर गणना है। यह चैत्र शुक्ल नवमी को किया जाता है। इसमें मध्याह्न व्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि वह दो दिन मध्याह्न व्यापिनी हो या दोनों दिनों में ही न हो ,तो पहला व्रत करना चाहिए। इसमें अष्टमी का वेध तो निषेध नहीं परन्तु दशमी का वेध वर्जित है ‌यह व्रत नित्य, नैमित्तिक और काम्य -तीन प्रकार का होता है। नित्य होने से निष्काम भावना रखकर आजीवन किया जाए तो उसका अनंत और अमित फल प्राप्त होता है। और किसी निमित्त या कामना से किया जाए तो उसका यथेष्ठ फल मिलता है। जिस दिन भगवान रामचंद्र का जन्म हुआ उस समय शुक्ल नवमी गुरुवार, पुष्य या दूसरे मत से पुनर्वसु, मध्याह्न का समय और कर्क लग्न था। उत्सव के दिन यह सब तो सदा नहीं मिलते हैं। परन्तु नक्षत्र तो कई बार आ जाता है ,जैसा कि इस वर्ष रामनवमी के दिन पुष्य नक्षत्र है ।जो मनुष्य रामनवमी का व्रत भक्ति और विश्वास के साथ करता है, उसको महान फल मिलता है। व्रती को चाहिए कि व्रत के पहले दिन अर्थात चैत्र शुक्ल अष्टमी को प्रातः काल स्नान के बाद भगवान श्री रामचंद्र का स्मरण करें। दूसरे दिन अर्थात नवमी तिथि को नित्य कर्म के बाद अपने घर या मन्दिर को बंदनवार से सजायें। सर्वतोभद्र की रचना कर कलश स्थापित करें। सीताराम की प्रतिमा रखें व पूजन करें। भगवान का भजन, स्त्रोत पाठ, दान, पुण्य हवन, गायन, वादन और भगवान के चरित्र का वर्णन करते हुए जागरण करें। दूसरे दशमी को पारण करें और विसर्जन करें इत्यादि विधान शास्त्रों में बताया गया है।

 

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