कहा जाता है कि महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला का देहांत हो चुका था और वे इस बंधन के कट जाने पर समस्त राज्य वैभव को त्याग कर सर्व त्यागी सन्यासी बनने की तैयारी कर रहे थे। उसी समय उनके बड़े भाई नंदीवर्धन ने आकर कहा -“भाई! तुम यह कैसा विचार कर रहे हो। अभी हम माता पिता के वियोग से ही संतप्त हो रहे हैं और इसी समय तुम भी हमको छोड़कर चले जाना चाहते हो। एक घाव के ऊपर हम दूसरा घाव कैसे सहन कर सकेंगे। अभी तुम्हारा कर्तव्य घर में ही रहकर हम को सांत्वना देना है, जिससे परिजन और प्रजा जनों की सुरक्षा और सुव्यवस्था संभव हो सके।”– भाई के स्नेह पूर्ण बातें सुनकर महावीर चिंता में पड़ गए ।बेहोश संभालते ही समाज में फैले हुए अंधश्रद्धा पूर्वक धार्मिक कर्मकांड और अन्याय पूर्ण सामाजिक परम्पराओं की हानियों को समझ गए थे और अपना समस्त जीवन उन्हीं के सुधार में लगाना चाहते थे । अभी तक वृद्ध माता-पिता को मानसिक परिताप न हो, इस विचार से घर में ठहरे हुए थे। जब वह बाधा दूर हो गई तो उनको अपने लक्ष्य की तरफ अग्रसर होने में देर लगाना एक अपराध की तरह जान पढ़ने लगा और उसके लिए उद्यत हो गए। भाई के व्याकुलता देखकर उन्होंने कहा -“आप मुझसे कब तक थाने की बात कहते हैं?”- नंदी वर्धन ने उत्तर दिया-” अभी कम से कम 2 वर्ष घर में रहो। उसके पश्चात परिस्थिति के अनुसार निश्चय किया जाएगा। वर्धमान ने कहा-” मैं आपके संतोष के लिए तो 2 वर्ष तक रहना स्वीकार करता हूं पर अब मैं राजकीय वैभव और भोग विलास की सामग्रियों के बीच अपना समय व्यतीत नहीं करना चाहता हूं इसलिए घर में रहते हुए भी मैं एक बिल्कुल सामान्य प्रजाजन के समान जीवन व्यतीत करुंगा और मेरे लिए कोई राजकीय समारंभ न किया जाए।”-
महावीर और अपरिग्रह :
वर्द्धमान ने एक वैभवशाली राजा के पुत्र और परम शक्ति संपन्न होने पर भी धन इकट्ठा करने के मार्ग का परित्याग कर त्याग और अपरिग्रह की आदर्श को जनसाधारण के समक्ष रखने का निश्चय किया। महावीर के पिता महाराज सिद्धार्थ छत्रिय कुंडलपुर के शासक थे। यह स्थान बिहार के लखीसराय स्टेशन के कुछ मील दूर खंडहरों के रूप में स्थित है। उनकी माता त्रिशला देवी वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। यह दंपति शुद्ध आचार विहार वाले और धर्म पर अत्यंत श्रद्धा रखने वाले थे ।उनके ऐसे संस्कारों का प्रभाव, महावीर जिनका पारिवारिक नाम वर्तमान था, के ऊपर अधिक पड़ा और वे छोटी अवस्था से ही मानव जीवन के परम लक्ष्य के संबंध में विचार करने लगे। उनको अनुभव होने लगा कि धन-संपत्ति और उनसे प्राप्त होने वाले तरह-तरह के भोग अनित्य हैं। उसके कारण मनुष्य की आत्मा का पतन हो जाता है। भोगों को प्राप्त करने के लिए अधिकांश मनुष्य नीति और अनीति का विचार त्याग देते हैं। भोगों का स्वरूप ही ऐसा है जिनके कारण आत्मा निर्बल हो जाती है और मनुष्य के विचार सदाचरण की अपेक्षा और असदमार्ग की ओर अधिकहो जाते हैं ।महावीर का जन्म विक्रम संवत से लगभग 522 वर्ष पूर्व हुआ था। जैन ग्रंथों के अनुसार, यह धर्म उससे बहुत पहले से ही प्रचलित था उनके कथन अनुसार जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव जी थे, जो मानव जाति के आदि काल में उत्पन्न हुए थे।
हिंदू शास्त्रों में भी इसका अनुमोदन किया गया है और महापुराण श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को भगवान का नौवां अवतार माना गया है। यद्यपि इसकाक्ष ऐतिहासिक आधार नहीं है तो भी हम मान सकते हैं कि जैन धर्म की मूल विचारधारा कर्मकांड की अपेक्षा ज्ञान मार्ग रहा है। भारतवर्ष में प्राचीन काल से वैदिक यज्ञ की परंपरा थी। केवल ऋषभ जी एवं महर्षि कपिल मुनि आदि अनेक महापुरुष इस मार्ग के प्रवर्तक रहे हैं जो ज्ञान मार्ग कहलाता है । उपनिषदों के ऋषियों में से अधिकांश ज्ञानमार्गी ही रहे। उसी में से देश काल के अनुसार विभिन्न शाखाएं फूटती रही, जिनमें जैन सिद्धांत की भी गिनती की जाती है। उस समय मुख्यतः यह सिद्धांत त्यागी तपस्या में ही प्रचलित था ।साधारण जनता में से कदाचित ही किसी का ध्यान इधर आकर्षित होता था। श्री महावीर स्वामी का महत्व इसी में है कि उन्होंने इसको एक व्यवस्थित संगठन का रूप देकर जनता को भी इस सिद्धांत की प्रेरणा दी और गृहस्थों के लिए एक पृथक सिद्धांत की रुपरेखा तैयार की।
महावीर का निष्क्रमण :
2 वर्ष व्यतीत हो जाने पर महावीर के निष्क्रमण का समय आ पहुंचा ।राज्य, परिवार, धन्य धन्य, राज्य के विषयों से उन्होंने अपने मन को खींच लिया और मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन पालकी में बैठकर राजभवन से बाहर निकले। राज- कुटुंब, राज्याधिकारी, सेना के अतिरिक्त हजारों दर्शकों का समूह उनके पीछे चला। नगर से कुछ दूर ज्ञातखंड नाम से महावीर का दीक्षा संस्कार हुआ और वे पालकी से उतर कर एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठ गए और जैन साधुओं के अनुसार उन्होंने अपना सर्वस्व वस्त्र त्याग कर मस्तक और मूंछ के बाल भी अपने हाथ से उखाड़ कर केशलौंच किया। इस दृश्य को देखकर समस्त नगर निवासी स्वजन वर्ग और विशेष रूप से उनके बड़े भाई नंदी वर्धन व्याकुल हो उठे और उनके नेत्रों से आंसू गिरने लगे । जब एक दो घड़ी शेष रह गया तो महावीर स्वामी उद्यान से उठकर पदचर्या करने चल दिए क्योंकि मुनियों के लिए वर्षा काल के सिवाय अन्य ऋतुओं में एक स्थान में रहने का विधान नहीं है। वे निरुद्देश्य भाव से भ्रमण करते हुए कुमार गांव नामक स्थान में पहुंच गए और वही एक जगह खड़े होकर ध्यान में संलग्न हो गए।
थोड़ी देर बाद कुछ ग्वाले वहां बैलों को चराने आ गए। महावीर स्वामी को वहां खड़े देखकर वह बैलों को उनके भरोसे छोड़कर किसी काम के लिए चले गए। जब वह वापस आए तब तक बैल चरते हुए इधर उधर निकल गए थे। उन्होंने महावीर से इसके विषय में पूछा एक तो ध्यानावस्था और दूसरे सांसारिक कार्यों से विरक्त थे। उन्होंने वालों की बातों को सुना ही नहीं ।तब वह वाले बैलों को ढूंढने दूर दूर तक घूमने लगे जब मैं उनको नक्ष मिले तो थक कर फिर उसी स्थान पर आ गए, जहां महावीर ध्यान कर रहे थे। बैल भी घूमते हुए वहीं आ गए। ग्वालों ने समझा कि इन्होंने बैलों को कहीं छिपा दिया था और वह बैलों को छुड़ाना चाहते थे। बस वे क्रोधित होकर उनको रस्सियों से मारने लगे। वे मारते मारते थक गए पर महावीर अपने ध्यान से न डिगे और न ही उनके मुख से एक शब्द भी निकाला। इस प्रकार से पहले ही दिन उनके तपस्वी जीवन की परीक्षा थी।
इस प्रकार 12 वर्ष के तपस्वी जीवन में महावीर को विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ा था। उन्होंने उन सब को आगामी कार्यक्रम की तैयारी समझकर वीरतापूर्वक सहन किया। यह उनके पूर्व संयम और ब्रह्मचर्य जीवन का ही प्रभाव था जो इस प्रकार के भयंकर कष्टों को सहकर अपने मार्ग पर दृढ़ रहे सके थे। एक बार उनसे विरोध रखने वाले क्रूर व्यक्तियों ने भयंकर अत्याचार किए पर उन्होंने कभी किसी पर रोष नहीं किया ।वरन सबको पाप कर्म त्यागकर धर्म पथ पर चलने का ही उपदेश दिया। बारहवें वर्ष में जब वे षडमानी गांव के समीप तपस्या कर रहे थे तब एक दुष्ट व्यक्ति ने उनके दोनों कानों में लकड़ी ठूंस दिया। जिससे उनको वेदना होने लगी। दूसरे दिन जब एक दूसरे गांव में पहुंचे तो एक वैद् की निगाह उन पर पड़ी। महावीर की मुखाकृति से वैद्य ने वेदना का अनुभव किया और कानों में ठूंसी लकड़ियों को बाहर निकालकर चिकित्सा किया।
महावीर को कैवल्य :
12 बरस की तपस्या के उपरांत ऋजुकूला नदी के किनारे उनको ज्ञान प्राप्त हुआ। तपस्या और साधना द्वारा आत्म शक्ति प्राप्त कर लेने पर महावीर कार्य क्षेत्र में प्रवेश किए और पूरे 30 वर्ष तक विशेष रुप से विहार और भारत के अन्य अन्य प्रदेशों में भी अपने सिद्धांत का प्रचार करते रहे।उनकी धर्म यात्राओं क्रमबद्ध वर्णन कहीं नहीं मिलता है ,तो भी उपलब्ध साहित्य से विदित होता है कि उनका प्रभाव और विशेष से क्षत्रियों और व्यवसायी वर्ग पर पड़ा, इसमें शूद्र भी बहुत संख्या में सम्मिलित हुए। महावीर अहिंसा के उपासक थे इसलिए किसी भी दशा में विरोधियों को क्षति पहुंचाने की एक कल्पना भी नहीं करते थे वे ।किसी के प्रति कठोर वचन भी नहीं बोलते थे और जो उनका विरोध करता, उनका विरोध भी नही करते थे उसको भी नम्रता और मधुरता से समझाते थे। इससे परिचय हो जाने के बाद लोग उनकी ओर आकर्षित होते चले जाते थे और उनकी आंतरिक सद्भावना के प्रभाव से उनके भक्त बन जाते थे।
राजाओं पर जैन धर्म का प्रभाव :
महावीर स्वामी क्षत्रिय और राजवंश के थे इसलिए उनका प्रभाव कितने ही छत्रिय नरेशों पर विशेष रूप से पड़ा। जैन ग्रंथों के अनुसार राजगृह का राजा बिंबिसार महावीर का अनुयाई था। वहां पर इसका नाम श्रेणिक बताया गया है और महावीर स्वामी के अधिकांश उपदेश श्रेणिक के प्रश्नों के उत्तर के रूप में मिलते हैं। आगे चलकर इतिहास प्रसिद्ध महाराज चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म के अनुयाई बन गए थे और उन्होंने दक्षिण भारत में जाकर जैन मुनियों के समान तपस्वी जीवन व्यतीत किया था। उड़ीसा का राजा खारवेल तथा दक्षिण के कई राजा जैन से अनुयाई बने, फलस्वरूप जनता में महावीर स्वामी के सिद्धांतों का अच्छा प्रचार हो गया और उनके द्वारा प्रचारित धर्म कुछ शताब्दियों के लिए भारत का एक प्रमुख धर्म बन गया। आगे चलकर अनेक जैन आचार्य ने जैन और हिंदू धर्म के समन्वय की भावना पर बल दिया जिसके फल से सिद्धांत रूप से अंतर रहने पर भी व्यवहार रूप में इन दोनों धर्मों में बहुत कुछ एकता हो गई और जब जैन संप्रदाय के लोग हिंदुओं में घुल मिल गए हैं।
अहिंसा और अपरिग्रह:
अहिंसा और अपरिग्रह महावीर स्वामी का सबसे बड़ा सिद्धांत है । समस्त दर्शन ,चरित्र ,आचार- विचार का आधार अहिंसा को माना गया है। वैसे उन्होंने अपने अनुयायी प्रत्येक मुनि और गृहस्थ के लिए अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह–इन पांच नियमों के पालन करने के लिए निर्देश दिया है। जैन विद्वानों का प्रमुख उपदेश यही है कि अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा ही परम ब्रह्म है। अहिंसा ही सुख शांति देने वाली है ।अहिंसा ही संसार का उद्धार करने वाली है।यही मनुष्य का सच्चा धर्म है यही मनुष्य का सच्चा कर्म है। अहिंसा जैनाचार्य का तो प्राण ही है।