भाग- 4 : श्री राम जन्मस्थान ‘संघर्ष-गाथा’

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अनिल त्रिपाठी

(….एक सिपाही के ईंट से किये वार से खोपड़ी चकनाचूर हो जाने के बाद भी वह अपनी खोपड़ी को पगड़ी के कपड़े से बांध कर ऐसे लड़ा जैसे किसी बारूद की थैली में पलीता लगा दिया गया हो। आख़िरकार वज़ीर मीर बाकी की गोली से उसकी मृत्यु हुई “…से आगे -)

पँडित देवीदीन पांडेय की आहुति के महज़ पंद्रह दिन बाद अपने पच्चीस हज़ार सैनिकों के साथ हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने एक और हमला किया। ये युद्ध दस दिनों तक चला। बड़े शस्त्रों से सुसज्जित शाही सेना के सामने अपने क्षत्रियोचित धर्म का पालन करते हुए महाराज रणविजय सिंह भी जन्मभूमि रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। महाराज रणविजय सिंह की वीरगति के बाद उनके संकल्प को जारी रखने का फैसला करते हुए अब राम जन्मभूमि की मुक्ति का बीड़ा उनकी विधवा वीर क्षत्राणी रानी जयराज कुमारी ने उठाया।

जन्मभूमि रक्षार्थ बलिदान के बाद पुरुषों से ख़ाली हो चुके गाँवों की तीन हज़ार वीर नारियों को एकत्र कर उन्होंने अपनी नारी सेना बनाई।
बाबर की विशाल शाही सेना के सामने तीन हज़ार नारियों की सेना कुछ नहीं थी,इसलिए उन्होंने बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए गुरिल्ला युद्ध लड़ने का फ़ैसला लिया। ये गुरिल्ला युद्ध बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि ये न सिर्फ़ हुमायूँ के शासनकाल तक जारी रहा। इसकी कहानी बहुत दिलचस्प और रोमांचित करने वाली है। रानी का अदम्य साहस और संकल्प देख उनके गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने उनकी सहायता करने का निश्चय किया। उन्होंने चौबीस हज़ार सन्यासियों को एकत्र कर उनकी सेना बनाई। स्वामी महेश्वरानंद जी को ऐसा करते देख छोटे मोटे रजवाड़े और अन्य रामभक्त भी आगे आए। इन सबके सहयोग से रानी जयकुमारी और महेश्वरानंद जी ने हुमायूँ के शासनकाल में राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए कुल दस छापामार हमले किये।

दसवें हमले में शाही सेना को न सिर्फ़ भीषण नुकसान हुआ बल्कि रानी जयराज कुमारी राम जन्मभूमि को मुगलों के कब्ज़े से मुक्त कराने में कामयाब रहीं। राम जन्मभूमि पर एक बार फिर हिंदुओं का अधिकार हो गया। ये अधिकार लगभग पूरे एक महीने तक कायम रहा। मुगल शासनकाल की तत्कालीन स्थितियों को देखते हुए यह बहुत बड़ी बात थी। एक महिला के हाथों अपनी सेना की शर्मनाक हार से तिलमिलाए हुमायूँ ने घटना के एक महीने बाद पूरी तैयारी के साथ शाही सेना अयोध्या भेजी। युद्ध भीषण हुआ किन्तु शाही सेना की संख्या बहुत बड़ी होने के कारण इस युद्ध में रानी जयराज कुमारी अपने गुरु स्वामी महेश्वरानंद और अपनी बची हुई के साथ जन्मभूमि राक्षार्थ शहीद हो गईं। जन्मभूमि पर एक बार फिर मुगलों का कब्ज़ा हो गया। इस युद्ध का ज़िक्र करते हुए ‘दरबारे अकबरी’ का पेज नम्बर 301 कहता है –

” सुल्ताने हिन्द बादशाह हुमायूँ के वक्त मे सन्यासी स्वामी महेश्वरानन्द और रानी जयराज कुमारी दोनों अयोध्या के आस पास के हिंदुओं को इकट्ठा करके लगातार 10 हमले करते रहे । रानी जयराज कुमारी ने तीन हज़ार औरतों की फौज लेकर बाबरी मस्जिद पर आख़िरी हमला करके कामयाबी हासिल की थी। इसके बाद की लड़ाई मे बड़ी खूंखार लड़ाई लड़ते हुई जयराज कुमारी मारी गयी और स्वामी महेश्वरानंद भी अपने सब साथियों के साथ लड़ते लड़ते खेत रहे।’ रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी द्वारा लड़ी गई लड़ाई जन्मभूमि राक्षार्थ हिंदुओं की चौथी लड़ाई थी। इनके बाद पाँचवी लड़ाई का मोर्चा सम्हालने आगे आए स्वामी बलरामचारी जी। बलरामचारी जी ने गाँव गाँव के चक्कर लगाते हुए सन्यासियों और रामभक्त हिन्दू युवकों की एक मज़बूत सेना तैयार कर ली। उन्होंने जन्मभूमि की मुक्ति के लिए कुल बीस हमले किये। उनकी ताक़त और सफ़लता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि इन बीस हमलों में से पंद्रह बार वो जन्मभूमि पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहे। लेकिन शाही सेना की और बड़ी टुकड़ियों के आ जाने की वजह से कब्ज़ा थोड़े समय के लिए ही कायम रह पाता था। इन हमलों के बीच ही हुमायूँ के बाद हिंदुस्तान में मुगल बादशाह का अकबर का शासन शुरू हो चुका था।

अकबर के शासनकाल में ही जन्मभूमि-मुक्ति के लिए स्वामी बालरामचारी जी का बीसवाँ आक्रमण बहुत प्रबल था जिसमे शाही सेना को बड़ी क्षति उठानी पड़ी थी। बीसवें हमले के वक़्त वो दौर था जब अकबर देश में दिन पर दिन बुरी तरह मुग़लों के ख़िलाफ़ होते जा रहे हालात से पहले ही चिंतित था ऐसे में आये दिन स्वामी बालरामचारी जी ने जन्मभूमि मुक्ति के एक के बाद एक हमलों के ज़रिये उसकी नाक में दम कर रखा था। शाही सेना को भी हर दिन नई क्षति उठानी पड़ रही थी। यह सब देख अकबर के माथे पर बल पड़ने लगे। वो किसी तरह इस मुसीबत से छुटकारा पाना चाहता था। अकबर ने अपने दरबारी टोडरमल और बीरबल को बुलाकर इस समस्या से निकलने का कोई हल निकालने को कहा। दोनों ने सोच विचार कर अकबर के पास आए और बोले – ” जन्मभूमि पर अपना अधिकार रखने के दरमियान स्वामी बलरामचारी जी ने विवादित ढांचे के सामने एक चबूतरा बनवाया है। आप उसी चबूतरे पर एक छोटा सा मन्दिर बनवा दें।

इसके ज़रिये हम हिंदुओं को यह कहकर संतुष्ट कर देंगे कि ‘ देखो धार्मिक सद्भाव का ध्यान रखते हुए बादशाह अकबर ने ख़ुद तुम्हारे लिए रामलला का मन्दिर बनवा दिया है,अब तुम यहीं पूजा पाठ करते हुए प्रकरण को समाप्त करो “। कोई और ठोस उपाय न देख अकबर को ये सुझाव इस लिए उचित जान पड़ा कि इससे उसकी छद्म धर्मनिरपेक्षता की छवि को भी मज़बूती मिल रही थी जिसका फ़ायदा उसे देश भर में मुगलों के ख़िलाफ़ हो रहे माहौल को सुधारने में भी मिल सकता था,फिर मन्दिर बनाने का सुझाव भी जन्मभूमि स्थान पर न होकर उसके सामने स्थित एक चबूतरे के लिए था। उसने टोडरमल और बीरबल की बात मान ली। हमारे वो ‘ विद्वान इतिहासकार ‘ जो अकबर को हिंदुस्तान में गंगा-जमुनी तहज़ीब का जनक बताते उसकी धर्मिक समरसता के क़सीदे पढ़ते नहीं थकते उनके लिए यहाँ अकबर की धार्मिक सदाशयता की हक़ीक़त का एक बड़ा प्रमाण मिलता है। अकबर की ये तथाकथित धार्मिक सदाशयता इतनी महान इतनी विशाल थी कि उक्त चबूतरे पर उसने मात्र तीन फुट का एक छोटा सा मन्दिर बनवा दिया जिसकी दीवारें ख़स की टाट से बनी थी। चाटुकार इतिहासकार इसे भी अकबर द्वारा भव्य और गगनचुम्बी मन्दिर निर्माण बता दें तो कोई आश्चर्य नहीं।

छद्म धर्मनिरपेक्षता सामाजिक सद्भाव के नाम पर जिस नाटक की शुरुवात बाबर ने हिंदुस्तान में जन्मस्थान मन्दिर पर जुमे की नमाज़ शुरू करवा के की थी उसकी परिणति उसके पोते अकबर ने जन्मभूमि को पूरी तरह कब्ज़ियते हुए उसके बाहर एक छोटा सा मंदिर बनवा के की। इस बीच ख़राब स्वास्थ्य के कारण आसक्त हो चले स्वामी बलरामचारी ने प्रयाग कुंभ के दौरान त्रिवेणी तट पर अपनी देह त्याग दी। स्वामी जी की मृत्यु और अकबर द्वारा चली गई कुटिल चाल से कुछ दिनो के लिए ये झगड़ा शांत रहा। बहुत दिनो तक चबूतरे पर स्थित कथित मंदिरनुमा स्थान पर भगवान राम की मूर्ति का पूजन और भजन कीर्तन आदि अबाध गति से चलता रहा। समझौते में अकबर के किये वादे के अनुसार हिंदुओं के पूजा पाठ या घंटा बजाने का भी कोई मुसलमान विरोध नहीं करता था।यह क्रम अकबर के बाद शाहजहाँ के समय तक जारी रहा।सन 1640 मे सनकी इस्लामिक शासक औरंगजेब के हाथ में सत्ता आते ही परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। वो घोर हिन्दू विरोधी और उनका क्रूर दमन करने वाला था। राजसिंहासन पर बैठने के साथ ही औरंगजेब की निगाह में अयोध्या में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अकबर का बनवाया गया वो तीन फुट का मन्दिर उसकी आँख की किरकिरी था। उसे ध्वस्त करने के लिए उसने अपने सिपहसालार जाँबाज खां के नेतृत्व मे शाही सेना की एक टुकड़ी अयोध्या की ओर रवाना कर दी। रामलला के पुजारियों को इस बात की ख़बर लग गई। उन्होने समय रहते सबसे पहले रामलला की मूर्ति सुरक्षित स्थान पर छुपाते हुए इस बात की सूचना समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी को दी। वैष्णवदास जी देश को विधर्मियों से मुक्त कराने का अभियान चला रहे थे इसी सिलसिले में उन दिनों वो अयोध्या के अहिल्याघाट स्थित परशुराम मठ में ठहरे थे। उनके साथ सुरक्षा के लिए गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा उपलब्ध कराई गई सिख साधुओं की एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी भी थी। जोहर विद्या मे निपुण इस जत्थे को चिमटाधारी साधुओं की सेना कहा जाता था । बाबा वैष्णवदास ने गुप्त योजना बनाते हुए आनन फ़ानन पुजारियों और हिन्दू रामभक्तों को साथ ले मोर्चे पर आ डटे। जब जबांज खाँ ने जन्मभूमि पर आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की मोर्चे पर आ डटी।

अयोध्या के उर्वशी कुंड पर हुए सात दिनो तक चले भीषण युद्ध में इन रामभक्तों ने जांबाज़ खाँ की सेना के दाँत खट्टे कर दिए। चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से मुगलिया सेना भाग खड़ी हुई। इस तरह चबूतरे पर स्थित वो छोटा सा मंदिर ध्वस्त होने से बच गया। लेकिन बाबा वैष्णव दास को मालूम था कि औरंगज़ेब चुप बैठने वाला नहीं है। वो पलटवार अवश्य करेगा। उन्होंने अयोध्या के आस पास के गांवों घूम घूम कर रामभक्तों को लामबंद करना शुरू किया। उधर जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को वापस आया देखकर औरंगज़ेब ग़ुस्से से लाल हो गया। उसने जाबाज़ खाँ को बर्खास्त कर खूँखार सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना के साथ यह कहते हुए अयोध्या किया कि अबकी बार जन्मभूमि को तहस नहस करके ही वापस आना है। यह सन 1680 की बात है। इतनी बड़ी सेना के आने की ख़बर लगते ही बाबा वैष्णव दास ने अपने संदेशवाहको के माध्यम पत्र भेजकर सिक्खों के दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंह जी से रामलला के जन्मस्थान राक्षार्थ युद्ध मे सहयोग माँगा। गुरुगोविंद सिंह जी उस समय आगरे में सिक्खों की एक सेना के साथ मुगलों को ठिकाने लगा रहे थे। पत्र पाते ही गुरु गुरुगोविंद सिंह अपनी सेना के साथ अयोध्या के लिए निकल पड़े।

अयोध्या पँहुच कर उन्होंने ब्रहमकुंड गुरुद्वारे में अपना डेरा डाल दिया। सिख समुदाय का अयोध्या और राम जन्मभूमि से बहुत प्रगाढ़ सम्बंध रहा है। उनके पहले गुरु श्री नानकदेव जी, नवें गुरु श्री तेग बहादुर जी और दसवें गुरु गोविंद सिंह ने यहां कई बार रामलला को नमन कर गुरद्वारा ब्रह्मकुंड में ध्यान लगाया है।बाबा वैष्णव दास को अपने जासूसों ज़रिये ख़बर मिली कि हसन अली 50 हज़ार सैनिकों और तोपख़ाने के साथ अयोध्या के निकट आ पँहुचा है। गुरुगोविंद सिंह और बाबा वैष्णव दास ने रणनीति बनाते हुए अपनी सेना को तीन भागों मे विभक्त कर दिया। सिक्खों का पहला दल एक छोटे से तोपखाने के साथ अयोध्या के वर्तमान सहादतगंज के पास खेतों में छिप गया। दूसरा दल क्षत्रियों का था,वो अग्रिम मोर्चे पर इस्लामिक सेना से लोहा लेने के लिए रुदौली मे डट गया जबकि बाबा वैष्णव दास के नेतृत्व में चिमटाधारी साधु सेना वाला तीसरा दल जालपा नाला के पास सरपत के जंगलों में घात लगाकर मुगल सेना के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
शाही सेना का सामना सबसे पहले रुदौली में क्षत्रियों से हुआ। पूर्वनिर्धारित रणनीति के अनुसार एक हल्की लड़ाई के बाद वो पीछे हटते हुए चुपचाप सिक्खों सेना वाले दल से जा मिले। जबकि मुगल सेना ने समझा कि पराजित होने के डर से हिन्दू भाग गये। वो ख़ुश होते आगे बढ़ चले, लेकिन इससे पहले कि वो पूरी ख़ुशी मना पाते, गुरुगोविंद सिंह के नेतृत्व मे सिक्खों का दल उन पर टूट पड़ा।

दूसरी तरफ से हिंदुओं का दल भी टूट पड़ा। अचानक दो तरफ़ा हुए इस हमले से मुगल सेना के पाँव उखड़ गये। जहाँ सिक्खों ने मुगलों के शाही तोपख़ाने पर कब्ज़ा वहीं औरंगज़ेब का ख़ास सिपहसालार सैय्यद हसन अली भी इस युद्ध मे मारा गया। गुरु गोविंद सिंह जी ने सिर्फ़ राम चबूतरा स्थित उस तीन फुटे मन्दिर की ही रक्षा नहीं की बल्कि पूरे राम जन्मभूमि परिसर को मुस्लमानों के कब्ज़े से मुक्त कराकर उसे हिंदुओं को सौंपकर ही वो अयोध्या से वापस गए। राम जन्मभूमि राक्षार्थ लड़े गए युद्ध में गुर गोविंद सिंह जी द्वारा इस्तेमाल उनका खंजर, तीर और तस्तार चक्र यहां निशानी के तौर पर ब्रह्मकुंड गुरुद्वारे में रखे हुए,आज भी भक्तों की श्रद्धा का केंद्र हैं। हिंदुओं की ऐसी भीषण प्रतिक्रिया देख औरंगजेब स्तब्ध रह गया था। इस शर्मनाक हार के बारे में औरंगज़ेब आलमगीर नामे के पेज नम्बर 623 पर लिखता है –

“बाबरी मस्ज़िद के लिए क़ाफ़िरों ने 20 हमले किए। सबमे लापरवाही की वजह से शाही फौज ने शिकस्त खायी। आख़िरी हमला जो गुरु गोविंदसिंह के साथ बाबा वैष्णव दास ने किया उसमे शाही फौज का सबसे बड़ा नुकसान हुआ । इस लड़ाई मे शहज़ादा मनसबदार सरदार हसन अली खाँ भी मारे गये ।”

इतनी करारी शिकस्त के बाद औरंगज़ेब जैसा क्रूर शासक भी अगले चार साल तक अयोध्या पर हमले का साहस नहीं जुटा पाया। स्थित अपने नियंत्रण में देख हिन्दू कुछ असावधान हो गए। एकत्रित हुए अधिकांश हिन्दू लड़ाके भी इन चार वर्षों मे अपने अपने क्षेत्रों मे जा चुके थे। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि औरंगज़ेब तो बस ऐसे ही किसी मौके की तलाश में ख़ून का घूँट पिये चुप बैठा था। स्थिति का फ़ायदा उठाते हुए उसने सन 1664 मे एक बार श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया। एक और लड़ाई हुई। बाबा वैष्णवदास जी हार मानने वालों में नहीं थे। उन्होंने पुजारियों को रामलला की प्रतिमा सुरक्षित स्थान पर छिपा देने का निर्देश देते हुए मोर्चेबंदी शुरू की। सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह,राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह और सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह के नेतृत्व में आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों और अन्य हिन्दू रामभक्तों ने बाबा वैष्णव दास जी के साथ मिलकर हुंकार भरी।

इन सबने यह जानते हुए भी कि शाही सेना के सामने उनकी सेना और हथियार कुछ भी नहीं,जन्मभूमि के राक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने को तरज़ीह दी। भारी अस्त्र शस्त्र और बड़े संख्याबल वाली शाही सेना से लोहा लेते सभी रामभक्त अपने जीवन की आख़िरी साँस तक वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। दस्तावेज़ों में लिखा मिलता है कि बाबा वैष्णवदास जी ने श्रीराम जन्मभूमि के लिए कुल तीस लड़ाइयाँ लड़ी थीं। इस बार के हमले मे शाही फौज ने लगभग 10 हजार हिंदुओं की हत्या कर दी। मंदिर के अंदर नवकोण में कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुग़लों ने उसी में फेककर उसके चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर दिया। आज भी मंदिर के पूर्वी द्वार पर स्थित वो कंदर्पकूप ‘गज शहीदा ‘ के नाम से प्रसिद्ध है।

इस हमले का उल्लेख करते हुए ‘आलमगीरनामा पेज नम्बर 630’ पर औरंगज़ेब कहता है – “लगातार चार बरस तक चुप रहने के बाद
रमज़ान की सत्ताइसवीं तारीख़ को शाही फौज ने अयोध्या की रामजन्मभूमि पर फिर हमला किया । इस अचानक हमले मे दस हजार हिन्दू मारे गये। उनका चबूतरा और मंदिर खोदकर ज़मींदोज़ कर दिया गया। इस वक्त तक वह शाही देखरेख मे है।” शाही सेना ने मन्दिर को पूरी तरह नेस्तनाबूद करते हुए जन्मभूमि का चबूतरा तक खोद डाला। खुदाई से वहाँ एक बड़ा गड्ढा हो गया था। लंबे समय तक औरंगजेब के क्रूर अत्याचारों की मारी हिन्दू जनता ने उस गड्ढे में ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत-पुष्प जल चढ़ाते जन्मभूमि पर अपना दावा बनाए रखा।

क्रमशः –

(तथ्य सन्दर्भ – प्राचीन भारत इतिहास , लखनऊ गजेटियर, अयोध्या गजेटियर ,लाट राजस्थान, रामजन्मभूमि का इतिहास (आर जी पाण्डेय) , अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम) , बाबरनामा, दरबारे अकबरी, आलमगीर नामा, तुजुक बाबरी।)

( लेखक दूरदर्शन के समाचार वाचक/कमेंट्रेटर/वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र लेखक स्तम्भकार हैं।)

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