गीताप्रेस शताब्दी वर्ष समारोह

2 0
Read Time:45 Minute, 15 Second

सनातन मूल्यों के प्रहरी गीता प्रेस का शताब्दी वर्ष में प्रवेश

विवेकानंद त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति का ध्वजवाहक गीता प्रेस 14 मई (वैशाख शुक्ल त्रयोदशी) से अपने स्थापना के 100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस दिन से वर्ष पर्यंत भारतीय सनातन मूल्यों को संवर्धित और गौरवान्वित करने वाले अनेक आयोजन होंगे। इस क्रम में 4 जून 2022 को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को संस्था की ओर से आमंत्रित किया गया है। वे इस गौरवशाली क्षण के साक्षी बनेंगे।

गीता प्रेस वह संस्था है जिसने भारत की आत्मा और सनातन मूल्यों से पूरी दुनिया की पहचान कराई है। इसके संस्थापकों ने जिन संकल्पों और संदेश के साथ इस प्रकाशन की नींव रखी थी उन्हें गुंजायमान करते हुए आज ये दुनिया का अद्वितीय प्रकाशन-संस्थान बन गया है। इसने गोरखपुर के साथ साथ पूरे देश को एक विशिष्ट पहचान दी है। जिस तरह से गोस्वामी तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन आदर्शों को अपनी लेखनी से जनमानस को परिचित कराने के साथ जन जन का आराध्य बना दिया उसी तरह से मामूली कीमतों पर झोपड़ी से लेकर प्रासादों तक रामचरित मानस और वैश्विक ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता उपलब्ध कराकर गीता प्रेस ने जो कार्य किया है उससे इस संस्था और इसके संस्थापकों की कीर्ति सदियों तक अक्षुण्ण रहेगी।

अगर नीयत नेक हो, संकल्पों में शक्ति हो और अपने ध्येय के लिए खुद को विसर्जित कर देने की उत्कट अभिलाषा हो तो समूची मानवता का पथ आलोकित करने वाली संस्थाओं का आविर्भाव होता है। गीता प्रेस इसका साक्षात-सजीव उदाहरण है। आज के भौतिकतावादी परिवेश में जिस तरह से मुनाफाखोरी की खूँखार प्रतियोगिता चल रही है उससे अपने को अछूता रखते गीता प्रेस की यह यात्रा किसी चमत्कार से कम नहीं। इस प्रकल्प के संस्थापक चूरू (राजस्थान ) निवासी श्री जयदयाल जी गोयंदका के मन में एक विचार कौंधा और उस विचार की ऊर्जा इतनी मूर्तिमान और वेगवती हुई कि वह आज सनातन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति की सांसों में रच बस गई है। इतिहास रचने वाली सफलताओं की शुरुआत ऐसे ही छोटे और सुविचारित कदमों से ही होती है।

जय दयाल गोयंदका

उनके संकल्प ने गीता और रामचरितमानस को जन जन का कंठहार बना दिया। यह संस्था और इससे जुड़े लोग लाभ हानि के गुणा गणित से ऊपर उठकर काम कर रहे हैं। लाभ कमाना इस प्रकाशन का कभी ध्येय नहीं रहा इसीलिए न कभी गुणवत्ता से समझौता किया न ही जीवन मूल्यों से। यही वजह है कि संस्था ने अपनी एक शताब्दी की गरिमामयी यात्रा में पतझड़ नहीं वसंत ही वसंत देखे हैं। सेठ गोयंदका के बाद इस महाप्रकल्प की बागडोर गोरखपुर निवासी और गृहस्थ संत हनुमान प्रसाद पोद्दार (जिन्हें भाई जी के नाम से जाना जाता है) ने संभाली और इस प्रकाशन का चतुर्दिक विस्तार करने के साथ इसमें अनेक स्वर्णिम अध्याय जोड़।

वे सही मायनों में कर्मयोगी थे। गृहस्थ धर्म के बंधनों में बंधकर भी वे वीतरागी संत की तरह बने रहे। मनसा वाचा कर्मणा जीवन और आचरण की शुद्धता उनकी अमूल्य थाती रही। जीवनपर्यंत उससे कभी समझौता नहीं किया। ये संस्कार सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं रहे बल्कि गीता प्रेस ट्रस्ट के हर सदस्य में उसी भावना से पुष्पित पल्लवित हो रहे हैं। इस अमूल्य विरासत में कैसे उत्तरोत्तर वृद्धि हो और इसकी कीर्ति से दिग्दिगंत सुरभित हो इसी संकल्प और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ उनकी यह यात्रा अहर्निश जारी है। दो लाख वर्ग फीट में फैले गोरखपुर स्थित गीताप्रेस परिसर में प्रवेश करते ही आध्यात्मिक ऊर्जा की अनुभूति होती है। यह परिसर प्रकाशन स्थल नहीं बल्कि किसी तीर्थ की तरह लगता है।

इसके भव्य प्रवेश द्वार पर जो आकृतियां और आर्ष वाक्य उत्कीर्ण हैं उनमें समूची भारतीय कला और संस्कृति के अक्स प्रतिबिंबित हैं। खास बात यह है कि प्रवेश द्वार के निर्माण में सनातन धर्म के देवालयों के अतिरिक्त बौद्ध जैन और सिख धर्म की वास्तुकला का समावेश है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें अनेकता में एकता के स्वर निनादित हैं। द्वार के प्रत्येक अंश का निर्माण किसी न किसी प्राचीन सांस्कृतिक कलापूर्ण मंदिर के किसी अंश के आधार पर ही हो इसका पूरा ध्यान रखा गया है। इस प्रयत्न का परिणाम यह हुआ है कि यह प्रवेश द्वार साधारण प्रवेश द्वार नहीं बल्कि प्राचीन भारत के मंदिरों की विभिन्न कला शैलियों का गुलदस्ता बन गया है जिसका संदेश है ‘सत्यं वद धर्मं चर।‘

गीता प्रेस के स्थापना की कहानी

गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयंदका के पहले भी श्रीमदभागवद्गीता बहुतों ने पढ़ी होगी मगर उसे आत्मसात किया गोयंदका जी ने ही। उनके मन के किसी कोने में प्रसुप्तावस्था में ईश आराधन के जो बीज पड़े थे वे गीता के 18वें अध्याय के 68वें और 69वें श्लोक से ऊर्जा पाकर विशाल वटवृक्ष बन गए। ऐसा वृक्ष जिसकी छांव में मानवता, जीवन मूल्य पनाह पाते हैं।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:।।

न च तस्मानमनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।

भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ।।

इन श्लोकों का अभिप्राय है : भगवान कृष्ण गीता की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं – जो पुरुष मुझमें परम भक्ति रखते हुए इस परम रहस्ययुक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा वह मुझको ही प्राप्त होगा। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं। उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई नहीं। यही नहीं संपूर्ण धरा पर उससे बढ़कर मेरा प्रिय भविष्य में भी कोई नहीं होगा।

इन दो श्लोकों ने सेठ जयदयाल गोयंदका के मनोमष्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डाला की उन्होंने अपने समग्र जीवन को ही गीता के प्रचार के साथ अनेक धर्मार्थ सेवा कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। ऐसे समर्पित भाव से किसी कार्य का शुभारंभ हो तो उसकी सफलता कभी संदिग्ध हो ही नहीं सकती। उसी भाव का प्रतिफल है कि 10 रुपये मासिक के किराए पर गोरखपुर में शुरू हुआ गीता प्रेस कल्पतरू की तरह निरंतर पुष्पित पल्लवित हो रहा है। गोरखपुर का इसका परिसर आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण है। यहां छापेखाने के साथ साथ अहर्निश प्रभुनाम की अनुगूंज की अनुभूति की जा सकती है।

शुद्धता का यह आलम है कि गोयंदका जी कहा करते थे “ गीता जी में भूल छोड़ना छुरी लेकर किसी को घाव करना है तथा उनमें सुधार करना उस घाव पर मरहम पट्टी करना है, जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस्तकों में अशुद्धि सुधार करने की भरसक चेष्टा करनी चाहिए “। उनकी इस मंशा के अनुरूप जब गीता ग्रंथ में वर्तनी की शुद्धियां न हो पाईं तो उन्होंने खुद का प्रेस स्थापित किया। शुचिता का स्तर यह कि प्रेस में छपाई के दौरान भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि गीता जैसी पुस्तकों का कहीं भूमि से स्पर्श तक न होने पाए। 99 साल पहले टैडहिल से शुरू हुआ छपाई का सफर आज अत्याधुनिक मशीनों को अपना हमसफर बना रहा है।

ऐसे शुरू हुआ गोरखपुर में गीताप्रेस

कोलकाता में गोयंदका जी के निर्देशन में गीता की छपाई का कार्य अन्यत्र कराया जा रहा था जहां अशुद्धियां ठीक कराने के लिए मशीन को बार बार रोकना पड़ता था एक व्यवसायी के लिए यह छपाई घाटे का सौदा साबित हो रही थी। गोयंदका जी के लिए गीता जैसे पवित्र ग्रंथ में वर्तनी की अशुद्धि अक्षम्य थी। उधर छापाखाना व्यवसायी ने शुद्धता के परम आग्रही गोयंदका जी के टोकने से असहज होकर कह दिया “ इतनी शुद्ध छपाई कराना चाहते हैं तो अपना खुद का प्रेस क्यों नहीं लगा लेते। “ व्यवसायी का यह ताना गोयंदका जी के दिल में तीर सा जा धँसा, उसी क्षण उन्होंने अपना प्रेस स्थापित करने का मनोरथ पाल लिया। उसी मनोरथ का परिणाम है गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना, एक ऐसा प्रेस जो देश ही नहीं बल्कि दुनिया के फलक पर पूरी आन बान और शान के साथ अपनी यश पताका फहरा रहा है।

गोरखपुर में प्रेस खोलने का सुझाव यहां के घनश्यामदास जालान और महावीर प्रसाद पोद्दार ने दिया था जिसे गोयंदका जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके लिए सर्व प्रथम गोरखपुर के हिंदी बाजार में 10 रुपये मासिक के किराए पर छोटा सा मकान लिया गया। इस तरह 29 अप्रैल 1923 को गोरखपुर में प्रेस की स्थापना हुई और नाम रखा गया ‘गीता प्रेस’।

जैसे जैसे छपाई कार्य का विस्तार होने लगा गीता प्रेस के लिए बड़े भवन की जरूरत महसूस होने लगी। इसी क्रम में 12 जुलाई 1926 को दस हजार रुपये में अतिरिक्त भूखंड खरीदा गया। ईश नाम की डोर पकड़े शुरु हुए इस प्रकाशन का कार्य उत्तरोत्तर इतना विस्तृत होता जा रहा है कि अब मौजूदा समय में इसका दो लाख वर्ग फीट का क्षेत्र भी कम पड़ने लगा है। इसमें एक लाख 5 हजार वर्ग फीट में तो सिर्फ प्रेस की गतिविधियां संचालित हो रही हैं। 430 से ज्यादा कर्मचारी इस प्रकाशन को गति और विस्तार दे रहे हैं। बीते 99 वर्षों में 15 करोड़ से ज्यादा केवल श्रीमद्भागवद्गीता का प्रकाशन हो चुका है।

प्रकाशन के साथ अनेक सेवा प्रकल्प चलाता है यह ट्रस्ट

गीता प्रेस ने अपना दायित्व सिर्फ धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य नहीं करता। यह ढेर सारे सेवा के नि:शुल्क प्रकल्प चलाता है। संस्था की ओर से विभिन्न प्रांतों में शिक्षा और चिकित्सा से जुड़े ढेर सारे सेवा कार्य किए जा रहे हैं। गोरखपुर के गीताप्रेस परिसर में हर दिन नि:शुल्क चिकित्सकीय परामर्श के साथ मुफ्त औषधि वितरण का कार्य किया जाता है। उत्तराखंड के ऋषिकेश में संस्था की आयुर्वेदिक औषधि निर्माण की ईकाइयां कार्यरत हैं जहां गंगा जल के प्रयोग से औषधियों का निर्माण किया जाता है। इस समय स्वर्गाश्रम, गोरखपुर, चुरू, कोलकाता और सूरत में नि:शुल्क आयुर्वेदिक औषधि वितरण की व्यवस्था है। ऋषिकुल और ब्रह्मचर्याश्रम : स्वस्थ और संस्कारित समाज के निर्माण के लिए संस्था की ओर से गुरुकुल का संचालन किया जाता है जिन्हें ऋषिकुल और ब्रह्मचर्याश्रम की संज्ञा दी गई है। यहां बच्चों को आधुनिक शिक्षा के साथ साथ चरित्र निर्माण की भी शिक्षा दी जाती है। ये आवासीय विद्यालय जयदयाल गोयंदका जी के जन्मस्थान चूरू में स्थापित हैं। ऋषिकेश में सत्संगियों के लिए 1000 कमरों वाला गीताभवन : सदियों से उत्तराखंड की भूमि भारतीय संस्कृति का हिंडोला रही है। यह तपोभूमि ज्ञान और वैराग्य का अद्भुत संगम है। ऐसे स्थान पर सत्संगियों के ठहरने के लिए गीताप्रेस की ओर से 1000 कमरों वाला गीताभवन भी बनवाया गया है। गंगा के सुरम्य वातावरण के बीच स्थित इस भवन में यात्रियों और साधु संतों के लिए बहुत कम मूल्य पर भोजन आदि की सुविधाएं सहज सुलभ हैं।

ऐसे होती है इसके संचालन के लिए धन की व्यवस्था

आए दिन गीता प्रेस के बंद होने की अफवाहें फिजां में गूंजती रहती हैं मगर गीता प्रेस के ट्रस्टियों ने इसके अप्रतिहत संचालन के लिए आर्थिक स्रोतों की ऐसी मुकम्मल व्यवस्था कर रखी है कि इस महान कार्य के संचालन में कभी अवरोध आ ही नहीं सकता। उत्कृष्टतम कागज पर आकर्षक छपाई के साथ लागत से भी कम मूल्य में सद्साहित्य उपलब्ध कराने वाले गीता प्रेस का संचालन अविरल बना रहे और विज्ञापन न छापने के अपने सिद्धांत से कभी समझौता न करना पड़े इसके लिए कई आर्थिक स्रोतों की व्यवस्था की गई है। संस्था के प्रबंधक लालमणि तिवारी जी बताते हैं कि हम अपने सिद्धांत और गुणवत्ता को इसलिए कायम रख पाते हैं कि हम अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर को पुस्तकों की कीमत में नहीं जोड़ते। हमारे ट्रस्ट के टॉप मैनेजमेंट पर गीता प्रेस का कोई खर्च नहीं है। वे निर्विकार भाव से साधक की तरह गीताप्रेस को आगे बढ़ाने में संनद्ध हैं। हम छपाई के कागज मिलों से सीधे खरीदते हैं।

इसके अलावा गोरखपुर कानपुर और ऋषिकेश में गीताप्रेस वस्त्र की दुकानें चलाता है और उससे होने वाली आमदनी गीता प्रेस के पुनीत कार्य के लिए सुरक्षित रख दी जाती है। इसके साथ छपाई की अतिआधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से हम अपना खर्च कम कर लेते हैं। स्थिति यह है कि जिन कागजों पर गीताप्रेस की पुस्तकें छपती हैं अगर इसका प्रबंधन सिर्फ विज्ञापन छापने का इशारा भर कर दे तो यहां करोड़ों के विज्ञापन छापने की होड़ लग जाय मगर साध्य और साधन दोनों की शुचिता में विश्वास रखने वाला यह ट्रस्ट प्राण जाय पर वचन न जाई के ध्येय वाक्य पर चलने को प्रतिबद्ध है। पुस्तकों के मूल्य लागत से कम रखे जाते हैं परन्तु यह संस्था किसी से किसी भी प्रकार का आर्थिक सहयोग स्वीकार नहीं करती।

मासिक पत्र कल्याण के प्रकाशन की कहानी

बात 1926 की है। दिल्ली में 13 से 15 अप्रैल के बीच मारवाड़ी अग्रवाल सभा का आठवां अधिवेशन आयोजित किया गया था। इस अधिवेशन में घनश्यामदास बिड़ला भी आए हुए थे। उस अधिवेशन में भाई जी यानी हनुमान प्रसाद पोद्दार का भाषण पढ़ा गया। हालांकि भाषण घनश्यामदास बिड़ला की सोच से मेल नहीं खाता था तथापि उन्होंने भाईजी से कहा “ आपलोग अपने विचारों और सिद्धांतों पर आधारित अगर कोई पत्र निकालें तो काफी सफलता मिल सकती है। अधिवेशन समाप्त हुआ तो भाई जी यानी हनुमान प्रसाद पोद्दार के मन में गोयंदका जी से मिलने की इच्छा हुई वे उस समय चूरू से भिवानी आए। दोनों ने एक ही साथ किसी अगले गंतव्य के लिए ट्रेन से प्रस्थान किया। बातचीत के दौरान अधिवेशन की चर्चा छिड़ी तो भाईजी ने घनश्यामदास बिड़ला द्वारा एक मासिक पत्र निकालने के सुझाव का जिक्र कर दिया। पास में ही गोयंदका जी के दूसरे सहधर्मी लच्छीराम मुरोदिया बैठे थे। उन्हें यह प्रस्ताव न केवल पसंद आया बल्कि भाई जी को गाड़ी के एक कोने में ले जाकर उन्होंने कहा कि मैं इस पत्र के संपादन के लिए प्रतिदिन दो घंटे दिया करूंगा। यह मेरा आजीवन संकल्प रहेगा। दोनों ने आपस में सहमति के बाद इस प्रस्ताव को सेठ गोयंदका जी के समक्ष रखा। उन्होंने तुरंत हामी भर दी।

इस तरह 22 अप्रैल 1926 को इस नए पत्र का ‘कल्याण’ के नाम से नामकरण कर दिया गया। ईश्वरानुरागियों के संकल्प सिद्ध होने के रास्ते किस तरह निकल जाते हैं यह अनुभव अद्भुत है। इधर कल्याण का नामकरण हुआ उधर मुंबई निवासी वेंकटेश्वर प्रेस के मालिक और भाई जी के आत्मीय मित्र ने जब इस पत्र के बारे में सुना तो उन्होंने इसके प्रकाशन की सारी औपचारिकताएं पूरी करने के साथ छापने की भी जिम्मेदारी स्वयं ले ली। छपाई के विषय की जिम्मेदारी भाई जी पर आई और मुंबई से इसका प्रकाशन करने की सहमति बन गई। आखिरकार अगस्त 1926 में ‘भगवन्नामांक’ नाम का कल्याण का प्रथम अंक मुंबई के वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित हुआ और एक बड़ा सपना साकार होने के साथ गीताप्रेस की शानदार यात्रा में एक और मील का पत्थर स्थापित हुआ। पहले वर्ष कल्याण के 12 साधारण अंक प्रकाशित हुए और बाद में कल्याण का प्रकाशन अगस्त 1927 से गोरखपुर से शुरू हुआ जो अनवरत जारी है। यहां से कल्याण की एक लाख पैंसठ हज़ार प्रतियां प्रतिवर्ष प्रकाशित होती हैं।

कल्याण कल्पतरू का अंग्रेजी में प्रकाशन

कल्याण के प्रकाशन के साथ एक इसी तरह की पत्रिका अंग्रेजी में भी छापने की मांग गैरहिंदी भाषी पाठको की ओर से आने लगी। इसी श्रृंखला में जनवरी 1934 में अंग्रेजी में कल्याण कल्पतरू का शुभारंभ हुआ। इसके कंट्रोलिंग एडिटर भाई जी और संपादक चिम्मनलाल गोस्वामी रहे। महात्मा गांधी की मंशा का पालन करते हुए इन पत्रों में भी विज्ञापन नहीं छापे जाते। इसके अलावा इसमें किसी पुस्तक की समीक्षा भी नहीं छापी जाती।

गीताप्रेस की खासियत एक नजर में

मार्च 2021 तक कुल प्रकाशित ग्रंथ :

  • श्रींदभगवद्गीता 15 करोड़ 58 लाख
  • नगमा-ए इलाही नाम से गीता उर्दू संस्करण छपता है।
  • गीता प्रेस हिंदी सहित 14 भाषों में पुस्तकें प्रकाशित करता है – 1- हिंदी 2-अंग्रेजी 3- बंगला 4- मराठी 5- गुजराती 6- तमिल 7- कन्नड़ 8- असमियां 9- ओड़िआ 10- उर्दू 11- तेलुगू 12- मलयालम 13-पंजाबी 14- नेपाली
  • देश भर में गीताप्रेस के 20 प्रकाशन केंद्र हैं।
  • सेठ जयदयाल गोयंदका इस प्रेस के मूल संस्थापक हैं।
  • गीताप्रेस के वर्तमान में 1830 प्रकाशन हैं जिनमें 765 संस्कृत और हिंदी के हैं।
  • गीताप्रेस के पास प्रामाणिक उद्धरणों के लिए एक समृद्ध पुस्तकालय है जिनमें 3500 पाँडुलिपियां संग्रहीत हैं।
  • अकेले श्रीमदभाग्वद्गीता पर 100 से ज्यादा प्रामाणिक व्याख्याएं संग्रहीत हैं।
  • लाइब्रेरी में ताड़पत्र पर लिखी 2500 वर्ष पुरानी गीता सुरक्षित रखी गई है।
  • श्रीरामचरितमानस और तुलसी साहित्य – 11 करोड़ 39 लाख।
  • पुराण उपनिषद आदि ग्रंथ – दो करोड़ 61 लाख।
  • महिला और बालकोपयोगी साहित्य – 11 करोड़ छह लाख।
  • भक्त चरित्र और भजन माला – 17 करोड़ 40 लाख।
  • अन्य प्रकाशन – 13 करोड़ 73 लाख।
  • अब तक कुल प्रकाशित ग्रंथ 71 करोड़ 77 लाख।
  • गोरखपुर का कार्यालय गोविंद भवन के नाम से जाना जाता है।

रोचक तथ्य :

  • गीता प्रेस में हर दिन 60 हजार पुस्तकें छपती हैं। इस तरह हर साल लगभग दो करोड़ 20 लाख पुस्तकें छापता है गीता प्रेस।
    फिर भी मांग के अनुरूप पुस्तकें नहीं उपलब्ध करा पाता।
  • एक साल में कल्याण समेत कोई 80 करोड़ की पुस्तकें बिकती हैं।
  • प्रेस के पास 16 करोड़ तक की लेटेस्ट टेक्नॉलजी आधारित मशीनें हैं।

गीताप्रेस का मुख्य द्वार और लीला चित्र मंदिर : यह गोरखपुर का एक महत्वपूर्ण दर्शनीयस्थल है। इनका उद्घाटन 29 अप्रैल 1955 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया।

गीताप्रेस मुख्यद्वार की विशेषता

तीन मंजिल वाले इस भव्य द्वार का निर्माण देश के गौरवमयी प्राचीन मंदिरों की स्थापत्य कलाओं से प्रेरणा लेकर किया गया है। इसमें प्राचीन भारत के मंदिरों की कलाएं प्रतिबिंबित हैं। इसकी भव्यता इतनी नयनाभिराम है की देखने वाले की नजरें हटती ही नहीं। प्रवेश द्वार के मुख्य भाग में महाभारत के दौरान गांडीवधारी पार्थ का योग क्षेम वहन करने वाले भगवान कृष्ण उनके रथ के सारथी के रूप में विराजमान हैं। संदेश यही है कि जो मुझको समर्पित हो जाता है उसका हर दुख संताप मेरा। यहां लगा त्रिशूल और शीर्षथ शिखर काशी के शिव मंदिरों का स्मरण कराता है। शिखर के ऊपरी अंश के नीचे का भाग ऐसा है जैसे दो खिले कमल हों। जिनमें ऊपर वाले कमल का मुख ऊपर और नीचे वाले कमल का मुख नीचे है, इनके इस संयोग से एक डमरू की आकृति उभरती है जो भगवान शिव का प्रतीकात्मक आभास कराती है। इस कमलाकार अंश के साथ उससे नीचे का पूरा भाग ब्रह्मा और पैगोडा (बौद्ध उपासना गृह) का स्मरण दिलाता है। यूं कहिए भारतीय संस्कृति के समस्त अवयवों का जीवंत स्वरूप है यह प्रवेश द्वार। यहीं बनी छतरियों के चारों कोनों पर वृषभ मूर्तियां निर्मित हैं। इनके बीच बीच में तीन तीन फणों की नाग मूर्तियां है। इन छतरियों के नीचे उपनिषदों से लिए गए ये दो वाक्य – सत्यान्त प्रमदितव्यम् एवं धर्मान्न प्रमदितव्यम् उत्कीर्ण हैं। तात्पर्य यह कि हमें सत्य से और धर्म से च्युत नहीं होना चाहिए। इसी भाग निर्मित दो टोड़ियों में मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर का अक्स परिलक्षित है।

प्रवेशद्वार के मध्यखंड में स्थित प्रतीक पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर और और कलशयुक्त तुंग शिखर भुवनेश्वर के प्रख्यात कलापूर्ण लिंगराज मंदिर की स्मृति दिलाते हैं। प्रवेश द्वार के ही तीसरे और अंतिम खंड में सत्यं वद एवं धर्मं चर अंकित हैं जिन्हें उपनिषदों से लिया गया है और यही गीताप्रेस का पथ प्रदर्शक आर्षवाक्य भी है। द्वार के तीसरे भाग में शिखर के नीचे चंद्रमा का चित्र है। इस मंडप को खजुराहो के कुछ कलापूर्ण मंदिरों के अंश से साम्यता देने की चेष्टा की गई है। द्वार के उत्तर दिशा में दूसरे तल्ले में बने घेरे सांची के स्तूप के घेरे का स्मरण दिलाते हैं। यह घेरा इसी स्तूप के घेरे की शैली पर है। इसी घेरे के ऊपर बना कलापूर्ण मेहराब माउंटआबू के दिलवाड़ा मंदिर की स्थापत्य शैली का आंशिक अनुकरण है। शिखर में नीचे गणेश की मूर्ति है और मूर्ति के नीचे उनका मंत्र गं गणपतए नम: अंकित है। यहां यह भी जान लेना उचित होगा कि गीताप्रेस के प्रवेश द्वार में उज्जैन के महाकालेश्वर, उत्तराखंड के केदारनाथ तथा बोध गया के प्राचीन मंदिरों की कला को भी स्थान दिया गया है। यहां यह भी बता देना उचित होगा कि प्रवेश द्वार में जो भी शंख चक्र त्रिशूल, कमल, स्वास्तिक या पशुओं व वन्य जीवों की आकृतियां हैं वे सजावट के लिए नहीं बल्कि एक विशेष संदेश देने के लिए उत्कीर्ण की गई हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि प्रवेश द्वार के समूचे प्रतीक और चिन्ह हमें भारतीय संस्कृति की विराट समग्रता का बोध कराते हैं।

प्रवेश द्वार में देश के इन प्राचीनतम मंदिरों की कला का है संगम

महाराष्ट्र के औरंगाबाद का एलोरा, अजंता मंदिर, दक्षिणेश्वर, काशी विश्वनाथ मंदिर, द्वारकाधीश मंदिर मथुरा, श्रीजगन्नाथ मंदिर पुरी, भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, नेपाल तराई स्थित जनकपुर धाम का जनकपुर मंदिर, सूर्य मंदिर कोणार्क, मदुरा का मीनाक्षी मंदिर, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, छतरपुर का खजुराहो मंदिर, मध्यप्रदेश स्थित सांची स्तूप, राजस्थान का माउंट आबू मंदिर, उज्जैन का महाकाल मंदिर, उत्तराखंड का केदारनाथ मंदिर बुद्ध गया के मंदिर की शैलियां प्रमुख हैं।

प्रवेश द्वार स्थित प्रतिमाओं में निहित उपास्य भावना

सनातन हिंदू धर्म में श्रुति स्मृति प्रतिपादित उपासना परंपरा है। इसमें मुख्य उपासना है पंचदेवोपासना। इसमें जो नारायण की उपासना है उसमें अवतारोपासना की प्रचुरता शास्त्र और समाज मे प्रसिद्ध है। उपासना चाहे प्रतीकात्मक हो या यज्ञात्मक दोनों में ही अंगोपासना होती रहती है। इस अंगोपासना के रूप में गणपति तथा गौरी का पूजन, नवग्रह पूजन, मातृका पूजन आदि किए जाते हैं। इस तरह उपासना के तीन रूप हुए –

1- पंचदेवोपासना ।
2- अवतारोपासना ।
3- अंगोपासना।

यहां बता दें कि गीताप्रेस के सभी धार्मिक साहित्य पंचोपासना की पूजा अर्चना पद्धतियों पर आधारित हैं। ये पूरी तरह से शास्त्रोक्त और प्रामाणिक हैं। इनके पीछे ब्रहमलीन भाईजी (हनुमान प्रसाद पोद्दार) द्वारा अनुभूत सत्य, आर्ष ग्रंथों का गहन शोध और अनुशीलन है।

पंचदेवों में शामिल हैं –

1- भगवान नारायण
2- भगवान शिव
3- भगवान गणेश
4- भगवान सूर्य
5- भगवती महाशक्ति।

वस्तुतः इन पंचदेवों की उपासना सनातन धर्म का प्राण है। परमतत्व के ये पांचो रूप परस्पर अभिन्न हैं। सच्चिदानंद (सत्, चित और आनंद) स्वरूप हैं।

सनातन धर्म में जिन पांच देवों की निष्ठा के भेद से पांच संप्रदायों की सृष्टि हुई है, वो हैं –

1- वैष्णव
2- शैव
3- गाणपत्य
4- सौर
5- शाक्त

इन्ही पांच संप्रदायों के आराध्य पंचदेवताओं की प्रतिमाएं प्रवेश द्वार में विराजमान हैं।

लीला चित्र मंदिर

गीताप्रेस के लीला चित्र मंदिर में भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े मन को आह्लादित कर देने वाले प्रसंगों के 684 मनोरम चित्र हैं। ये सभी चित्र सिद्धहस्त-कुशल कलाकारों ने हाथों से बनाए हैं। चित्र मंदिर की दीवारों पर संगमरमर पर संपूर्ण श्रीमदभगवद्गीता और संत भक्तों के 700 से अधिक दोहे और सूक्तियां उत्कीर्ण हैं।

ऐसे अस्तित्व में आया देश का अकेला लीलाचित्र मंदिर

गीता प्रेस के प्रकाशन का कार्य सुचारु होने के बाद से श्रीमद्भागवद्गीता के प्रचार प्रसार में लगे लोगों के मन में यह बात आयी कि भारत वर्ष में कहीं तो कोई एक स्थान होना चाहिए जहां हमारे आराध्य भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित श्रीमद्भागवत, महाभारत तथा रामायण में वर्णित मनोरम और नयनाभिराम चित्र एक छत के नीचे संग्रहीत हो सकें। साथ ही भगवान शंकर और भगवान विष्णु सहित अन्यान्य देवी देवताओं के चित्र भी वहां उपलब्ध हों। चूंकि गहन आस्था के साथ एक चट्टानी संकल्प भी इस ट्रस्ट से जुड़े लोगों की अनमोल थाती है इसलिए इस परिकल्पना को अमलीजामा पहनाने के लिए सुखद संयोग बनते गए। कल्याण के लिए वर्षों से हस्त निर्मित चित्र रखे गए थे उन्हें संग्रहीत किया गया और सबमें शीशे का फ्रेम लगाकर गीताप्रेस के मुख्य परिसर में निर्मित दो मंजिले भवन के विशाल हाल में टांग दिया गया।

इन चित्रों की खासियत है कि ये उस समय के चोटी के चित्रकारों द्वारा बनाए गए हैं। यही कारण है कि करीब 70-75 वर्ष बाद भी चित्रों के रंगों की चमक फीकी नहीं पड़ी है। इन चित्रों के यथास्थान लगने के बाद 29 अप्रैल 1955 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसका उद्घाटन किया। इस प्रकार देश का अद्भुत और इकलौता लीलाचित्र मंदिर अस्तित्व में आया।

लीलाचित्र मंदिर भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों की प्रणप्रतिष्ठा तो है ही यह विशुद्ध कलाप्रेमियों के लिए भी कलात्मक अभिरुचि का आकर्षण है। चित्रों के रंगों का संयोजन और उनकी जीवंतता बरबस दर्शकों को आकर्षित कर लेती है। इन चित्रों को बनाने में जिन तीन चित्रकारों की भूमिका है उनमें वीके मित्रा, जगन्नाथ और भगवान प्रमुख हैं। खास बात यह है कि इन चित्रों में विभिन्न देवविग्रहों के वस्त्राभूषण और आयुध पूरी तरह से शास्त्र प्रमाणित हैं और भाई जी की परिकल्पना के मूर्तरूप हैं।

कई चित्रों पर सोने की नक्काशी : कई चित्रों में तो सोने का काम है और वह चित्रकार की अद्भुत कल्पनाशक्ति के जीवंत दस्तावेज हैं।

अन्य धर्मों के पैगंबरों के भी चित्र : इस लीला चित्रमंदिर की रेखांकित करने वाली विशेषता यह है कि इसमें पंचदेवों के चित्रों के साथ भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, प्रभु ईसा मसीह और संत जरथ्रुस्त के भी चित्र हैं जो भारतीय संस्कृति की सबको समाहित करने वाली विशेषता पर पुख्ता मुहर लगाते हैं। इस तरह का लीलाचित्र मंदिर देश में अकेला यही है।

लीलाचित्र मंदिर की खासियत एक नजर में : इसका विशाल कक्ष 20 फीट ऊंचा है और 7100 वर्गफीट में निर्मित है। इसकी दीवारों पर श्रीमद्भागवद्गीता के 18 अध्याय संगमरमर पर उत्कीर्ण हैं। इसके साथ कुरुक्षेत्र में मोहग्रस्त अर्जुन को समझाते पार्थ के सारथी कृष्ण की संगमरमर खुदी मूर्ति है। यह मूर्ति जयपुर से बनवाई गई है।

बाहर और भीतर की दीवालों पर संत कवियों के लगभग 700 दोहे और चौपाइयां लिखी हैं। लीला चित्र मंदिर में श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान शंकर नवदुर्गा गायत्री, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, भगवान विष्णु के दुर्लभ चित्र फ्रेमों में जड़े रखे गए हैं। प्राचीन तथा अर्वाचीन गीता की 1167 पुस्तकें इस विशाल कक्ष में रखी हुई हैं। इनमें दुनिया की 22 भाषाओं में मुद्रित गीता के संस्करण हैं। इसके साथ कई प्राचीन हस्तलिखित गीता की सचित्र पुस्तकें भी दर्शनार्थ रखी गई हैं।

पुस्तकों का वातानुकूलित विक्रय केंद्र : गीता प्रेस की पुस्तकों के सुधि पाठकों के लिए गीताप्रेस के मुख्यद्वार के ठीक सामने वातानुकूलित विक्रय केंद्र बनाया गया है। यहां गीता प्रेस द्वारा देश की 15 भाषाओं में प्रकाशित धार्मिक पुस्तकें उपलब्ध हैं।

गीताप्रेस के अन्य विभागों में गीता रामायण परीक्षा समिति, साधक संघ, नामजप विभाग और गीताप्रेस हस्त निर्मित वस्त्र विभाग शामिल हैं।

देवीदयाल अग्रवाल – ट्रस्टी गीताप्रेस

संस्था के ट्र्स्टी देवीदयाल अग्रवाल ने गीता प्रेस के शताब्दी वर्ष में प्रवेश पर हर्ष जताते हुए इस अवसर पर संस्था द्वारा वर्ष पर्यंत चलाए जाने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा बताई। कहा कि इस अवसर पर चार जून को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का आगमन हो रहा है। उसी दिन से गीता प्रेस के सभी 20 प्रकाशन केंद्रों से शताब्दी वर्ष कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू हो जाएगी जो वर्ष पर्यंत चलेगी। 14 मई को गीता प्रेस ने अपने सौवें वर्ष में पदार्पण कर दिया है। उस दिन सांकेतिक रुप से लीला चित्र मंदिर में गीता पाठ, भजन कीर्तन का आयोजन किया गया। अब राष्ट्रपति के कार्यक्रम के बाद विविध आयोजन होंगे। गीता जयंती के अवसर पर दिसंबर में विशेष आयोजन होगा। 3 मई 2023 को वृंदावन के पीठाधीश्वर राजेंद्र दास जी का गोरखपुर में प्रवचन होगा जो एक सप्ताह चलेगा। वे गीता प्रेस में निरंतर आते रहे हैं। उनकी प्रेरणा से कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं।

देवीदयाल अग्रवाल

श्री अग्रवाल ने बताया कि संस्था का सौवें वर्ष में प्रवेश गौरवान्वित और उत्साहित करने वाला अवसर है। गीताप्रेस ट्रस्ट की यही मंशा और संकल्प है कि जिस सिद्धांतों और आदर्शों को लेकर इस संस्था की स्थापना हुई है उसमें रंचमात्र भी कमी न आए। हम सब इसी भावना से इस पुनीत कार्य में संलग्न हैं और इसे ईश्वर का कार्य मानकर निरंतर आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।

लालमणि तिवारी- प्रबंधक गीताप्रेस

बीते 35 सालों से गीता प्रेस में कार्यरत यहां के प्रबंधक लालमणि तिवारी शताब्दी वर्ष को लेकर बेहद उत्साहित हैं। कहते हैं इस संस्था ने साबित कर दिया है कि अगर ईश्वर अनुरागी, दृढ़संकल्पी और ईमानदार लोग किसी पुनीत कार्य के निमित्त साथ आते हैं तो ऐसे ही स्वर्णिम इतिहास रचे जाते हैं जैसा कि गीताप्रेस और इसकी आधारशिला रखने वाले गृहस्थ संतों ने कर दिखाया है।

लालमणि तिवारी

किसी संस्था ने अगर बिना पीछे देखे अप्रतिहत गति से सौ साल की यात्रा की है तो वह देश और समाज सबके लिए अनुकरणीय है। वे कहते हैं हम जिस दौर में पहुंचे हैं उसमें कीमतें तो आसमान छू रही हैं और मूल्य धूलधूसरित हो रहे हैं। ऐसे दौर में कीमतों को रोकने और मूल्यों को क्षरित होने से बचाने का काम गीताप्रेस ने ही किया है। जो लोग भी सत्य और जीवन मूल्यों के अन्वेषी हैं उनके लिए गीताप्रेस प्रेरणा का एक लाइटहाउस है, उम्मीद की किरण है। उन्होंने बताया कि गीताप्रेस इसी 14 मई को अपने स्थापना के सौवें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। इस अवसर पर पूरे साल भारतीय संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित करने वाले कार्यक्रम होंगे। इसी क्रम में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का चार जून को आगमन हो रहा है। उनकी ओर से इस आशय का स्वीकृति पत्र भी आ चुका है। यह दूसरा अवसर है जब गीता प्रेस में देश के सर्वोच्च पद पर आसीन (राष्ट्रपति) का आगमन हो रहा है। इसके पहले 1955 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस संस्था का मान बढ़ाया था। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा था कि वे यहां आकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।

Happy
Happy
100 %
Sad
Sad
0 %
Excited
Excited
0 %
Sleepy
Sleepy
0 %
Angry
Angry
0 %
Surprise
Surprise
0 %

Blog ज्योतिष

साप्ताहिक राशिफल : 14 जुलाई दिन रविवार से 20 जुलाई दिन शनिवार तक

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी सप्ताह के प्रथम दिन की ग्रह स्थिति – सूर्य मिथुन राशि पर, चंद्रमा तुला राशि पर, मंगल और गुरु वृषभ राशि पर, बुध और शुक्र, कर्क राशि पर, शनि कुंभ राशि पर, राहु मीन राशि पर और केतु कन्या राशि पर संचरण कर रहे […]

Read More
Blog national

तीन दिवसीय राष्ट्रीय पर्यावरण संगोष्टी सम्पन्न

द्वितीय राष्ट्रीय वृक्ष निधि सम्मान -२०२४ हुए वितरित किया गया ११००० पौधों का भी वितरण और वृक्षारोपण महाराष्ट्र। महाराष्ट्र के धाराशिव ज़िले की तुलजापुर तहसील के गंधोरा गाँव स्थित श्री भवानी योगक्षेत्रम् परिसर में विगत दिनों तीन दिवसीय राष्ट्रीय पर्यावरण संगोष्टी का आयोजन किया गया। श्री भवानी योगक्षेत्रम् के संचालक गौसेवक एवं पर्यावरण संरक्षक योगाचार्य […]

Read More
Blog uttar pardesh

सनातन धर्म-संस्कृति पर चोट करते ‘स्वयंभू भगवान’

दृश्य 1 : “वो परमात्मा हैं।” किसने कहा ? “किसने कहा का क्या मतलब..! उन्होंने ख़ुद कहा है वो परमात्मा हैं।” मैं समझा नहीं, ज़रा साफ कीजिये किस परमात्मा ने ख़ुद कहा ? “वही परमात्मा जिन्हें हम भगवान मानते हैं।” अच्छा आप सूरजपाल सिंह उर्फ़ भोलेबाबा की बात कर रहे हैं। “अरे..! आपको पता नहीं […]

Read More
error: Content is protected !!