वट सावित्री व्रत का महत्व ऐसे करें पूजा

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ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। यह व्रत महिलाएं अखंड सौभाग्य के लिए करती हैं। इस व्रत में तीन दिवसीय उपवास रखा जाता है। यह उपवास ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक रखा जाता है। कुछ स्थानों पर वट सावित्री व्रत एक दिन अर्थात ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को ही रखा जाता है। प्रायः एक दिवसीय व्रत का ही प्रचलन है। यह व्रत सावित्री द्वारा अपने पति को पुनः जीवित करने की स्मृति के रूप में रखा जाता है। वट वृक्ष को देववृक्ष माना जाता है। वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा का, तने में भगवान विष्णु का तथा डालियों में भगवान शिव का निवास माना जाता है।

मां सावित्री भी वट वृक्ष में निवास करती हैं। अक्षय वटवृक्ष के पत्ते पर भगवान श्री कृष्ण ने प्रलयकाल में मार्कंडेय ऋषि को दर्शन दिए थे। यह अक्षय वटवृक्ष प्रयाग में गंगा तट पर वेणी माधव के निकट स्थित है। वट वृक्ष की पूजा दीर्घायु, अखण्ड सौभाग्य, अक्षय उन्नति के लिए की जाती है। त्रयोदशी के दिन तीन दिवसीय व्रत का संकल्प लेकर सौभाग्यवती महिलाओं को यह व्रत आरम्भ करना चाहिए। संकल्प यन्त्र इस प्रकार है –

मम वैधव्यादि सकल दोष परिहारार्थं ब्रह्म सावित्री प्रीत्यर्थ सत्यवान सावित्री प्रीत्यर्थ च वटसावित्री व्रतमहं करिष्ये।

यदि तीन दिन व्रत करने का सामर्थ्य न हो, तो अयाचित व्रत और अमावस्या को उपवास करना चाहिए।

वट सावित्री व्रत कथा

मद्र देश में एक समय अश्वपति नामक राजा का शासन था। राजा बड़ा दयालु एवं धार्मिक था। किन्तु उसके कोई संतान न थी। ज्योतिषियों के परामर्श से संतान प्राप्ति के लिए उसने यज्ञ किया। उस यज्ञ के बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई। उसका नाम सावित्री रखा। विवाह योग्य आयु में सावित्री सत्यवान को अपने पति के रूप में चुना लीं। नारद जी को जब यह बात पता चला तो उन्होंने सावित्री के पिता से कहे- कि सत्यवान अल्पायु हैं। अतः सावित्री को कोई दूसरा वर चुनना चाहिए। पिता ने सावित्री को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु सावित्री अपने जिद पर अड़ी रही और बोली, हिंदू स्त्रियां दुनिया भर में केवल एक ही बार किसी पुरुष को चुनती हैं, बार-बार नहीं। सावित्री की जिद पर आश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान के साथ कर दिया। सत्यवान अपने अंधे माता-पिता के साथ में रहते थे।

उनके पिता का नाम द्युमत्सेन सेन था‌ उनका राज्य छिन चुका था। सावित्री भी उनके साथ रहने लगी और अपने सास-ससुर की सेवा करने लगी। नारद जी द्वारा बताया गया सत्यवान के मरण का समय जब आने लगा तो सावित्री उपवास करना आरंभ कर दी। जिस दिन उसके पति के मरण का समय आया, उस दिन सावित्री ने व्रत रखा। सत्यवान जब लकड़ी काटने के लिए जाने लगे तो सावित्री साथ ही गई। जंगल में सत्यवान के सिर में पीड़ा होने लगी तो सावित्री की गोद में सिर रख कर लेट गए। थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक यमदूतों ‌के साथ यमराज आ पहुंचे और सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए।

सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चल दी। उसको आता देख यमराज ने कहा- ,” हे पतिव्रता नारी! पृथ्वी पर ही पत्नी पति का साथ देती है। वहां तक तुमने साथ दिया है। आप वापस लौट जाओ।”- इस पर सावित्री ने कहा कि जहां मेरे पति रहेंगे, मुझे उनके साथ ही रहना है। यही मेरा पति धर्म है। यमराज सावित्री के इस उत्तर से प्रसन्न हो गए और उसने सावित्री से वर मांगने को कहा। सावित्री ने अपने सास-ससुर के लिए नेत्र ज्योति मांगी। यमराज ने सावित्री के सास श्वसुर को नेत्र ज्योति प्रदान कर दी और कहा सावित्री तुम्हें लौटना चाहिए। किंतु सावित्री उसके पीछे चलती रही। सावित्री को आता देखकर यमराज ने उसे दूसरा वर मांगने के लिए कहा।

सावित्री ने ससुर का खोया हुआ राज्य मांगा। यमराज ने सावित्री के ससुर को खोया हुआ राज्य दे दिया, और सावित्री को पुनः लौटने के लिए कहा। किंतु सावित्री अपने अपने पतिधर्म को निभाने यमराज के पीछे- पीछे चलने लगी। सावित्री की पति भक्ति को देखकर यमराज ने एक बार और वर मांगने के लिए कहा‌ तब सावित्री ने कहा कि मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। यमराज ने सावित्री को उसके पति सत्यवान को वापस लौटा दिया। सावित्री अब उसी वटवृक्ष के पास वापस लौट आई। इस प्रकार सावित्री ने अपने ससुर को नेत्र ज्योति तथा उनका राज्य और अपने पति को प्राप्त कर ली। वट सावित्री व्रत कथा श्रवण करने से सौभाग्यवती महिलाओं का सौभाग्य सुरक्षित रहता है, तथा उनकी मनोकामना पूर्ण होती है। ऐसा शास्त्र का वचन है।

ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। यह व्रत महिलाएं अखंड सौभाग्य के लिए करती हैं। इस व्रत में तीन दिवसीय उपवास रखा जाता है। यह उपवास ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक रखा जाता है। कुछ स्थानों पर वट सावित्री व्रत एक दिन अर्थात ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को ही रखा जाता है। प्रायः एक दिवसीय व्रत का ही प्रचलन है। यह व्रत सावित्री द्वारा अपने पति को पुनः जीवित करने की स्मृति के रूप में रखा जाता है। वट वृक्ष को देववृक्ष माना जाता है। वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा का, तने में भगवान विष्णु का तथा डालियों में भगवान शिव का निवास माना जाता है। मां सावित्री भी वट वृक्ष में निवास करती हैं।

अक्षय वटवृक्ष के पत्ते पर भगवान श्री कृष्ण ने प्रलयकाल में मार्कंडेय ऋषि को दर्शन दिए थे। यह अक्षय वटवृक्ष प्रयाग में गंगा तट पर वेणी माधव के निकट स्थित है। वट वृक्ष की पूजा दीर्घायु, अखण्ड सौभाग्य, अक्षय उन्नति के लिए की जाती है। त्रयोदशी के दिन तीन दिवसीय व्रत का संकल्प लेकर सौभाग्यवती महिलाओं को यह व्रत आरम्भ करना चाहिए। संकल्प यन्त्र इस प्रकार है –

मम वैधव्यादि सकल दोष परिहारार्थं ब्रह्म सावित्री प्रीत्यर्थ सत्यवान सावित्री प्रीत्यर्थ च वटसावित्री व्रतमहं करिष्ये।

यदि तीन दिन व्रत करने का सामर्थ्य न हो, तो अयाचित व्रत और अमावस्या को उपवास करना चाहिए।

अमावस्या के दिन बांस की दो टोकरी लें। उसमें सप्तधान्य( गेहूं ,चावल, तिल, कांगनी, श्यामक, देवधान्य) भर ले। उसमें से एक पर ब्राह्मा और सावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की प्रतिमा स्थापित करें। यदि प्रतिमा पास नहीं हो, तो मिट्टी की प्रतिमा बनाई जा सकती है, या उसके स्थान पर सुपारी रखकर ही पूजा की जा सकती है‌ वट वृक्ष के नीचे बैठकर पहले ब्राह्मा- सावित्री का, तदुपरांत सत्यवान- सावित्री का पूजन कर ले‌ सावित्री के पूजन में सौभाग्य वस्तुएं( काजल, मेहंदी ,सिंदूर चूड़ी, बिंदी, वस्त्र ,आभूषण और दर्पण) चढ़ाएं। अब माता सावित्री को अर्घ्य निम्नलिखित मंत्र के साथ दें।

” अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्य नमोस्तु ते “-।।

इसके पश्चात वट वृक्ष का पूजन करें। वटवृक्ष का पूजन करने के उपरांत उसकी जड़ों में निम्नलिखित प्रार्थना के साथ जल चढ़ाएं।

” वट सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमै:। तथा शाखा प्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।। तथा पुत्रैश्च पौत्रेश्च सम्पन्न कुरु मां सदा। “

निम्नलिखित मंत्र का जाप करते हुए वट वृक्ष की परिक्रमा करें।

” नमो वैवस्वताय”

परिक्रमा करते हुए वृक्ष के तने पर कच्चा सूत लपेटें। 108 परिक्रमा का विधान है। न्यूनतम सात परिक्रमा करनी ही चाहिए। अंत में वटसावित्री कथा सुननी चाहिए।

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