पुण्यदायिनी कार्तिक पूर्णिमा आज

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तीनों प्रकार के पापों का उन्मूलन होता है कार्तिक पूर्णिमा के स्नान – दान से परम आनंद की प्राप्ति

आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र

अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी

वाराणसी से प्रकाशित हृषीकेश पंचांग के अनुसार 8 नवम्बर दिन मंगलवार को सूर्योदय 6 बजकर 32 मिनट पर और पूर्णिमा तिथि का मान दिन में 3 बजकर 53 मिनट तक, इसी तरह इस दिन भरणी नक्षत्र भी सम्पूर्ण दिन और रात्रि को 1 बजकर 52 मिनट, प्रातः व्यतिपात और वव करण है। इसके पूर्व अर्थात 7 नवम्बर को सायंकाल से ही पूर्णिमा तिथि का आरंभ सायंकाल 3 बजकर 58 मिनट से प्रारम्भ हो रहा है और चन्द्रोदय के समय पूर्णिमा तिथि होने से व्रत के लिए 7 नवम्बर ही रहेगा, परन्तु स्नान – दान, तर्पण, जप, तप इत्यादि समस्त पुण्यदाई कार्यों के लिए 8 नवम्बर ही मान्य रहेगा।

कार्तिक पूर्णिमा का महत्व

यद्यपि वर्ष में रहने वाली सभी पूर्णिमा तिथियों का महत्व है परन्तु उसमें कार्तिक पूर्णिमा का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस तिथि पर उपवास करने का विधान नहीं है, मुख्यत: यह स्नान दान की तिथि है। इस दिन गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान करने से व्यक्ति के मानसिक, वाचिक और कायिक पापों का उन्मूलन हो जाता है। ऐसा पुराणों का कथन है। कार्तिक की यह पूर्णिमा यदि कृतिका नक्षत्र से युक्त हो अथवा भरणी ( जैसा की इस वर्ष है) या रोहिणी नक्षत्र हो तो गंगा या पवित्र नदी में स्नान का विशेष प्रबल बताया गया है। पुराणों की एक कथा के अनुसार इस पुण्य तिथि को भगवान विष्णु का मत्स्यावतार हुआ था। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शिव ने इसी दिन त्रिपुरासुर का संहार किया था‌ और धर्म की स्थापना की थी। इन दोनों लोकोपकारी कार्यों की पुण्य स्मृति में इस तिथि को स्नान दानादि की विशेष महिमा बताई गई है। इस दिन चन्द्रोदय होने पर छहों कृतिकाओं का पूजन करना चाहिए।

एक दूसरी कथा के अनुसार राजा त्रिशंकु को विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया। देवगण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को स्वर्ग से भगा दिया। शापवश त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध होकर, विश्वामित्र ने अपने तपोबल से एक नई सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। उन्होंने कुश, मिट्टी,ऊंट, बकरी, भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना प्रारंभ कर दिया।इसी क्रम में विश्वामित्र ने नये ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमन्त्रित कर उसमें प्राण फूंकना प्रारंभ कर दिया।सारी पृथ्वी डांवाडोल हो उठी। हर तरह कोहराम मच गया‌।सभी देवताओं ने‌ महर्षि से प्रार्थना की। उन्होंने नई सृष्टि के रचना का संकल्प वापस ले लिया। देवगण प्रसन्न हो गए और उन्होंने पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग सभी स्थानों पर दीपावली मनाई। जिस दिन यह घटना हुई,उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी।

कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने सृष्टि को बचाने तथा धर्म की स्थापना और वेदों के उद्धार के लिए इस दिन मत्स्य के रुप में अवतार लिया था। श्री तुलसी जी का प्राकट्य भी इस तिथि को हुआ है। श्रीकृष्ण को आत्मबोध भी इसी दिन हुआ था। काशी में दीपावली का उत्सव मनाने के सम्बन्ध में मान्यता है कि काशी के राजा दिवोदास ने काशी में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव जी मेष बदलकर काशी के पंचगंगा घाट पर आकर स्नान, ध्यान किए।जब यह बात राजा दिवोदास को पता चला, तो उन्होंने देवताओं के प्रतिबंध को समाप्त कर दिया। इस दिन सभी देवताओं ने कार्तिक पूर्णिमा को दीवाली मनाई थी। इसी से यह तिथि देव दीपावली के रुप में मान्य हुआ।

जो‌ व्यक्ति पूरे कार्तिक मास स्नान करते हैं,उनका नियम इस दिन पूरा हो जाता है। इस दिन भगवान नारायण के पूजन का भी बड़ा महत्व है। सायंकाल के समय देवमन्दिरों, चौराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों और तुलसी के पौधों के पास दीप प्रज्वलित करना चाहिए। चांद्रायण व्रत की समाप्ति भी इसी दिन होता है। गंगा जी को दीपदान किया जाता है। यदि गंगा नदी के किनारे न जा सकें तो घर में ही जलधरी ( जिस पात्र में गंगाजल को रखा गया है) में स्थित मां गंगा को दीपदान करें। कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ कर प्रत्येक पूर्णिमा को व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते‌ हैं।

काशी में देव दीपावली का समारोह इसी दिन मनाया जाता है।इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं हैं। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के पश्चात, उनके तीनों पुत्रों ने बदला लेने का प्रण कर लिया। उन्होंने ‌कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी से वर मांगा -” से प्रभु ! आप हम लोगों के लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और तीनों पुरियां जब तक अभिजित नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हो और कोई क्रोध पर विजय पाने वाला इसे नष्ट करना चाहे, तब इन पुत्रियों का विनाश और हमारी मृत्यु हो।”- ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा वरदान दे दिया। उसके बाद तीनों ने अपने आतंक से पाताल, पृथ्वी और स्वर्ग – तीनों लोकों में उत्पात प्रारंभ कर दिया।देवता, मुनि, ऋषि भगवान शिव से महात्मा मांगने गए और उन्होंने इन तीनों राक्षसों का अन्त करने के करने की प्रार्थना की। उसके बाद भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध कर दिया।इन तीनों राक्षसों के समाप्त होने की प्रसन्नता में सभी देवताओं ने प्रसन्न होकर काशी में लाखों दीप जलाकर खुशियां व्यक्त की।जिस दिन यह हुआ, उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा की तिथि थी।कहा जाता है कि उसी दिन से आज तक कार्तिक मास की पूर्णिमा पर काशी में देव दीपावली मनाई जाती है।

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