आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र
अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी
रामायण में मगध नरेश अजातशत्रु द्वारा 500 ईश्वी पूर्व में सोन- गंगा नदी के संगम पर स्थापित पाटलिपुत्र का उल्लेख नहीं मिलता है। जबकि विश्वामित्र, राम लक्ष्मण के मिथिला यात्रा के दौरान सोन गंगा के संगम का उल्लेख हुआ है। रामायण में विशाला और मिथिला दो अलग-अलग राज्य थे। विशाला के शासक सुमति थे और मिथिला के शासक जनक थे। बुद्ध के समय यह दोनों राज्य एक थे और वैशाली के रूप में जाने जाते थे । इस प्रकार रामायण महात्मा बुद्ध से पूर्व की रचनाए है। रामायण में कोसल जनपद की राजधानी अयोध्या बताई गई है। जबकि जैन ग्रंथों और बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या साकेत के रूप में जानी जाती थी और कोसल की राजधानी श्रावस्ती थी। महात्मा बुद्ध के समय में श्रावस्ती में राजा प्रसेनजीत का शासन था। रामायण के अनुसार श्रावस्ती की स्थापना लव ने की थी और इसे अपनी राजधानी बनाया था। रामायण के उत्तरकांड में कोसल,अंग, कान्यकुब्ज, मगध, मिथिला आदि छोटे छोटे राज्यों का उल्लेख हुआ है।यह राजनीतिक स्थिति बुद्ध के पूर्व की है।
रामयुग के संबंध में आधिकारिक जानकारी का स्रोत है वाल्मीकि रामायण। इस रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि ने भगवान श्री राम की अयोध्या वापस लौटने के उपरांत की थी। वस्तुतः बाल्मीकि ने रामचरित्र को नारद जी से सुना था। फिर ब्रह्मा जी के आदेश से योग के माध्यम से रामचरित को पूर्ण जानकार श्लोक वध रामायण की रचना की । इसमें 24000 श्लोक 500 सर्ग और सात कांड हैं। इन कांडों के नाम है बालकांड, अयोध्या कांड, अरण्यकांड, किष्किंधा कांड, सुंदरकांड, युद्ध कांड और उत्तरकांड। बाल्मीकि रामायण का दूसरा नाम पौलस्त्य वध (रावण वध) था। इस रामायण का सर्वप्रथम अध्ययन एवं गायन लव कुश ने किया था। लव कुश ने ऋषियों के समक्ष इस का गायन किया था। उसके पश्चात उन्होंने अयोध्या की वीथियों में इसका गायन किया। तदुपरांत राम की राजसभा में इसे गाया। पुराणों के अनुसार राम का अवतरण 24 वें श्वेता युग में हुआ था। महर्षि बाल्मीकि राम के समकालीन थे। इसलिए रामायण का रचनाकाल 24 वां त्रेता युग माना जा सकता है।– परंतु आधुनिक विद्वान इससे सहमत नहीं है। उनके अनुसार रामायण की रचना 500 पूर्व से दूसरी शताब्दी ईशा पूर्व के बीच में हुई है। अयोध्या कांड से युद्धकांड सर्वाधिक प्राचीन है। और बालकांड- उत्तरकांड प्रक्षिप्त अर्थात बाद में जुड़े हुए हैं। बाल्मीकि रामायण की रचना की पूर्व सीमा 500 ईसा से पहले की निम्नलिखित साक्ष्यों के आधार पर बलदेव उपाध्याय आदि विद्वानों ने निर्धारित की है।
रामायण में राम,भरत आदि के जन्म के समय लग्न,राशि एवं ग्रहों की स्व – उच्चादि राशिगत स्थिति का वर्णन हुआ है। भारत में इन सिद्धांतों का प्रचलन दूसरी शताब्दी ईस्वी माना जाता है।वस्तुत: रामायण की मूलरुप से रचना बुद्ध के पूर्व की है।बाद में इसमें कथाओं, प्रसंगों आदि का समावेश होता गया और ऐसे साक्ष्य जुड़ते गए, जो कि इसकी उपरी सीमा को बढ़ाते हैं। रामायण के मुख्यत: तीन पाठ प्रचलित है – प्रथम निर्णय सागर संस्करण — मुंबई के निर्णय सागर प्रेस से सन् 1902 ईश्वी में के- पी- परब ने इस संस्करण को प्रकाशित किया था। उत्तर भारत में वही संस्करण प्रचलित है।गीता प्रेस गोरखपुर आदि की रामायण इसी संस्करण पर आधारित है। द्वितीय बंगाल संस्करण – जी-गोरेशियो नामक इटली के विद्वान ने सन् 1843-1867 में इस संस्करण का प्रकाशन किया था। मन्मथनाथ दत्त ने इसे अंग्रेजी में सन् 1892-94 में अनुदित किया था। तृतीय संस्करण- सन् 1923 में डी-ए-वी- कालेज लाहौर द्वारा इस संस्करण का प्रकाशन किया गया था।इसे कश्मीर संस्करण भी कहते हैं।- रामायण के अनेक संस्करणों के होने का कारण यह है कि यह आख्यान ग्रन्थ है। आरंभ में इसे मौखिक रुप से गाया जाता था।बाद में यह लिपिबद्ध हुआ। मौखिक गायन के कारण इसमें अनेक प्रसंग एवं कथाएं जुड़ती चली गई।
याकोबी के अनुसार रामायण की भाषा शैली पाणिनी से पूर्व की है। इस प्रकार रामायण की रचना महर्षि पाणिनि से पूर्व हुई थी। रामायण को श्लेगल ने 11 ईशा पूर्व, याकोबी ने 800 ईसवी पूर्व, कामिल बुल्के ने 600 ईशा पूर्व, मैकडोनेल ने 5 00 ईशा पूर्व, आचार्य बलदेव उपाध्याय ने 500ईशा पूर्व की रचना मानी है। राम कथा का उल्लेख है दशरथ जातक में मिलता है,जो कि 300 ईसा पूर्व की रचना है। इसमें रामायण के युद्ध कांड का एक श्लोक भी मिलता है। जैन कवि विमलसूरि ने राम कथा पर आधारित “पउम चरिय “नामक प्राकृत भाषा में एक महाकाव्य की रचना 62 ईसवी में की थी। बौद्ध कवि कुमारलात ने -” कल्पना मंडलिका”- में रामायण के गायन का उल्लेख किया है। उनका यह ग्रंथ 180 ईश्वी का है। महाभारत में वनपर्व के अध्याय 273-293 के अंतर्गत रामोपाख्यान में राम कथा दी गई है ,जो कि बाल्मीकि रामायण का संक्षिप्त रूप है। महाभारत में भगवान राम से संबंधित स्थानों श्रींगवेरपुर और गौप्रचार को तीर्थ माना गया है। इसके अतिरिक्त रामायण में मूर्ति पूजा का उल्लेख नहीं है जो कि इसे मौर्य युग के पूर्व का सिद्ध करती है। रामायण में कुछ ऐसे साक्ष्य प्राप्त होते हैं जो कि इसकी ऊपरी सीमा शताब्दी द्वितीय शताब्दी तक ले जाती हैं। रामायण में यवन,पह्लव,शक का उल्लेख हुआ है और इनको भारतीय सैनिकों से अधिक शक्तिशाली योद्धा के भाव से उल्लेख हुआ है। भारत में यवनराजा सिकंदर 327 से सर्व प्रथम आए थे। शकों का आगमन 71 ईसवी में हुआ। पह्लव भी शकों के साथ ही भारत आए। शक और पह्लवों की शक्ति 150 ईश्वी के लगभग चरम थी। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि बाल्मीकि रामायण की रचना इसी के लगभग की गई होगी।
रामकथा के महाशोध ग्रंथ लिखने वाले फादर कामिल बुल्के ने विश्व भर में प्रचलित और लिखित अनेक रामकथाओं का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है।जब भारतीय संस्कृति और धर्म विदेशों का प्रचार विदेशों में हुआ तो भारत के इस ऐतिहासिक, पौराणिक ग्रंथ की कथा वहां भी पहुंची। वहां के साहित्यकारो ने इस कथा और राम के प्रसंग से प्रभावित होकर अपने भाषाओं में इस कथा को कुछ सामान्य परिवर्तन कर लिखा है।एक समय ऐसा भी कहा है जब बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म मध्य एशिया से लेकर इंडोनेशिया तक फैला हुआ था। उस समय उन देशों में वहां से निवासियों ने राम के चरित्र से प्रभावित होकर उनकी कथा का विस्तार किया।यही कारण है कि आज सम्पूर्ण विश्व में राम की कथा प्रायः सभी स्थानों पर मिलते हैं।महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में राम की कथा का रोचक ढंग से वर्णन किए हैं।
चैत्र रामनवमी को भगवान श्रीरामचन्द्र का जन्म हुआ था। इस दिन उपवास रखकर भगवान श्रीराम का पूजन और व्रत रखा जाता है। इस दिन को दुर्गा नवमी और रामनवमी दोनों कहा जाता है। इसमें शक्ति और शक्तिधर दोनों की पूजा की जाती है।इस दिन के व्रत की चारों जयन्तियों में गणना है। इसमें मध्याह्न व्यापिनी शुद्धा तिथि ली जाती है। विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है कि यदि दो दिन मध्याह्न व्यापिनी हो तो पहले दिन जिस समय मध्यान्ह में शुक्ल नवमी हो उसी दिन व्रत रखना चाहिए। यह भी कहा गया है कि यदि इसमें अष्टमी का वेध हो तो निषेध नहीं है,दशमी का वेध वर्जित है। यह नित्य, नैमित्तिक और काम्य- तीन प्रकार का होता है नित्य होने से इसे निष्काम भावना रखकर आजीवन किया जाए तो उसका अनन्त और अमिट फल होता है। और यदि किसी निमित्त या कामना से किया जाए तो उसका यथेष्ठ फल मिलता है। पुराणों के अनुसार श्रीरामचन्द्र जी का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी, गुरुवार को पुष्य नक्षत्र ( दूसरे मत से पुनर्वसु नक्षत्र), मध्याह्न कर्क लग्न में हुआ था।उत्सव के लिए तो यह सदैव आ नहीं सकते, परन्तु जन्मर्क्ष कई बार आ जाता है। अतः वह हो तो उसी को ले लेना चाहिए।जो व्यक्ति रामनवमी का भक्ति और विश्वास के साथ व्रत करते हैं,उनको महान फल मिलता है।
व्रती को चाहिए कि व्रत के पहले दिन अर्थात चैत्र शुक्ल अष्टमी को प्रातः काल स्नान से निवृत्त होकर भगवान रामचंद्र जी का स्मरण करें और दूसरे दिन चैत्र शुक्ल नवमी को नित्य कृत्य से निवृत्त होकर -“उपोष्य नवमी त्वद्य यामेष्टष्टसु राघव।तेन प्रीतो भव त्वं हो संसारात् त्राहि मां हरे।।”–इस मन्त्र से भगवान के प्रति व्रत करने की भावना प्रकट करें। और -” मम भगवत्प्रीति कामनया रामजयन्ती व्रतमहं करिष्ये”- यह संकल्प करके काम क्रोध लोभ मोहादि से रहित होकर व्रत करें। तत्पश्चात मन्दिर अथवा अपने घर पर ही ध्वजा पताका, तोरण और बंदनवार करके, उसके उत्तर भाग में रंगीन कपड़े पर मण्डप बनाएं और उसके अन्दर सर्वतोभद्रमण्डल की स्थापना करके, उसके मध्य भाग में यथाविधि कलश स्थापन करें।कलश के उपर राम पंचायतन ( जिसके मध्य में राम- सीता,दोनों पार्श्वों में भरत, शत्रुघ्न, पृष्ठ प्रदेश में लक्ष्मण और पादतल में हनुमान जी) की सुवर्ण निर्मित मूर्ति स्थापना करके,उसका आवाहन षोडशोपचार पूजा करें।इस दिन भगवान का भजन – स्मरण, स्त्रोत पाठ, दान- पुण्य, हवन, पितृ श्राद्ध और उत्सव करें।इस दिन रात्रि में गायन वादन नर्तन ( रामलीला) और चरित्र श्रवणादि द्वारा जागरण करें। दूसरे दिन दशमी को पारित करके व्रत का विसर्जन करें। यदि शक्ति हो तो सुवर्ण की मूर्ति का दान भी करें।इस दिन ब्राह्मण और विष्णु भक्तों को भोजन भी कराना चाहिए।