आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र
अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी
संसार में दो विचार धारा के लोग हैं।एक मूर्ति पूजक और दूसरे जो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं।सेमेटिकों में इस्लाम, ईसाई और यहूदी कहते हैं कि वे मूर्ति पूजा नहीं करते हैं। वे मूर्ति पूजा के घोर विरोधी है। ये जिन देशों में पदार्पण किए, उनका प्रथम कार्य था कि वहां मूर्तियों को छोड़ना प्रारंभ किए। अपने पैगम्बर और अपनी पवित्र किताब को उनके हाथों में देना शुरू कर दिए।इस समय संसार दो खेमों में बंटा हुआ है।एक विचार धारा के लोग मूर्ति पूजा के समर्थन में हैं और दूसरे मूर्ति भंजक है। मूर्ति के न मानने वालों का तर्क है कि उस असीम परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है।वह निराकार है। वह मानवीय चिंतन से परे है। वह सर्वश्रेष्ठ और सर्वव्यापी है। फिर उसकी मूर्ति कैसे बनाई जा सकती है। लेकिन मूर्ति के उपासकों का कथन है कि असीम और सर्वव्यापी का चिंतन कैसे किया जा सकता है? उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए कोई प्रतीक चाहिए। और वह प्रतीक कोई मूर्ति ही हो सकती है। मूर्ति पूजा प्रतीक पूजा का सीएस रुप है। वेदों में एक स्थान पर कहा गया है – कस्मै देवाय हविषा विधेम – यह हिरण्यगर्भ सूक्त में है। इसका अर्थ करते हुए भाष्य कार कहते हैं कि वैदिक ऋषि अपने श्रद्धा को अर्पित करने के लिए चिंतन करते हैं कि किस प्रकार हम अपने समादार भाव को परमात्मा के प्रति अर्पित करें।
मूर्तिपूजा का प्रदुर्भाव :
फिर मूर्ति पूजा कहां से आई।यह गवेषणा का विषय है। स्पष्ट रुप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि इसका प्रार्दुभाव कब हुआ। मूर्ति पूजा मानव जाति के आदिम काल से होती चली आ रही है। हर कबीले का एक देवता होता है जिसे वे श्रद्धा से पूजते थे। पश्चिम और मध्य पूर्व का इतिहास बताता है कि ग्रीक और बेबीलोन के निवासी भी मूर्तियों का निर्माण कर उनकी पूजा अपने तौर तरीके से करते रहते थे। बेबीलोनिया समुदाय बाल नाम के देवता की अर्चना करते थे और पशुओं को बाल देवता के बेदी पर बलि देते थे।यदि हम ग्रीक के इतिहास पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि ईसाईयत के पहले वहां के निवासी अपोलो, डायना, हरक्यूलिस और भी देवताओं की उपासना ओलम्पिया नामक पहाड़ी पर जाकर करते थे। बाकायदा उनके उपासना स्थल थे जहां वे वर्ष में एक बार इकट्ठा होकर खेलों का आयोजन करते और अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि देते थे।इलियड और ओडेसी जैसे कृति में इसे देखा जा सकता है।यह ग्रीक कवि होमर की रचना है।
पहले देवताओं की पूजा प्रतीकों के माध्यम से होती थी।मैं बहुत पुराने इतिहास की बात तो नहीं करता लेकिन प्राचीन बौद्ध साहित्य में चौरा पूजन की परम्परा रही है,इसे बखूबी जानता हूं।आज कुछ सौ वर्ष पूर्व प्रत्येक ग्राम में एक काली बाबा और डीह का स्थान होता था।आज भी गांवों में यह देखा जा सकता है।ये ग्राम देव कहलाते हैं।इनकी मूर्तियां नहीं होती , कुछ मिट्टी के ढेर को एकत्र कर उसे लीप पोत कर एक चौरा का रुप ले दिया जाता था।वह उस देवता का प्रतीक होता था। समस्त ग्रामवासी वहां जाकर अपने कल्याण के लिए अपने तरीके से पूजा सम्पन्न करते हैं। वहां मूर्तियां नहीं होती केवल उस देवता के लिए एक प्रतीक होता है।यहीं पैगोडा या चौरा कहलाता है। बुद्ध के समय में इस तरह की पूजा की परम्परा विद्यमान थी। लोग अपने पूर्वजों और महापुरुषों के लिए चौरे बनाते थे और पूजा अर्चना करते रहते थे। आदिम वैदिक युग के पूजा का अवशेष आज भी हमको दिखाई देता है।
वैदिक काल में शायद मूर्ति नही था। यदि रहा होता तो उसका उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता। वैदिक युग में न तो मंदिर थे और न ही मूर्तियां ही।वे अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहुति प्रदान करते रहे। बौद्ध काल में भी मंदिरों का वर्णन नहीं मिलता और न ही मूर्ति पूजा का ही जिक्र है। लेकिन एक बात तो सच ही है कि वे देवताओं की उपासना करते थे। वैदिक ऋचाओं में देवताओं की उपासना का वर्णन है। उनके आकार प्रकार का जिक्र नहीं है लेकिन उनके गुणों के विषय में निरूपण है।उस काल में इन्द्र, मरुदगणों, पूषा, रुद्र, अश्विनी कुमार,भग इत्यादि की पूजा होती थी। इन्हें प्रकृति के नियामक देवताओं के रुप में दर्शाया गया है। वैदिक आर्य इन देवताओं से उपर एक परम सत्ता को परिभाषित किए। उन्होंने समस्त देवों को जो प्रकृति को नियंत्रित करते हैं उनको परम ब्रह्म से उद्भव माना है। वैदिक आर्य अग्नि की पूजा करते थे और अग्नि के माध्यम से ही समस्त देवों को उनका भाग लिया करते थे। उनका चिंतन था कि अपना भाग ग्रहण कर देव गण सौम्य हो जाते हैं और हमारी रक्षा करते हैं।
मूर्तिपूजा का उद्भव :
प्रतीक पूजा के प्रारंभिक स्वरुप से ही मूर्ति पूजा का उद्भव हुआ।यहूदी जो मूर्ति पूजा नहीं करते हैं वे भी अपने परमेश्वर यहोवा के लिए एक सीनगाग ( यहूदी मंदिर) का निर्माण कर उसमें एक पवित्र स्थान चिह्नीत कर अपने परमेश्वर के लिए एक बेदी का निर्माण करते हैं। मूर्ति तो नहीं बनाते लेकिन बेदी बनाकर,एक प्रतीक निर्माण कर प्रार्थना करते हैं। इस्लाम के लोगों ने उन्हीं का अनुकरण किया है।वे भी एक मस्जिद बनाकर उसमें एक पवित्र स्थान निर्मित करते हैं और काबा की तरह मुंह कर नमाज अदा करते हैं।काबा भी तो एक प्रतीक ही है।वह भी तो एक पत्थर ही जिसे वे पवित्र मानते हैं। प्रतीक चाहे वह एक चौरा हो या एक पत्थर या निर्मित मानवाकार आकृति – ये सभी मूर्ति पूजा या प्रतीक पूजा है।प्रतीक पूजा को मूर्ति पूजा से पृथक नहीं किया जा सकता है।जो किसी भी रुप में प्रतीकों की पूजा करते हैं वे मूर्ति पूजा ही करते हैं।
वैदिक काल में नहीं थी मूर्तिपूजा :
वैदिक काल में मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था। इस बात को स्वामी दयानंद सरस्वती ने साक्ष्यों के साथ सत्यार्थ प्रकाश में उद्धृत किया है। उन्होंने कहा है कि वेद मूर्ति पूजा का विरोध करता है। केवल हवन या यज्ञ के माध्यम से परमात्मा को आहुति देने का निर्देश वेदों में पाया जाता है। उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा है।वैदिक युग के बाद कालांतर में महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध मंदिर बनने लगे। जिसमें बुद्ध और महावीर की मूर्तियां रखकर उनकी पूजा होने लगी। इन मंदिरों में हिंदू भी बड़ी संख्या में जाने लगे। उसके बाद राम और कृष्ण के मंदिर बनाए जाने लगे।
इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ था। प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों में स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्ठित की जाती थी। मंदिरों में पूजा पाठ नहीं होता था। हम आज खजुराहो कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन है भारत के मंदिरों को देंखे तो पाएंगे कि मंदिर किस तरह के होते थे। मालूम होता है कि ध्यान और प्रार्थना के केन्द्र थे। जब ध्यान या प्रार्थना करने वाले पूरी जमात क्षीण हो गई तो इन मंदिरों में पूजा पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा पाठ के प्रचलन से मंदिरों की बाढ़ आ गई। लोग मंदिरों में जाकर पूजा आरती करते थे। इससे कर्मकाण्डों का जन्म हुआ था।
मूर्तिपूजा और विरोध का इतिहास :
मूर्ति पूजक तथा मूर्ति भंजक के संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। प्रारंभ से ही मूर्ति पूजकों के धर्म थे। मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाई- एक जो वास्तु और खगोल विद्या के जानकार थे उन्होंने नक्षत्रों और तारों के मंदिर बनाए ।दूसरे वे लोग जो अपने पूर्वजों या प्रोफेट के मरने के बाद उनकी स्मृति में मूर्ति बनाते थे।कुछ वे लोग जिन्होंने अपने मन से देवता गढ़ लिए थे। हर कबीले का एक देवता होता था। कुल देवता या कुलदेवी भी होती थी,जिसकी वे पूजा करते थे। शोधकर्ताओं के अनुसार अरब के मक्का में पहले मूर्तियां ही रखी जाती थी। उस काल में बृहस्पति, मंगल अश्वनीकुमार, गरुड़, नृसिंह और महाराजा बलि सहित लगभग 300 मूर्तियां रखी हुई थीं। ऐसा माना जाता है कि जाट और गुर्जर इतिहास के अनुसार तुर्किस्तान पहले नागवंशियों का गढ़ था। वहां नाग पूजा का प्रचलन था।
भगवान कृष्ण के काल में लोग इन्द्र भ्रामक देवता से डरते थे। कृष्णा ने इंद्र देवता के डर को लोगों के मन से निकाले था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं की मूर्तियों का साक्ष्य मिला है। अथर्ववेद की रचना के बाद हिंदू समाज में दो फाड़ में बट गया था।ऋग्-यजु और साम- अथर्व। शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजा के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिंदू और जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्ध काल में बुद्ध और महावीर की मूर्तियों को अपार जन समर्थन मिलने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगी थीं। भारत में जो लोग अनीश्वरवादी थे, वे निराकार ईश्वर को नहीं मानते थे। उन्होंने प्रोफेटों और पूर्वजों आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया था। इन अनीश्वरवादियों में जैन, बौद्ध, चार्वाक और न्यायवादी आदि धर्म के लोग थे।
मूर्तिपूजा का मनोविज्ञान :
जो मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं वे वास्तविकता से अपरिचित हैं। किसी ने किसी रुप में मूर्ति पूजा या यों कहें प्रतीक पूजा प्रारंभ से ही रही है।वे प्रकृति की शक्ति को देखकर आश्चर्यचकित और भयभीत थे और अपने भय और संसार के निवारण के लिए किसी स्थान में एकत्र होकर प्रार्थना करते थे। पत्थर के किसी शिला,पवित्र मिट्टी के ढेर या नदी या वृक्ष को प्रतीक मानकर, उसमें उस देवता की परिकल्पना कर प्रार्थना करते रहे। प्रारंभिक कबीलों के समाज में यह आज भी देखा जाता है। कालांतर में महापुरूषों को सम्मानित करने के लिए उन्होंने उनकी मूर्ति का निर्माण करना शुरू किया। पंचतत्वों से निर्मित किसी भी आकार पर श्रद्धा रखना मूर्ति पूजा ही है। मंदिर ,मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, पुस्तक, आकाश,चौरा मूर्ति पूजा के ही अंतर्गत आते हैं। मूर्ति पूजा के समर्थक कहते हैं कि मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर रखने के मूर्ति पूजा सहायता करती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और पुष्प आदि अर्पित करने से विश्वास और प्रसन्नता का अहसास होता है। विश्वास और आंतरिक प्रसन्नता के कारण ही मनोकामना पूर्ण होती है।
विद्वानों के अनुसार मूर्तिपूजा का प्रारंभ:
मूर्ति पूजा का प्रचलन गुप्त काल से हुआ। उसके पूर्व न मंदिर मिलते हैं और न ही पूजनीय प्रतिमाएं। दयानंद सरस्वती का कथन है कि जैनियों ने ही मूर्ति पूजा प्रारंभ की। जवाहरलाल नेहरू का कथन है कि मूर्ति पूजा भारत में यूनान से आई। प्रारंभिक बौद्ध काल मे इसका घोर विरोध था। बाद में स्वयं बुद्ध की मूर्तियां बनने लगी। फारसी और उर्दू भाषा में प्रतिमा या मूर्ति के लिए बुत शब्द का प्रयोग होता है। यह बुत- शब्द बुद्ध शब्द का ही रूपांतर है। एक और विद्वान का कथन है कि ग्रीक और यूनान आदेशों में देवताओं की मूर्तियां बनाकर पूजा की जाती थी। वहां से भारत में मूर्ति पूजा आई। बौद्धों में मूर्ति पूजा आरंभ की और बाद में पूरे देश में फैल गया था।
विश्व के सभी धर्मो में मूर्तिपूजा :
कुछ भी कहा जाए लेकिन हकीकत यही है कि विश्व के सभी धर्म, जातियों के लोग मूर्ति पूजा करते हैं।चाहे अपने महापुरुषों की मूर्ति बनाकर या मजार निर्माण कर अथवा क्रूस का चिह्न निर्मित कर या पशु पक्षियों का आकार या पुस्तक को प्रतीक मानकर या काबा जैसे किसी पत्थर को चिह्नित कर। लेकिन मूर्ति पूजा सभी धर्म के लोग कर रहें हैं।जिस धर्म के लोगों का कथन है कि वे मूर्ति पूजक नहीं है वे भी मूर्ति पूजा कर रहे हैं। प्रतीक ही मूर्ति है।पंचभूतों में जो मूर्त है , ठोस आकार में परिणित है , वह मूर्ति ही है। मस्तिष्क में प्रत्येक चिंतन या विचार एक आकार का निर्माण कर ही लेता है।जब हम किसी विचार को प्रस्तुत करते हैं तो एक चित्र या प्रतिकृति उभर कर आ जाती है। अतः अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीक आवश्यक हो जाते हैं।