वैष्णव धर्म का महान पर्व रथ यात्रा आज

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आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र

अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी

20 जून को सूर्योदय 5 बचकर 13 मिनट पर और आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि का मान दिन में 11 बजकर 14 मिनट तक, पुनर्वसु नक्षत्र सम्पूर्ण दिन और रात को 9 बजकर 31 मिनट तक और सुस्थिर नामक औदायिक योग भी है। इस दिन भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा कि पर्व है। यद्यपि यह पर्व उड़ीसा प्रांत के पुरी में मनाया जाता है।फिर भी अयोध्या, वाराणसी, मथुरा और द्वारका सहित सभी स्थानों पर इसका आयोजन होता है। गोरखपुर जनपद में बड़हलगंज,चिलवां ग्राम के पश्चिम डणारी आश्रम, देवरिया में पवहारी बाबा के आश्रम तथा गोरखपुर शहर में भी गीता गार्डन, और विष्णु मंदिर सहित अनेक वैष्णव मंदिरों पर इस रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। कहीं कहीं रथ का प्रयोग न करके आधुनिक वाहनों पर स्थापित कर भगवान शालिग्राम की मूर्तियों का परिभ्रमण कराया जाता है।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र में जब चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित हो तो सुभद्रा, बलराम और श्रीकृष्ण जी को रथ पर बैठाकर नगर भ्रमण कराएं और भगवान विष्णु का आशिर्वाद प्राप्त करें।इस तिथि के दिन भगवान शालिग्राम का विधिपूर्वक पूजन व दर्शन करना चाहिए।चना, मूंग,मटर आदि मिलाकर व चावल का भात बनाकर भगवान विष्णु को अर्पित करना चाहिए। भगवान के चित्र या मूर्ति अथवा शालिग्राम को रथ या वाहन पर बैठाकर नगर या ग्राम भ्रमण कराना चाहिए।इस दिन भगवान का जुलूस निकालें। जुलूस में सम्मिलित होकर भगवान का नाम कीर्तन करना चाहिए।इस दिन बहुत से व्यापारी अपने सही खाते का पूजन भी करते हैं।

भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा का विवरण

भगवान श्री जगन्नाथ जी की द्वादश यात्राओं में गुण्डिचा यात्रा प्रमुख हैं।इसी गुण्डिचा मन्दिर में विश्वकर्मा ने भगवान श्री जगन्नाथ जी, बलराम जी तथा सुभद्रा जी की दारुप्रतिमाएं बनाई थी। महाराजा इन्द्रद्युम्न ने इन्हीं मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया था। अतः गुण्डिचा मंदिर को ब्रह्मलोक या जनकपुर भी कहते हैं। गुण्डिचा मंदिर में यात्रा के समय श्री जगन्नाथ जी विराजमान होते हैं।उस समय वहां जो महोत्सव होता है,वह गुण्डिचा महोत्सव कहलाता है।

स्कन्द पुराण में कहा गया है कि वैशाख के शुक्ल पक्ष में जो पापनाशिनी तीज आती है, उसमें रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर पवित्र भाव से संकल्प पूर्वक एक आचार्य का वरण करें।फिर एक या तीन बड़ी से श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा जी के लिए तीन‌ रथ तैयार करावें, जिसमें बैठने के लिए सुन्दर आसन हो और जो सुन्दर कलापूर्ण ढंग से बनाए गए हों। रथों का निर्माण हो जाने पर शास्त्रोक्त विधि से मंत्र के अनुसार पूर्ववत उनकी प्रतिष्ठा करें। मार्ग का भलीभांति संस्कार करावें। मार्ग के दोनों ओर फूलों के गुच्छे,माल्य सुन्दर वस्त्र, चंवर,गुल्मलता और फूलों के द्वारा मंडल बनाए। रास्ते की भूमि बराबर कर देनी चाहिए। वहां कीचड़ नहीं रहना चाहिए, जिससे भगवान का रथ सुखपूर्वक चल सके।फिर पग पर रास्ते के दोनों पार्श्वों में दिशाओं को सुगंधित करने वाले धूपपात्र रखें जाएं।सड़क पर चन्दन के जल का छिड़काव हो।

स्कन्द पुराण में वर्णन आया है कि ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में जो पूर्णिमा आती है, उसमें ज्येष्ठ नक्षत्र के एक ही अंश में जब चन्द्रमा और बृहस्पति हैं, बृहस्पतिवार का दिन है तो वह यहां ज्येष्ठी पूर्णिमा कहलाती है।यह सब पापों का नाश करने वाली,महापुण्यमयी और भगवान की प्रीती बढ़ाने वाली है। उसमें करुणासिंधु देवेश्वर जगन्नाथ जी के स्नानिभिषेक और पूजन दर्शन करके मनुष्य पाप राशि से मुक्त हो जाता है। नगाड़ा और ढोल आदि बजाए जाएं। सोने चांदी के ध्वज – जिनके बीच चित्रकारी की गई है , लगाएं जाए और उस पर पताकाएं फहरती रहें। भूमि पर बहुत ही बैजन्ती मालाएं बिछी है। अनेक कसे कसाए हाथी घोड़े प्रस्तुत किए जाएं,जिनका भली भांति श्रंगार किया गया है।इस प्रकार सामग्री एकत्र कर उत्तम भक्ति से युक्त हो महान उत्सव करें।

इस प्रकार उत्सव आरंभ होने पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभ्रदा को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग धीरे-धीरे ले जाएं।बीच बीच में उन्हें रुईदार बिछौने पर उन्हें उन्हें विश्राम कराएं और इस प्रकार उन्हें विश्राम कराएं और उन्हें रथ पर लें जाएं। पुनः उस उत्तम रथ को घुमाकर इन तीनों मूर्तियों को सुन्दर चंदोवा युक्त मंडप से सुशोभित कर रथ में विराजमान करें।उनकी नाना प्रकार के उपचारों से पूजा करें।इस प्रकार रथ पर विराजमान होकर यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथ जी को जो लोग भक्तिपूर्वक दर्शन करते हैं,उनका भगवान के नाम में निवास होता है।जिस भगवान के दर्शन और नाम संकीर्तन करने से सौ जन्मों का पाप नष्ट हो जाता है,उस भगवान जगन्नाथ जी का दर्शन करके मनुष्य करोड़ों जन्मों के पाप का नाश करता है।

अषाढ़ के शुक्ल पक्ष में पुष्प नक्षत्र से युक्त द्वितीया तिथि आने पर उसमें अरुणोदय के समय भगवान की पूजा करें। ब्राह्मणों, वैष्णवों, तपस्वियों के साथ स्वयं भी हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान से यात्रा के लिए निवेदन करें।-हे प्रभो! आपने पूर्वकाल में राजा इन्द्रद्युम्न को जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार रथ से गुण्डिचा मंडल के प्रति विजय यात्रा कीजिए।आपकी कृपा कटाक्ष पूर्ण दृष्टि से दसों दिशाएं पवित्र हैं तथा स्थानीय जंगम सभी प्राणी कल्याण को प्राप्त हों।आपने यह अवतार लोगों के उपर दया की दृष्टि से ग्रहण किया है। इसलिए भगवन्!आप प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वी पर चरण रखकर पधारिये।– इसके बाद लोग मंगल गीत गायें और जितना थे पुण्डरीकाक्ष -इत्यादि मंत्र का उच्च स्वर से जप करें। भगवान के दोनों पार्श्वों में सउवर्णमय दंड से सुशोभित पंखों की पंक्ति धीरे धीरे डुलती रहे।कृष्ण अगरू की धूप से सम्पूर्ण दिशाएं और वहां का आकाश सुवासित रहे। झांझ, करताल, वेणु, वीणा आदि वाद्य संगीत गोविंद की इस विजय यात्रा के समय मधुर स्वर से बजते रहें।

स्कन्द पुराण में यह भी बताया गया है कि मेघों द्वारा वर्षा के संयोग से रथ का मार्ग जब कीचड़ युक्त हो जाता है, उस समय भी श्रीकृष्ण की दिव्य दृष्टि पड़ने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।उस पंकिल राजमार्ग में जो उत्तम वैष्णव भगवान को साष्टांग प्रणाम करते हैं, वे अनादिकाल से अपने उपर चढ़े पापपंक को त्याग कर मुक्त हो जाते हैं।जो भगवान वासुदेव के आगे जय शब्द का उच्चारण करते हुए स्तुति करते हैं,वे भांति भांति पापों पर निसंदेह विजय प्राप्त कर लेते हैं।जो श्रेष्ठ पुरुष वहां नृत्य करते हैं और गाते हैं,वे उत्तम वैष्णव संसर्ग से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।जो भगवान के रथ यात्रा में भगवान के नाम का उच्चारण करते हुए साथ साथ जाता है,वह माता के गर्भ में निवास करने का दुःख नहीं भोगता है।

भगवान विष्णु की प्रीति के लिए किए जाने वाले प्रत्येक अनुष्ठान में उनकी संगिनी श्री लक्ष्मी जी की आराधना होती है, तथा श्रीकृष्ण के साथ राधिका रानी की भी पूजा होती है। किंतु रथ यात्रा उत्सव में श्री कृष्ण के साथ बलराम और सुभद्रा होती हैं। इसके पीछे की आख्यान इस प्रकार है -एक समय द्वारिका धाम में अपनी समस्त रानियों के बीच शयन कर रहे थे। भगवान श्री कृष्ण के मुखारविंद से सपने की अवस्था में श्री राधिका जी का नाम निकल पड़ा। उनकी रानियों ने श्रीराधा जी के प्रति परमेश्वर श्री कृष्ण के संबंधों को जानने की उत्कंठा हुई। उन्होंने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे उन्हें कृपया इस लीला की कथा सुनाएं। माताजी ने पुत्र की अंतरंग लीला का वर्णन करने में झीझक व्यक्त की, किंतु रानियों ने जीद ठान ली तो माताजी ने उन्हें बंद कमरे में कथा सुनाईं।

कथा के समय बलराम और श्रीकृष्ण किसी भी प्रकार से भीतर न प्रवेश करें, इसके लिए उन्होंने द्वार पर सुभद्रा जी से पहरा देने को कहा‌।जिस समय कथा आरंभ हुई उस समय श्री कृष्ण राज दरबार में बैठे थे। किंतु कथा प्रारंभ होते ही उनका चित्त व्याकुल हो उठा और वे कथा स्थल की ओर चल पड़े। इधर अंत:पुर के दरवाजे पर सुभद्रा जी का पहरा था। श्री कृष्णा और बलराम ने इसका कारण जानना चाहा। सुभद्रा ने बताया कि माता रानी का आदेश है कि आप दोनों अंदर न प्रवेश करें। यह सुनकर भगवान ने बाहर से ही भीतर की ब्रजलीला की वार्ता सुना। वार्ता सुनते सुनते दोनों भाई के श्री अंगों में अद्भुत प्रेम प्रवाह के लक्षण दिखाई देने लगे। सुभद्रा देवी भी अनिर्वचनीय अवस्था को प्राप्त हो गई। उन तीनों के श्री अंगों इस प्रकार महाभाव का प्रकाश हुआ कि उनके श्री हस्त पद संकुचित होने लगे। वे तीनों श्री राधिका जी के अपार महा भाव में निमग्न हो गए।इस अवस्था को प्राप्त हो गए कि देखने में वे एक स्थावर निश्चल प्रतिमा के समान दिखाई देने लगे। अत्यंत ध्यान से देखने पर भी उनके श्री हस्त पाद दिखाई नहीं पड़ते थे।

श्री सुदर्शन जी ने भी गलित होकर लंबा का रूप धारण कर लिया था। इसी समय नारद जी आए और भगवान की दशा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। उनके पूछने पर भगवान ने बताया कि श्री माता जी के मुखारविंद से वार्ता सुनकर हमारे ह्रदय विगलित हो गए। और वे इस अवस्था को प्राप्त हुए। नारद जी ने कहा कि हे प्रभु आप इसी रूप में प्रसिद्ध होकर निवास करें ।श्री कृष्ण नारद जी के वचन मान लिए और पूर्व काल में राजा इंद्रद्युम्न तथा श्रीमती विमला देवी को दिए गए वरदानों को संबोधित करके नीलांचल क्षेत्र में अवतरित होने का आश्वासन दिए।

जब कलयुग आया तो मालव देश के राजा इंद्रद्युम्न को ज्ञात हुआ कि उड़ीसा प्रदेश के नीलांचल पर्वत पर भगवान नीलमाधव का देव पूजित विग्रह है। राजा के मन में भगवान के दर्शन की लालसा जग गई। किंतु राजा जब तक उस पर्वत पर जाकर भगवान नीलमाधव के श्री विग्रह का दर्शन करते ,तब तक देवता गण उस विग्रह को लेकर देवलोक चले गए।इस बात पर राजा को बहुत निराशा हुई ।किंतु तभी आकाशवाणी हुई- हे राजन, तुम चिंता न करो ।दारू रुप में तुम्हें भगवान जगन्नाथ के दर्शन होंगे। राजा को समुद्र में एक लकड़ी का बहुत बड़ा टुकड़ा तैरता हुआ मिला। राजा इंद्रद्युम्न उससे नीलमाधव भगवान की मूर्ति बनाने का निश्चय कर ही रहे थे कि तभी देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बूढ़े बढ़ाई के रूप में वहां आए और मूर्ति बनाने का प्रस्ताव किए। उनकी शर्त थी कि वे एक प्रकोष्ठ में रहकर एकांत में मूर्ति का निर्माण करेंगे ।जब तक आदेश न दें तब तक दरवाजा न खोला जाए, अन्यथा वे मूर्ति निर्माण कार्य बीच में छोड़कर चले जाएंगे।

राजा ने उनकी शर्त मान ली किंतु राजा बढ़ई के कई दिनों तक दर्शन न होने से व्याकुल हो गए और बीच में ही प्रकोष्ठ खुलवा कर बढ़ाई के कुशल क्षेम की जानकारी करनी चाही। प्रकोष्ठ खुलने पर भीतर बढ़ाई वेशधारी विश्वकर्मा गायब हो चुके थे तथा लकड़ी की तीन अपूर्ण निर्मित प्रतिमाएं मिली।मूर्तियों की अवस्था देखकर राजा को बहुत दुःख हुआ, किंतु तभी आकाशवाणी ने एक प्रकार फिर से राजा को आश्वस्त किया, हे राजन, तुम चिंता न करो हम इसी रुप में रहने चाहता हूं- राजा ने उन तीनों प्रतिमाओं को एक भव्य मंदिर बनवाकर स्थापित करवा दी। जिससे प्रकोष्ठ में तीनों मूर्तियों का निर्माण हुआ वह स्थान गुण्डिचा घर या मंदिर कहलाता है। अन्य प्रसंगों में गुण्डिचा घर को जनकपुर या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। ये मूर्तियां भगवान जगन्नाथ ,बलभद्र और सुभद्रा की है। उड़ीसा प्रदेश के वैष्णवों की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्तियों के प्रतीक श्री जगन्नाथ जी हैं। श्री जगन्नाथ जी परम पूर्ण परम ब्रह्म हैं।

पुरी की रथ यात्रा के संबंध में उपर्युक्त यात्रा उत्सव के आख्यान के अतिरिक्त बहन सुभद्रा को अपने दोनों भाइयों जगन्नाथ स्वामी और बलराम द्वारा नगर भ्रमण कराने की इच्छा थी और इसका पालन किया जाना भी रथयात्रा का एक प्रधान कारण माना जाता है। पुरी में उपर्युक्त तीनों देवताओं के लिए तीन पृथक पृथक रथ बनाए जाते हैं ।रथ यात्रा पूरी होने के एक दिन पूर्व तीन रथों को मंदिर के मुख्य द्वार के सामने लाकर गरुड़ स्तंभ के बगल में क्रम से खड़ा किया जाता है। लाल और हरे रंग के बलभद्र के रथ को तालध्वज कहते हैं तथा लाल और नीले रंग के सुभद्रा के रथ को दर्पदलना तथा लाल और पीले रंग के रथ को नंदीघोष कहते हैं।

इस पर भगवान जगन्नाथ विराजमान रहते हैं। रथ यात्रा के समय सबसे आगे बलराम जी का सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है तथा बीच में बहन सुभद्रा का रथ होता है। रथ यात्रा में विभिन्न स्थानीय पारंपरिक रीति-रिवाजों का बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ पालन किया जाता है। इसमें पोहंडी बिजे तथा तेरा पोहरा प्रमुख है। सबसे पहले सुदर्शन चक्र को सुभद्रा जी के रथ पर पहुंचाया जाता है‌ घंटे घड़ियाल और नगारों की ध्वनि तथा भजन कीर्तन के बीच एक खास तरह की लय में भगवान के विग्रह को मंदिर से रथ में लाया जाता है। यह पोहंडी बाजे कहलाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर इस प्रकार ले जाते हैं कि मालूम होता कि भगवान बहुत मस्ती से झूम झूम कर चल रहे हैं। जब तीनो विग्रह अपने अपने रथ में बैठ जाते हैं तो पूरी के पारंपरिक राजा को उनके पुरोहित निमंत्रण देने जाते हैं। राजा पालकी में आते हैं और तीनों रथों को सोने की झाड़ू से बुहारतें हैं। यह परंपरा तेरा पोहरा कहलाता है। इसके बाद रथयात्रा शुरू होती है। हजारों भक्तों रथ को खींचते हैं,इसे रथटप कहते हैं।

 

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