इतिहास और पुराणों के दर्पण में नागपंचमी

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आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र

अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी

21 अगस्त दिन सोमवार को शुद्ध श्रावण मास की पंचमी तिथि है। इस तिथि को नागपंचमी कहा जाता है। सूर्योदय 6 बजकर 36 मिनट और शुक्ल पंचमी तिथि का मान सम्पूर्ण दिन और रात को 9 बजकर 54 मिनट तक।इस दिन चित्रा नक्षत्र भी सम्पूर्ण दिन और रात्रि शेष 3 बजकर 47 मिनट तक।इस दिन शुभ योग है। चन्द्रमा की स्थिति कन्या और तुला दोनों राशियों पर रहेगा। सूर्योदय के समय बुधादित्य योग बन रहा है। श्रावण के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग पंचमी का त्योहार नागों को समर्पित है। इस त्योहार पर व्रत पूर्वक नागों का अर्चन पूजन होता है। वेद और पुराणों में नागों का उद्गम महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी कद्रू से माना गया है। नागों का मूल स्थान पाताल लोक प्रसिद्ध है। पुराणों में ही नाग लोक की राजधानी के रूप में भोगवती पुरी विख्यात है।

संस्कृत कथा साहित्य में विशेष रूप से कथासरित्सागर नाग लोक और वहां के निवासियों की कथाओं से ओतप्रोत है। गरुड़ पुराण, भविष्य पुराण, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भाव प्रकाश आदि ग्रंथों में नाग संबंधी विविध विषयों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में यक्ष, किन्नर और गंधर्वो के वर्णन के साथ नागों का भी वर्णन मिलता है। भगवान विष्णु की शैय्या की शोभा नागराज शेष बढ़ाते हैं। भगवान शिव और गणेश जी के अलंकरण में भी नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। योग सिद्धि के लिए जो कुंडलिनी शक्ति जागृत की जाती है उसको सर्पिणी कहा जाता है। पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में द्वादश नामों का उल्लेख मिलता है, जो कमश: प्रत्येक मास में उनके रथ के वाहक बनते हैं। इस प्रकार अन्य देवताओं ने भी नागों को धारण किया है। नाग देवता भारतीय संस्कृति देव रूप में स्वीकार किए गए हैं।

कहा जाता है कि एक बार मातृ शाप से नागलोक जलने लगा। इस दाह पीड़ा की नियुक्ति के लिए नागपंचमी को गो दुग्ध स्नान जहां नागों को शीतलता प्रदान करता है वही भक्तों को सर्प भय से मुक्ति भी देता है। नाग पंचमी कथा के श्रवण का बड़ा महत्व है। इस कथा के प्रवक्ता सुमंत मुनि थे और श्रोता पांडव वंश के राजा शतानीक थे। कथा इस प्रकार है —एक बार देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन द्वारा 14 रत्नों में उच्चैश्रवा नामक अश्व रत्न प्राप्त किया था। यह अश्व अत्यंत श्वेत वर्ण का था। इसे देखकर नाग माता कद्दू एवं विनता दोनों में अश्व के रंग के संबंध में वाद विवाद हुआ।

कद्दू ने कहा कि अश्व के श्याम वर्ण का है। यदि मैं अपने बचपन में असत्य सिद्ध हो तो मैं तुम्हारी दासी बनूंगी, अन्यथा तुम मेरी दासी बनोगी। कद्रू ने नागों को बाल के समान सूक्ष्म रुप धारणकर अश्व के शरीर में आवेष्ठित होने का निर्देश दिया, किंतु नागों ने अपनी असमर्थता प्रकट की। इस पर कद्रू ने क्रुद्ध होकर नागों को श्राप दिया कि पांडव वंश के राजा जन्मेजय नागयज्ञ करेंगे उस यज्ञ में तुम सब जलकर भस्म हो जाओगे। नाग माता के शाप से भयभीत नागों ने वासुकी के नेतृत्व में ब्राह्मण जी से शांति का उपाय पूछा, तो ब्राह्मण निर्देश दिए कि यायावर वंश में उत्पन्न तपस्वी जरत्कारू तुम्हारे बहनोई होंगे उनका पुत्र शतानीक तुम्हारी रक्षा करेगा। ब्राह्मण जी ने पंचमी तिथि को नागों को यह वरदान दिया और इसी तिथि पर आस्तिक मुनि ने नागों का परिरक्षण किया भी किया था। अतः नाग पंचमी का व्रत ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दोनों दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

कश्मीर के जाने-माने संस्कृत कवि कल्हण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक राज तरंगिणी में कश्मीर की संपूर्ण भूमि को नागों का अवदान माना है। वहां के प्रसिद्ध नगर अनंतनाग का नामकरण इसका ऐतिहासिक प्रमाण है। देश के पर्वतीय प्रदेशों में नाग पूजा बहुतायत से होती है। वहां नाग देवता अत्यंत पूज्य माने जाते हैं। हमारे देश के प्रत्येक ग्राम- नगर में ग्राम देवता और लोक देवता के रूप में नाग देवताओं का पूजा स्थल है। भारतीय संस्कृति में प्रातः सायं भगवत स्मरण में भगवत स्मरण के साथ-साथ अनंत तथा वासुकी आदि पवित्र नागों का नाम स्मरण भी किया जाता है। इसमें नागविष और उनके भय से रक्षा होती है, यथा सर्वत्र विजय मिलती है-

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्। शखपालं धार्तराष्टं तक्षकं कालियं तथा।।

एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्। सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।।

तस्मै बिषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

देवी भागवत में प्रमुख नागों का निर्माण किया गया है हमारे ऋषि-मुनियों ने नागो वासना में आने का व्रत पूजन का विधान किया है श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी नागों को अत्यंत आनंद देने वाली है। नागा नामानंदकरी। हमारे ऋषि मुनियों ने नागोपासना में अनेक व्रत पूजन का विधान बताया है।पंचमी तिथि को नाग- पूजन में उनको गो दुग्ध से स्नान कराने का विधान है।

हमारे धर्मग्रंथों में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पूजा का विधान है। व्रत के साथ एक समय भोजन करने का विधान है ‌पूजा में पृथ्वी पर या दीवारों पर नागों का चिह्न अंकित किया जाता है। स्वर्ण, रजत, काष्ठ या मृतिका से नाग बनाकर पुष्प, धूप, दीप एवं विविध नैवेद्यों से नागों का पूजन होता है। उसमें एक प्रार्थना की जाती है जिसका भाव इस प्रकार है -” जो नाग पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, सूर्य की किरणों, सरोवरों, वापी, कूप या तालाब आदि में निवास करते हैं,वे सब हम पर प्रसन्न हो,हम उनको बार बार नमस्कार करते हैं। नागों की अनेक जातियां और उपजातियां हैं। भविष्य पुराण में नागों के लक्षण, नाम, स्वरुप एवं जातियों का विस्तार से वर्णन है।मणिधारी और इच्छाधारी नागों का भी उल्लेख मिलता है।

नागपंचमी जीवमात्र – मनुष्य,पशु, पक्षी, कीट-पतंग सभी में ईश्वर का दर्शन कराती है।जीवों के प्रति आत्मीयता और दयाभाव को विकसित करती है, अतः नाग हमारे लिए पूज्य एवं संरक्षणीय हैं। प्राणिशास्त्र के अनुसार नागों की असंख्य जातियां हैं, जिसमें बिषभरे नागों की संख्या बहुत कम है ‌ये नाग हमारे कृषि सम्पदा की कृषिनाशक जीवों से रक्षा करते हैं। पर्यावरण रक्षा एवं वनसम्पदा में नागों की महत्वपूर्ण भूमिका है। नागपंचमी का पर्व नागों के साथ जीवों के प्रति सम्मान,उनके संवर्धन एवं संरक्षण की प्रेरणा देता है।यह पर्व प्राचीन समय के अनुसार आज भी प्रासंगिक हैं। आवश्यकता है हमारे अन्तर्दृष्टि की।

भारतवर्ष में सर्प पूजा का आरंभ कब हुआ, यह कठिन विषय है। ऋग्वेद में इस विषय में कोई संकेत नहीं मिलता है। इतना अवश्य आया है कि इन्द्र अहि(सर्प)के शत्रु हैं।कहीं यानि सर्प हत्या की चर्चा हुई है। जिनके पांव शरीर के भीतर होते हैं उनके केंचुल का उल्लेख है। सर्पों को नमस्कार किए जाने का भी संकेत मिलता है। अथर्ववेद में तक्षक एवं धृतराष्ट्र नामक सर्पों के नाम आए हैं। काठक संहिता में पितरों, गंधर्वों, सर्पों, जलो एवं औषधियों को पंचजन कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में देव, मनुष्यों, गंधर्व, अप्सरा और सर्पों को पंच जन माना गया है। इसे प्रकट है कि पश्चात कालीन वैदिक काल में नाग लोग गंधर्व के समान एक जाति के अर्थ में लिखे जाने लगे थे। गृह्यसूत्रों स में श्रावण की पूर्णिमा को सर्पबलि कृत्य किए जाने का उल्लेख है। महाभारत में नागों का बहुत उल्लेख है। आदिपर्व में बहुत से नागों का उल्लेख किया गया है और नागों के बहुत नाम आए हैं।

अर्जुन ने जब 12 वर्ष के ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था तो वे नागों के देश में गए थे और नाग कुमारी उलूपी से विवाह किए थे। अश्वमेध के अश्व की रक्षा करने में आए हुए अर्जुन ने मणिपुर में चित्रांगदा के पुत्र बभ्रुवाहन से युद्ध किए थे और ऐसा लिखा हुआ है कि बभ्रुवाहन ने अर्जुन को मार डाला जो पुनः संजीवन रत्न से पुनर्जीवित किए गए। सांपों का संबंध विष्णु और शिव दोनों से है। विष्णु शेषनाग के फन पर सोते हैं और शिव गले में सर्प को यज्ञोपवित के रूप में ग्रहण करते हैं। भगवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को सर्पों में वासुकी और नागो में अनंत कहा है। पुराणों में नागों के विषय में बहुत सी कथाएं हैं। नागों के विषय में- इंडियन सर्पेंट लोर- नामक पुस्तक में वोगेल नामक विद्वान ने बहुत कुछ लिखा है। बरसात में सर्पदंश से बहुत से लोग मर जाया करते थे अतः सर्व पूजा का आरंभ सर्पभय से ही हुआ था।

भारत के सभी भागों में नाग पंचमी विभिन्न प्रकार से संपादित होती है। कुछ लोगों के मत से वर्ष भर में सर्वोत्तम सुबह साढे तीन दिनों में नाग पंचमी का आधा दिन शुभ है। किंतु कुछ लोग यह महत्व अक्षय तृतीया को देते हैं। भविष्य पुराण में नाग पंचमी का विस्तार के साथ उल्लेख है। उसमें आया है जब लोग पंचमी को दूध से वासुकी, तक्षक, कालिय ,मणिभद्र ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक एवं धनंजय नामक सर्पों को नहला देते हैं तो वे उनके कुटुंब को अभयदान देते हैं। उसमें लिखा है कि लोगों को चाहिए कि वे नागों की सोने, चांदी या मिट्टी की प्रतिमा बनाएं एवं जातीपुष्प और गंध से उनकी पूजा करें। पूजा का परिणाम होगा कि सर्प भय से मुक्ति मिलेगी- हेमाद्रि और भविष्य पुराण में ऐसा लिखा हुआ है। सौराष्ट्र में नाग पंचमी श्रावण कृष्ण पक्ष में संपादित होती है।

बंगाल एवं दक्षिणी भारत में इस दिन मनसा देवी का पूजन भी होता है ।अपने घर के आंगन में एक पेड़ की टहनी पर नागों की आकृति को अंकित करते हैं और उसका पूजन करते हैं, इसमें भी मनसा देवी का पूजन होता है। पूजन में गंध, पुष्प ,धूप, दीप और नैवेद्य चढ़ाया जाता है तथा अनंत और अन्य नागों की पूजा होती है। इसमें विपुल रूप से दूध और घी दिया जाता है। घर में नीम की पत्तियां रखी जाती हैं स्वयं नीम का पत्ता चबाया जाता है और ब्राह्मणों को भी खाने के लिए देता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में मनसा देवी के जन्म, उनके पूजा स्त्रोत के विषय में उल्लेख है।

दक्षिणी भारत में श्रावण शुक्ल पंचमी को काष्ठ की चौकी पर लाल चंदन से सर्प बनाए जाते हैं या मिट्टी के पीले और काले रंगों के सांपों की प्रतिमा खरीदी जाती है और लोग उनकी दूध से पूजा करते हैं। विभिन्न प्रकार के सांपों को लेकर सपेरे घूमते हैं और लोग सांपों को दूध देते हैं और सपेरों को कुछ पैसा या धन भी प्रदान करते हैं। यदि पंचमी- चतुर्थी या षष्ठी से संयुक्त हो तों षष्ठी से संयुक्त पंचमी को वरीयता दी जाती है। काल विवेक में आया है की हस्त नक्षत्र में मनसा देवी की पूजा की जाए तो मनसा देवी वर्ष पर्यंत व्रती की सर्पों से रक्षा करती हैं।

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