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1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देवरिया के पैना ग्राम की भूमिका
डाॅ0 बी0 के0 सिंह
( पूर्व जोन प्रबंधक, पशुधन विकास परिषद्, गोरखपुर जोन, गोरखपुर )
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ग्राम पैना, जिला देवरिया तत्कालीन गोरखपुर की भूमिका देश की किसी भी हिस्से की क्रान्ति से कमतर नहीं थी। परन्तु, बि्रटिश शासन क विरूद्ध रक्त रंजित संघर्ष के कारण तत्कालीन सरकार तथा उस समय के इतिहासकारों के द्वारा इसे इतिहास के पन्नों में दबा दिया गया। अनिरूद्ध सिंह, से0नि0 प्रधानाचार्य, राजकीय जुबिली इण्टर काॅलेज, गोरखपुर ने अपने तीन वर्षों के अथक प्रयास से पैना ग्राम के इतिहास को जनता के समक्ष लाया। बरहज क्षेत्र, जो बाबा राघवदास की कर्मस्थली रहा है तथा उन्होंने ही पं0 रामप्रसाद बिस्मिल की राख को बरहज के अपने आश्रम में लाकर समाधि बनाया। इतने महत्वपूर्ण स्थल को अमृत महोत्सव के अवसर पर क्यों नहीं महत्व दिया गया?
1857 का संघर्ष एक मृत अतीत नहीं है, बल्कि भविष्य के स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष की उर्जा रहा है। जब तक हम अपने अतीत में किये गये संघर्षों का चरित्र निर्धारण नहीं करते हैं, तो भविष्य में भी हम अपने संघर्षों का चरित्र भी नहीं समझ सकते। संघर्ष और संकल्प में बल देने की क्षमता होती है। उसी कड़ी में शहीदों का यह ग्राम पैना आज अपनी पहचान प्रदेश व देश में बनाने हेतु संघर्षरत है। जहां पर 395 से अधिक लोग शहीद हुये, वीरांगनाओं ने चिता जला कर अपने प्राण त्यागे और नदी में कूद कर जल समाधि ली। जल समाधि और चिता जला कर प्राण त्यागने का उदाहरण चित्तौड़ के बाद इसी गांव में मिलता है। पैना की वीरांगनायें जिस अदम्य साहस के साथ स्वतंत्रता संग्राम में युद्धरत वीरों को रसद तथा सैन्य हथियार पहुंचाती थीं, वह उनकी महान उर्जा और योग्यता की परिचायक थी। इतनी अधिक संख्या के शहीदों का ग्राम अब तक के सरकारों और इतिहासकारों के सामने क्यों नहीं आया, यह एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है।
मझौली के पास सोहनापुर गांव के युद्ध में पैना के ठाकुर सिंह तथा वीर कुंवर सिंह के चचेरे भाई हरि कृष्ण सिंह के नेतृत्व में राजा सतासी उदित नारायण सिंह, डुमरी के बन्धू सिंह, गहमर के मेघना सिंह, नरहरपुर के राजा हरि प्रसाद सिंह, पाण्डेपार चिल्लूपार तथा शाहपुर के इनायतअली, नायम नाजि़म मुशर्रफ खां अपनी सेना के साथ, पटना के मौलवी अब्दुल करीम अपनी सैन्य टुकडि़यों के साथ शामिल थे। इस प्रकार सोहनपुर गांव के पास हुये भीषण युद्ध के इतिहास को भी समाज के सामने लाने की आवश्यकता है, इस पर शोध करने की आवश्यकता है। वर्तमान् सरकार अमृत महोत्सव के माध्यम से उनका संकलन करा रही है। यह एक सराहनीय कार्य है।
इस प्रकार हम सब 1857 के मृत अतीत नहीं हैं। हम (1857) भविष्य के संघर्ष की एक उर्जा रहे हैं, जो प्रबुद्ध वर्गों का संघर्ष रहा, जहां पर नया जन्म लेता हुआ भारत, महात्मा गांधी और सुभाष चन्द्र बोस के नेतृत्व में जन क्रान्ति के रूप में उभर कर सामने आया, जो चलता हुआ भारत को स्वाधीन कराया। 1857 के शहीद भारतीय स्वतंत्रता की नींव के पत्थर थे। नींव के पत्थर भवन को देख नहीं पाते हैं, परन्तु यह सत्य है कि, इन नींव के पत्थरों पर जिस भवन का निर्माण हुआ है, उसपर आज हमें गर्व है। उन शहीदों का बलिदान की इतनी ऊँची और गहरी भावना थी कि आज हम उनको नमन करते हैं, वन्दन करते हैं। कण-कण में सोया शहीद, पत्थर-पत्थर इतिहास है।
कभी नहीं संघर्ष से, इतिहास हमारा हारा। बलिदान हुये जो वीर जवान, उनको नमन हमारा है।।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ग्राम पैना, देवरिया का योगदान
राष्ट्रीय योजना के अनुरूप सम्राट बहादुर शाह के झंडे के नीचे पैना के जमींदारों ने ठाकुर सिंह के नेतृत्व में 31 मई 1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आधिपत्य को नकारते हुए युद्ध – विद्रोह की घोषणा कर दी। यह ग्राम ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रति खुले विद्रोह के फलस्वरूप ब्रिटिश शासन से मुक्त होकर स्वतंत्र हो गया था। पैना के निवासियांें ने गोरखपुर से पटना और गोरखपुर से आजगढ़ के नदी यातायात के बरहज मार्ग को अवरूद्ध कर घाट पर कब्जा कर लिया। विद्रोही सेना ने गोरखपुर आजमगढ़ का बड़हलगंज कस्बे के घाघरा घाट पर कब्जा कर लिया और पुलिस थाने पर भी अधिकार कर घाघरा यातायात को पूर्ण रूप से बन्द करके अपनी चैकी स्थापित कर लिया। ज्ञातव्य हो कि अंग्रेजी सेना की प्रमुख छावनी आजमगढ़ में थी और गोरखपुर जिले का खजाना आजमगढ़ में रहता था।
06 जून 1857 को नरहरपुर के राजा ने अपने आदमियों, सहयोगियों एवं कर्मचारियों सहित पैना के जमींदारों ठाकुर सिंह, शिवव्रत सिंह, पल्टन सिंह, शिवजोर सिंह आदि के साथ मिलकर बड़हलगंज कस्बे पर आक्रमण कर दिया और 50 आदमियों को जो सरकारी कार्यों में लगे हुए थे छुड़ा लिया। चैकीदार, जमादार एवं कर्मचारी चैकी छोड़कर भाग गये। आक्रमणकारी सेना ने गोरखपुर-आजमगढ़ के घाघरा घाट पर कब्जा कर लिया और पुलिस थाने पर अधिकार कर घाघरा का यातायात पूर्ण रूप से बन्द कर दिया और अपनी चैकी स्थापित कर दी।
यह क्रान्ति तेजी से सम्पूर्ण जनपद एवं आसपास में फैल गई। पैना, नरहरपुर, सतासी, पड़ियपार, चिल्लूपार आदि के विद्रोही सैनिक भी आपस में मिलकर गुप्त बैठक करते रहते थे और पैना, जनपद का प्रमुख सैनिक गढ़ था जिसमें 600 से अधिक सैनिक हमेशा रहते थे।
यहाँ के नेता ठाकुर सिंह थे। और उन्हीं के नाम पर ठाकुर सिंह की पल्टन कही जाती थी। सैनिक गढ़ के प्रमुख लक्षन सिंह थे और व्यवस्था प्रभारी अजरायल सिंह थे।
दिनांक 31 जुलाइ 1857 को पैना ग्राम पर थल एवं जल दोनों ओर से आक्रमण हुआ
यह गाँव पूरब से पश्चिम 3 किमी लम्बा घाघरा नदी के उत्तरी तट पर रामजनकी मार्ग के किनारे बसा है और दक्षिण तरफ बरहज से लाररोड सड़क जाती है। सर्वप्रथम आक्रमण अंग्रेजी घुड़सवार सेना ने किया, परन्तु तीव्र प्रतिरोध एवं भीषण प्रत्याक्रमण के कारण घुड़सेनायें रणक्षेत्र का प्रयोग नहीं कर पाईं। तत्पश्चात् सड़क एवं जल मार्ग से तोपों के गोलों से पूरे गाँव को खाक कर दिया गया। 85 लोग मौके पर शहीद हुए। 200 से अधिक लोग जिनमें बǔचे बड़े और बुजुर्ग शामिल थे, आग में जल कर मर गये। *जीते जी फिरंगियों के हाथ न लगने की कसम खाने वाली 100 महिलाओं ने उफनती सरयू नदी में कूदकर अपने सतीत्व की रक्षा की तथा अन्य बहुत सी महिलाओं ने सतीवढ़ के स्थान पर स्वयं का अग्नि में सती कर दिया। इसी स्थान को आज हम सतीहड़ा कहते हैं, जो आज के पैना ग्राम के शहीद स्मारक के निकट स्थित है।
नरहर पुर के राजा हरिप्रसाद सिंह, सतासी के राजा उदित नारायण सिंह, कुंवर सिंह के चचेरे भाई हरिकृष्ण सिंह के अतिरिक्त पाण्डेपार, चिल्लूपार और शाहपुर के इनायत अली आदि इस युद्ध में शामिल हुए। इस प्रकार से दक्षिण पूर्व के तीन सैनिकगढ़ पैना, नरहरपुर और सतासी के बीच बेहतरीन तालमेल था। अयोध्या सिंह, अजरायल सिंह, बीजाधर सिंह, माधवसिंह, देवीदयाल सिंह, डोमन सिंह और तिलक सिंह – ठाकुर सिंह के विश्वस्त सहयोगी थे। फिरंगी फौजों की तोपों से पैना ग्राम खाक हो जाने के बाद उसपर अंग्रेजी सरकार के द्वारा दमन चक्र चलाया गया और पैना के जमींदारों की गिरफ्तारी के तमाम प्रयास किये गये, परन्तु कोई गिरफ्तारी न हो सकी। एक पक्षीय मुकदमा चलाया गया और कमिश्नर के आदेश के अनुपालन में 16/23 अगस्त 1858 को पैना इलाके के 16 गाँवों को जब्त कर राजा मझौली उदय नारायण मल को गद्दारी के लिए इनाम में दे दिया गया। बाद में शेष आठ ग्राम और भी जब्त किये गये। कुल 24 ग्राम जब्त किये गये।
उपरोक्त के साथ मझौली के युद्ध में पैना के रणबाकुरों का अतुलनीय सहयोग रहा। कर्नल रूक्राफ्ट की योजना विद्रोही एवं आक्रमणकारी फौजों पर सोहनपुर में आक्रमण करने की थी। जो मझौली से सात मील की दूरी पर तथा मैरवा छावनी और मझौली के बीचोंबीच है। राॅयल मैरीनर, तीस नेवल ब्रिगेड, 130 रिसाल ग्रेनियर रेजीमेण्ट, 5000 गोरखा रेजीमेण्ट, 350 कम्पनी के रेजीमेण्ट सीवान में रहते थे। चालीस बन्दूकें, तोपें, 12 तोपखाने होवित्ज़र, दो मास्टर तोपें, 500 कैप्टन रीडिंग के सिक्ख सैनिक कैम्प की सुरक्षा के लिए तथा एक-एक सौ की गोरखा पल्टन की दो कम्पनियाँ और मैथलाॅक के 50 आदमी तथा जिन्दल नदी के घाट की रखवाली के लिए जो कैम्प से आधे मील दूर आधी कम्पनी तथा बीस मैथलाॅक आदमियों को छोड़कर कर्नल रूक्राफ्ट पैना की तबाही करने के बाद 26.12.1857 को प्रातः 07.30 बजे विद्रोही सैनिकों को दबाने के लिए सैनिक साज-सज्जा के साथ आगे बढ़ा।
वहीं पर विद्रोही मोर्चे में ग्राम सोहनपुर में कुंवर सिंह के चचेरे भाई हरिकृष्ण सिंह तथा पैना के ठाकुर सिंह और पल्टन सिंह के नेतृत्व में राजा सतासी, डुमरी के बन्धू सिंह तथा गहमर के मेघन सिंह अपनी अपनी सैन्य टुकड़ियों के साथ सत्रहवीं नेटिव आर्मी के सिपाही जो नाज़िम मोहम्मद हुसैन की सेना में सम्मिलित हो चुके थे, सब सोहनपुर ग्राम में एकत्र थे। दो-तीन विभिन्न टुकड़ियों में मझौली रोड के दोनों तरफ जंगल के पास, तालाब के किनारे तथा नदी के ऊँचे किनारे पर चार तोपें लगा रखे थे। नायक नाज़िम मुशर्रफ खाँ अपनी सेना के साथ और पटना के मौलवी अब्दुल करीम के साथ उपस्थित थे। इस प्रकार से विद्रोहियों की सेना में 1100 से 1200 नेटिव आर्मी के सिपाही तथा 4000 से 5000 अन्य हथियार बन्द लोग थे। इन लोगों ने मिलकर ब्रिटिश सेना के साथ युद्ध प्रारम्भ किया।
परिणामतः गोरखा फौज के रामपुर रेजीमेण्ट के सूबेदार हिमकूमल वसानिया बुरी तरह घायल हो गये तथा लेफ्टिनेन्ट बर्लटन बाल-बाल बच गये। इसके पश्चात् दोनों तरफ से भीषण गोलाबारी प्रारम्भ हुई। यह युद्ध 10.00 बजे से 1.30 बजे तक चला। इसमें 120 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुये और विद्रोही सेना के पैर उखड़ने लगे। इस प्रकार से अंग्रेजों ने विद्रोही सैनिकों का दमन कर दिया। मझौली की लड़ाई के पश्चात् जी अंग्रेजों की सेना गोरखपुर में प्रवेश कर पाई और गोरखपुर पर कब्जा कर लिया। नाज़िम मुशर्रफ खाँ को गोरखपुर के बाजार में फाँसी दे दी गई। अन्य सभी नेतृत्व करने वाले इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुये। नरहरपुर के राजा हरि प्रसाद सिंह अपने प्रिय हाथी जयमंगल पर सवार होकर कहीं चले गये। राजा सतासी – उदय प्रताप नारायण सिंह को पकड़ कर अण्डमान भेज कर फाँसी दे दी गई और उनकी रियासत जब्त कर ली गई।
उसके पश्चात् पैना से जाते हुये जिउत मिश्रा जो पैना के रहने वाले थे उनको उनके दरवाजे पर गोली मार दी गई। बाकी परिवार के लोग फरार हो गये और पैना छोड़कर सतरांव रेलवे स्टेशन के उत्तर चले गये और नाम बदलकर रहने लगे। श्री कृष्ण मिश्र जिन्होंने कैप्टन सहित नौ अंग्रेज सैनिकों को मार दिया था उनके दोनो हाथ का पंजा काट लिया गया। शरीर को संगीन से छेद दिया गया और उन्हें मरा समझकर अंग्रेजी फौज आगे बढ़ गई। इस घायल हालत में भी डिहरी गांव के पश्चिम से अपने घर डेढ़ घंटे के बीच पहुंचे और पहुंचते ही अपने दरवाजे पर मर गये। उन्हीं के वंशज राम नगीना मिश्र थे। ये सब इतिहास के पन्नों से गायब है।
इसके पश्चात् अंग्रेजी सरकार ने पैना के जमींदारों की गिरफ्तारी के प्रयास किये। परन्तु गिरफ्तारी न हो सकी। धज्जू सिंह सहित 6 ग्रामवासियों को गिरफ्तार कर बरहज-गौरा चैकी पर ले जाने लगे परन्तु पैना वासियों ने धज्जू सिंह व अन्य को उनसे मुक्त करा लिया और वहाँ के चैकीदार की तलवार और चपरास को अपने अपने कब्जे में कर लिया। सूचना मिलने पर तहसीलदार अपने तमाम अधिकारियों-कर्मचारियों व मझौली राज्य के 100 आदमियों के साथ स्वयं धज्जू सिंह को गिरफ्तार करने के लिए आये, परन्तु गाँव में कोई आदमी नहीं मिला। जब ये वापस जाने लगे तो लगभग 400 से 500 हथियारबंद आदमी अरहर के खेतों से निकल कर उनपर आक्रमण कर दिये। तहसीलदार का हमराही आलम खान तथा दफेदार बब्बन सिंह को मार कर दरिया में फेंक दिया गया।
मुल्जिम के न मिलने पर एकतरफा मुकदमा चलाया गया और 13 मार्च 1858 को मजिस्ट्रेट के आदेश से पैना के सभी पट्टीदारान, हिस्सेदारान एवं नम्बरदान की चल व अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गई और इसे मझौली के राजा को गद्दारी के लिए ईनाम में दे दिया गया। 18 अप्रैल 1958 को फाँसी के लिए दिया गया आदेश अमल में नहीं लाया जा सका। आश्चर्य है कि, इतनी सारी कुर्बानियों के बावजूद, जहाँ पर महिलाओं ने जल समाधि ली हो, जिसका जिक्र इतिहास में कहीं नहीं मिलता है, पैना को इतिहास में वो दर्जा नहीं मिला जिसका वह हकदार था। 1857 की लड़ाई का भरपूर साक्ष्य होने के बावजूद यहाँ के इतिहास पर भी कोई गम्भीर कार्य नहीं हुआ।
गौरवशाली रहा है बरहज का अतीत
आज इस अवसर पर हम बरहज के अतीत और वर्तमान् पर भी कुछ कहना चाहेंगे। बरहज से नावों, जहाजों तथा रेल से व्यवसाय होेता था, इसकी स्थिति बन्दरगाह जैसी रही है। और ब्राह्मणों का निवास होने के कारण इसका नाम ब्रह्मज से बरहज हुआ। यह प्राचीन काल से संस्कृति का केन्द्र था। वर्ष 1920 ई0 में देवरिया जिले में गन्ने की मिलें चालू हुईं। बरहज के लोगों ने शीरे का व्यवसाय अपनाया। उत्तर प्रदेश और बिहार की प्रमुख 44 चीनी मिलों का शीरा बरहज आने लगा और बरहज भारत में सर्वप्रथम शीरे का व्यवसायी नगर बन गया। दस हजार श्रमिक बरहज के शीरे पर जीवन यापन करते थे। मिस्टर एच0आर0 नेविल के अनुसार सन् 1830 ई0 के पूर्व से ही बरहज मे देशी चीनी के कारखाने चल रहे थे। यहाँ की चीनी कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, आगरा, दिल्ली, लाहौर के अतिरिक्त विदेशों में ईरान, परसिया, अरब, लंका, जर्मनी तथा इंग्लैण्ड जाती थी।
यहाँ छोट से कस्बे में देशी चीनी के लगभग 400 कारखाने चलते थे। 1916 में एक करोड़ रूपये की चीनी बरहज से बाहर भेजी गई थी। 100 – 100 मील से बैलगाड़ियों पर लदकर गुड़ बरहज बिकने आता था। भारत के स्वतंत्र होते ही बरहज के शीरे व्यवसायियों पर वज्रपात हो गया। पाकिस्तान ने शीरे का यातायात बन्द कर दिया और कई करोड़ का शीरा जो बरहज से पाकिस्तान जा चुका था जब्त कर लिया नावें डुबो दीं गईं और एक भी पैसा नहीं मिला फलस्वरूप बरहज का वैभव समाप्त हो गया। आज इस दिवस पर हम पैना के इतिहास को याद करते हुए यहाँ के शहीदों के साथ-साथ क्षेत्र के लगभग डेढ़ लाख से अधिक शहीदों को, जिनका कहीं भी किसी भी लेख में नाम भी नहीं दर्ज है, को भी शत्-शत् नमन करते हैं और यह संकल्प लेते हैं कि सच्चाई, ईमानदारी और कर्मठता को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाये रखेंगे।
राष्ट्रबोध में पैना के शहीदों का योगदान
जननी जन्म भूमिस्य स्वर्गादपि गरीयसी – अर्थात् जन्म भूमि को स्वर्ग से बढ़कर माना गया है। यही भाव भारतीय संस्कृति व जन परंपरा के प्रति मोह तथा गर्व का प्रदर्शन करने वाली राष्ट्रीय अस्मिता ग्राम पैना के शहीदों के नस-नस में व्याप्त थी। परन्तु आज यह राष्ट्रीय अस्मिता समाज तथा देश में समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही है। परिणामतः हम अपने पूर्वजों को भूलते गये। इतिहास को संजोकर रखा नहीं गया। इस तरह से हमारी अस्मिता समाप्ति के कागार पर आ चुकी है। यह सौभाग्य की बात है कि सरकार द्वारा अमृत महोत्सव के माध्यम से भूले-बिसरे लोगों को इतिहास के पन्नों में लाकर उनके चरित्र और शौर्य को उजागर किया जा रहा है। मुठ्ठी भर लोगों द्वारा देश के राष्ट्रीय संगठनों और उनके विचारों को नाना प्रकार का रूप देकर राष्ट्रीय अखंडता पर प्रहार किया जा रहा है।
जबकि आवश्यकता है कि, हमारे शहीदों के शौर्य और बलिदान को देश के बच्चों को जानकारी देने की और उन्हें संस्कारित करने की।
हम अपने देश की गौरव गाथाओं का वर्णन तो कर रहे हैं परन्तु, खेद है कि हम मानसिक, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक गुलामी की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रतिदिन हम अपने राष्ट्रीय चिन्हों से भी दूर होते जा रहे हैं। मंगल पाण्डेय, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब पेशवा, बेगम हजरत महल, राव तुला राम, बिरसा मुण्डा, ऊधम सिंह, मदनलाल ढींगरा, वीर सावरकर, रसिक बिहारी बोस, कैप्टन मोहन सिंह, वीर भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, पं0 राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां, सुखदेव, राजगुरू आदि जैसे तमाम वीर बलिदानियों की गाथायें तो भरी पड़ी हैं परन्तु,ऐसे अनन्त चेहरे हैं जिनके बारे में हमें कोई जानकारी ही नहीं है।
किसे याद है – रानी लक्ष्मीबाई को बचाने का प्रयास करते हुये शहीद होने वाली सखी मन्दार का नाम, उनकी भांजी सुनन्दा, जो माता तपस्विनी के नाम से जानी जाती थीं, रामचन्द्र राव देशमुख, जिन्होंने रानी का अन्तिम संस्कार किया था, तोप खाने का प्रभारी गौस खाँ का नाम। ऐसे ही थे, नवाब अजीमुल्ला खाँ, जो नाना साहब के विश्वासपात्र एवं उनके राजनैतिक और सैनिक सलाहकार भी थे तथा आधे से अधिक कानपुर इन्हीं का था। बिजली खाँ तोपची एवं हुलास सिंह जो नाना साहब के साथ मिलकर जंग की रणनीति तय किया करते थे। लाला हरदयाल एवं पाण्डुरंग खानखोजे, जिनके नेतृत्व में अमेरिका में गदर पार्टी का गठन किया गया। बाबा गुरूदत्त सिंह का नाम, जिनके नेतृत्व में 360 क्रान्तिकारी, जो कामागाटामारू नामक जहाज से अंग्रेजों से संघर्ष करने हेतु हथियार लेकर भारत आने के प्रयास में कनाडा में हुये संघर्ष में बलिदान हुये।
बद्रीनाथ चटोपाध्याय, जिनके नेतृत्व में भारत की स्वतंत्रता के लिये आयरलैण्ड और अफ्रीका में संघर्ष किया गया। अमर शहीद भगत सिंह जी के चाचा सरदार अजीत सिंह का नाम, जिन्होंने रोम में आजाद हिंद फौज का गठन किया। बाल मुकुंद, अवध बिहारी, बसन्त कुमार विश्वास और विष्णू पिंगल का नाम, जिन्हें दिल्ली बम कांड के आरोप में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। हेमू कलानी, चम्पक रमन पिल्लै, मूल्यों के सजग प्रहरी गणेश शंकर विद्यार्थी, मौलवी अहमद शाह, अमर शहीद राजा बख्तार सिंह धार, बीकानेर के सेठ अमर चन्द एवं पटना के पीर अली तथा वीर कुंवर सिंह आदि अन्य अनेकों वीरों का नाम, जिनके बलिदान को जानने के लिये इतिहास के पन्नों को खंगालना पड़ता है।
इसी प्रकार से ग्राम पैना, बरहज, देवरिया के अमर शहीदों का बलिदान सदियों तक विलुप्त रहा। आदरणीय स्व0 अनिरूद्ध सिंह जी के अनन्त प्रयासों से इस ग्राम के निवासियों द्वारा 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों से हुये रक्तरंजित संघर्ष के इतिहास को उजागर करने में सफलता मिली। इस संघर्ष में चित्तौड़ के बाद सर्वप्रथम ग्राम की महिलाओं द्वारा जौहर तथा जल समाधि का उद्धरण मिलता है। जिसमें अंग्रेजों द्वारा पूरे ग्राम को तबाह और बरबाद कर दिया गया था तथा ग्राम के 395 से अधिक निवासी महिलाओं एवं बच्चों सहित वीरों ने भारत की स्वतंत्रता के लिये अपनी आहुति दे दी थी। उन्हीं के भतीजे पूर्व मंत्री उ0प्र0 सरकार श्री प्रेम प्रकाश सिंह जी के प्रयासों के कारण ग्राम में पुण्य सलिला सरयू नदी के तट पर वीरों की याद में “शहीद स्मारक” की स्थापना की गई।