आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र
अध्यक्ष – रीलीजीयस स्कॉलर्स वेलफेयर सोसायटी
4 नवम्बर दिन शुक्रवार को सूर्योदय 6 बजकर 29 मिनट पर और कार्तिक शुक्ल एकादशी का मान सम्पूर्ण दिन और सायंकाल 7 बजकर 2 मिनट तक, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र भी सम्पूर्ण दिन और रात्रि एक बजकर 49 मिनट पर्यन्त,इस दिन प्रात: ध्रुव योग 8 बजकर 1 मिनट पश्चात हर्षण योग है। सूर्योदय की तिथि में एकादशी होने से देवोत्थानी एकादशी इसी दिन मान्य रहेगा।
इस दिन खड़िया और गेरू से आंगन में देवों की आकृति बनाई जाती है।यह चावल को माण्डकर बनाया जाता है। वहां घृत का दीपक जलाकर सिंघाड़ा,बेर, समस्त ऋतुफल, गन्ना और सन्तरा आदि रखा जाता है।रात्रि में परिवार के सभी सदस्य देवताओं का पूजन करके थाली और शंख बजाते हुए ” उठो देवा- बैठो देवा”- इत्यादि कहकर देवों को जगाते हैं। कहीं – कहीं स्त्रियां मांगलिक गीत भी गाती हैं।देवी उठाने का यह पर्व महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन से विवाहादि शुभ कार्यों का आरंभ होने लगता है।
24 नवंबर से लग्न शुरू
इस वर्ष प्रबोधिनी एकादशी के बाद भी विवाहादि कार्य विलम्ब से होंगे।इसका कारण यह है कि शुभ और मांगलिक कार्यों का प्रेरक ग्रह शुक्र 21 नवंबर को प्रातः काल 5 बजकर 36 मिनट तक अस्त स्थिति में हैं।इस दिन इसी समय उनका उदय होगा और तीन दिन तक बाल अवस्था में रहेंगे।अस्त और बालत्व स्थिति में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। इसलिए विवाह का कार्य 24 नवंबर से प्रारंभ होगा।
कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी या देवोत्थानी एकादशी कहते हैं।इस तिथि को वर्षा के चार मास का शयन कर भगवान विष्णु उठते हैं। अतः इसे देवोत्थानी अथवा प्रबोधिनी कहते हैं। भगवान विष्णु के शयन के कारण आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार महिनों में विवाहादि मांगलिक कार्य निषिद्ध होते हैं।बहुधा सनातनी इस एकादशी को व्रत रखते हैं। इस दिन स्नानादि से निवृत्त होकर पूरे दिन का अखण्ड व्रत रखें, फिर रात्रि के समय भगवत्कथा वह विष्णु स्त्रोत्र पाठ के अनन्तर शंख, घंटा, घड़ियाल वादन करते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाएं उत्तिष्ठोतिष्ठ गोविंद त्यज निद्रां जगत्पते। त्वरित सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तमिदं भवेत्।उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वाराह नारायण। हिरण्याक्ष प्राण घातिन् त्रैलोक्ये मंगलं कुरु।। भगवान को इस प्रकार जगाएं।जगाने के पश्चात श्री भगवान के मन्दिर अथवा सिंहासन की सजावट करके भगवान की षोडशोपचार पूजा और आरती करेंव विविध प्रकार के नैवेद्य अर्पण करें। एकादशी की रात्रि में कथा – कीर्तन आदि करके द्वादशी में पारण करें। एकादशी वैष्णवों का पवित्र व्रत है।
तुलसी विवाह
अस्त और बालत्व स्थिति में रहने पर भी इस दिन देश वृक्ष तुलसी का विवाह सम्पन्न किया जाएगा।तुलसी वैष्णवों का परम आराध्य पौधा है। कोई – कोई तो भगवान के विग्रह के साथ तुलसी जी का विवाह धूमधाम से करते हैं। साधारणतया लोग तुलसी के पौधे का गमला गेरु आदि से सजाकर,उसके चारों ओर ईंख का मंडप बनाकर उसके उपर ओढ़ना या सुहाग की प्रतीक चुन्दड़ी चढ़ाकर वह गमले को साड़ी में लपेट कर, तुलसी को चूड़ी पहनाकर सर्व प्रथम श्री गणेश आदि देवताओं का पूजनकर और श्री शालिग्राम का विधिवत पूजनकर विवाह सम्पन्न करते हैं।एक नारियल दक्षिणा के साथ भी रखते हैं। भगवान शालिग्राम के सिंहासन को हाथ में लेकर तुलसी जी की बात परिक्रमा कराते हैं। इसमें शाखोचार भी किया जाता है। पुनः आरती कर विवाहोत्सव पूर्ण करते हैं। इसमें विवाह के समान ही अन्य कार्य होते हैं। विवाह के मंगल गीत भी गाए जाते हैं।
माहात्म्य
इस एकादशी के व्रत को करने से व्रती को सहस्त्रों अश्वमेध और सैकड़ो राजसूय यज्ञों का फल प्राप्त होता है।व्रत के प्रभाव से उसे वीर, पराक्रमी और यशस्वी पुत्र की प्राप्ति होती है।यह व्रत पापनाशक, पुण्यवर्धक तथा ज्ञानियों को मुक्तिदायक सिद्ध होता है।
व्रत कथा
एक समय भगवान नारायण से लक्ष्मी जी ने कहा–“से नाथ! आप रात दिन जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों करोड़ों वर्ष तक सो जाते हैं, तथा उस समय चराचर का नाश भी कर डालते हैं। अतः आप नियम से निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ विश्राम करने का समय मिल जाएगा। लक्ष्मी जी की बात सुनकर नारायण मुस्कराए और बोले देवी! तुमने ठीक कहा है।मेरे लगातार जागने से सब देवों को खासकर तुमको कष्ट होता है। तुम्हे मेरी सेवा से जरा भी अवकाश नहीं मिलता है। अस्तु तुम्हारे कथनानुसार आज से प्रतिवर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करुंगा। उस समय तुमको और देवगणों को अवकाश होगा।मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलयकालीन महानिद्रा कहलाएगी। मेरी यह निद्रा मेरे भक्तों को परम उत्सवप्रद और पुण्यवर्धक होगी।इस काल में जो भी भक्त मेरी शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे तथा शयन और उत्थान के उत्सव आनन्दपूर्वक आयोजित करेंगे, उनके घर में तुम्हारे सहित निवास करुंगा।
पूजन विधि
विधान । इस दिन स्नानादि कर्मों से निवृत्त होकर आंगन में चौक पूर कर भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रुप से अंकित किया जाता है। धूप की तेज किरणों से बचाने के लिए उनके चरणों को पीले वस्त्र से ढंक दिया जाता है। पुनः भगवान विष्णु का पूजन षोडशोपचार विधि से फूल, चन्दन,केसर अगरबत्ती, कपूर, फल आदि से करें तथा पुरुष सूक्त का पाठ करें और फलों का भोग लगाकर भक्तों में वितरित करें। शंख में जल भरकर भगवान विष्णु को अर्घ्य प्रदान करें। तत्पश्चात व्रत की कथा सुने।इस दिन अन्न का सेवन न करके फलाहार करके उपवास करें।व्रती गन्ने( ईंख) के खेत में जाकर सिन्दूर,अक्षत इत्यादि से पूजन कर घर लाए।इसी दिन से प्रथम बार गन्ने का चूसना प्रारम्भ किया जाता है।