अनिल त्रिपाठी
मुख्य कार्यकारी, एनआईआई
उत्तर भारत के अवध क्षेत्र, विशेष रूप से लखनऊ में ज्येष्ठ मास में पड़ने वाले मंगलवारों का बड़ा महत्व है। बूढ़-पुरनिया इसे बुढ़वा मंगल के नाम से तो आधुनिक पीढ़ी बड़ा मंगल के नाम से जानती है। हालांकि बड़ा मंगल और बुढ़वा मंगल आज एकमेव हो चुके हैं किंतु दोनों का अलग इतिहास, अलग कथाएं हैं। शोध के बाद जो तथ्य सामने आये हैं आइये उनके अनुसार दोनों में भेद और अंतर्संबंध जानते हैं। बुढ़वा मंगल का संदर्भ अति प्राचीन है। इसका संबंध जहाँ रामायण और महाभारत काल से है तो वहीं बड़े मंगल का संदर्भ अपेक्षाकृत आधुनिक है। इसका संबंध विशेषतया लखनऊ और अवध के इतिहास से है। चूँकि बुढ़वा मंगल का संदर्भ प्राचीन है इसलिये पहले बात करते हैं बुढ़वा मंगल की।
पौराणिक कथा-साक्ष्य के अनुसार ज्येष्ठ माह में मंगलवार को ही प्रभु श्रीराम की पहली मुलाकात भक्त हनुमान से हुई थी।
इसी कारण इस महीने में पड़ने वाले मंगलवारों का विशेष महत्व हुआ और कालांतर में इसे बुढ़वा मंगल कहा जाने लगा। हालाँकि महाभारत से जुड़े प्रसंग की कथा ज्येष्ठ माह की न होकर भाद्रपद के शुक्लपक्ष के अंतिम मंगलवार से जुड़ी है। कथा है कि दस हज़ार हाथियों का बल रखने वाले कुंती पुत्र भीम को अपने शक्तिशाली होने पर बड़ा अभिमान हो गया था। उनको सबक सिखाने के लिए रुद्रावतार भगवान श्रीहनुमान ने एक बूढ़े बंदर का भेष धारण किया और जिस राह से भीम का आवागमन होता था उसी राह के निकट विश्राम की मुद्रा में कुछ इस तरह लेट गए कि उनकी पूंछ रास्ते को बाधित करे। कुछ देर में भीम उधर से गुज़रे तो बीच रास्ते में बंदर की पूँछ देख अपने स्वाभाविक अहम में तिरस्कार भाव से बोले – “ए वानर,रास्ते से अपनी पूंछ हटा, दिखाई नहीं पड़ता ये आवागमन का मार्ग है”!
आसक्त-बूढ़े रूपी अंजनी पुत्र हनुमान बोले – “हे वीर योद्धा मैं अस्वस्थ बूढ़ा वानर हूँ, आसक्त होने के कारण अपनी ही पूंछ हिलाने में असमर्थ हूँ, तुम तो महाबलशाली हो, दस हज़ार हाथियों का बल रखते हो, ज़रा मेरी सहायता कर दो भाई। रास्ते को बाधित कर रही मेरी पूंछ किनारे करके चले जाओ, आने-जाने वाले अन्य राहगीरों के लिए भी सुविधा हो जाएगी”। अपने बल पर हुए कटाक्ष से तिलमिलाए भीम क्रोध में आगे बढ़े। पूंछ उठाने की कोशिश की। लेकिन यह क्या..! लाख जतन के बावजूद वो उसे हिला तक नहीं पाए।
कई प्रयास के बाद भी सफलता न मिलते देख भीम ने वासुदेव का स्मरण किया। वासुदेव की कृपा से उन्हें ज्ञात हुआ कि ये कोई साधारण वानर नहीं बल्कि स्वयं महाबलशाली बीरबजरंगी श्री हनुमान जी महराज हैं जो महाभारत युद्ध में अर्जुन के रथ पर ध्वजा धारण किये विराजमान थे। भीम को अपनी भूल का आभास हुआ उन्होंने नतमस्तक हो सदा के लिए अपने दम्भ का त्याग करने का वचन देते हुए श्री हनुमानजी से क्षमा मांगी ।
इस पौराणिक कथा के अनुसार यह घटना मंगलवार के दिन घटित हुई थी, बस तभी से इस दिन को बुढ़वा मंगल के रूप में मनाए जाने की प्रथा है, किन्तु यह प्रसंग भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष के आखिरी मंगलवार से जुड़ा है। ज्येष्ठ के मंगलवार से इसका कोई सम्बंध नहीं।
बुढ़वा मंगल के बारे में एक और तीसरी पौराणिक मान्यता भी है। शिवपुराण में वर्णित देवाधिदेव महादेव के 11 वें अवतार श्रीहनुमान जी को वायुपुराण के अनुसार अमरत्व का वरदान प्राप्त है। हनुमान जी का जन्म तो दीपावली के एक दिन पहले नरक चतुदर्शी के दिन हुआ किन्तु उन्हें अमरत्व का वरदान ज्येष्ठ माह के मंगलवार को ही मिला, इसी कारण ज्येष्ठ माह के मंगल को बड़ा मंगल या बुढ़वा मंगल के रूप में मनाया जाता है।
बहरहाल इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ज्येष्ठ माह के मंगलवारों को बुढ़वा मंगल के रूप में मनाये जाने की परंपरा का संबंध प्रभु श्री राम से भक्त हनुमान की पहली भेंट अथवा उन्हें अमरत्व का वरदान प्राप्त होने की पौराणिक कथा से है। महाभारत काल के भीम-हनुमान प्रसंग से इसे जोड़ना तर्कसंगत नहीं।
अब बात करते हैं बड़ा मंगल की जिसका संबंध-संदर्भ इतिहास सभी कुछ मात्र अवधक्षेत्र और लखनऊ से जुड़ा है। ज्ञातव्य है उत्तरभारत के अवध क्षेत्र में विशेष रूप से लखनऊ और इसके आस पास के इलाकों में ज्येष्ठ माह में पड़ने वाले सभी मंगलवारों को भव्य स्तर पर बड़ा मंगल के रूप में मनाए जाने की सदियों पुरानी परम्परा है। हालाँकि इस परंपरा का संबंध मात्र लखनऊ या अवध क्षेत्र से है किंतु जिस तरह बुढ़वा मंगल के विषय में तीन पौराणिक कथाएं हैं उसी तरह बड़ा मंगल के इतिहास से भी जुड़ी तीन मान्यताएं या किंवदंतियां हैं।
एक मान्यता के अनुसार परम् हनुमानभक्त महंत खासाराम को एक दिन स्वप्न आया कि अमुक स्थान पर भूमि के अंदर श्री हनुमानजी की मूर्ति है। आस्था के अनुसार लखनऊ के अलीगंज स्थित उसी स्थान पर खुदाई करने पर हनुमान जी प्रकट हुए। हालांकि इस मंदिर का श्री विग्रह स्वयंभू है, फिर भी महंत खासाराम जी ने स्वप्न में मिले निर्देशानुसार प्राकट्य के पश्चात इस स्थान पर ‘नए हनुमान मन्दिर’ का निर्माण कराया।
विशेष बात यह है कि यहां मूर्ति का प्राकट्य ज्येष्ठ माह के पहले मंगलवार को हुआ था तभी से यहां बड़ा मंगल का मेला लगने की परम्परा की शुरुआत हुई। यह भी कहा जाता है कि इस मन्दिर के निर्माण के समय अवध क्षेत्र में नवाब वाजिद अली शाह का शासन था और उन्होंने इस मंदिर की स्थापना के साथ ही बड़ा मंगल के मेला-आयोजन में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उल्लेखनीय है कि वाजिदअली शाह अवध प्रान्त के अंतिम मुस्लिम शासक थे। यह 1847 से 1856 का कालखण्ड था।
दूसरी और तीसरी मान्यता के अनुसार लखनऊ में बड़ा मंगल का इतिहास पूर्णतया अवध के नवाबों से जुड़ा है। इन मान्यताओं में पारम्परिक भारतीय सभ्यता और विशुध्द गंगा-जमुनी संस्कृति के साथ ही सामाजिक समरसता का भाव समाया है। दूसरे मत के अनुसार इस परम्परा की शुरुआत वाज़िद अली शाह से काफ़ी पहले एक मुगल शासक नवाब मोहम्मद अली ने की थी जिनके हाथ 21 जनवरी 1798 से 11 जुलाई 1814 तक अवध प्रान्त की बागडोर थी। कहते हैं नवाब मोहमद अली शाह का बेटा उनके शासन सम्हालने के बाद ही गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। उनकी बेगम रूबिया ने उसका हर मुमकिन इलाज कराया लेकिन कोई फ़ायदा नही हुआ।
इसी बीच नन्हे शहजादे से विशेष वात्सल्य-अनुराग रखने वाली, बेग़म साहिब की एक हिन्दू सेविका ने उन्हें अपने विश्वास के अनुसार सलाह दी – “बेगम साहिबा अगर आप अलीगंज वाले हनुमान जी से मनौती मान लें तो साहबज़ादे यक़ीनम ठीक हो जाएंगे”। हिन्दू-मुसलमान से परे, परेशान बेग़म इस वक्त मात्र एक निरीह लाचार मां थीं।
उन्होंने नवाब साहब को अपनी हिन्दू सेविका की सलाह के बारे में बताया। परेशान नवाब साहब ने इस बबात अपने सलाहकारों से बात की तो उनमें से कई ने कहा कि हाँ हुज़ूर साहबज़ादे की सलामती के लिए ये उपाय कारगर हो सकता है। मन्नत पूरी होने के बारे में इस तरह की कई नज़ीर मौजूद हैं। इसके बाद नवाब मोहम्मद अली और उनकी बेग़म ने पूरे अक़ीदे के साथ हनुमान जी से दुआ मांगी – “हे वीर बजरंगी मेरे लाल को स्वस्थ कर दो, हम यह मन्नत मानते हैं कि अगर ये दुआ क़ुबूल हुई तो हम अलीगंज स्थित (पुराने) हनुमान मन्दिर का जीर्णोद्धार करके वहाँ भव्य मेले और प्रसाद वितरण का आयोजन करेंगे”।
कहते हैं इस अरदास के बाद नन्हे साहबज़ादे पूर्णतया स्वस्थ हो गए। परिणामस्वरूप नवाब मोहम्मदअली और उनकी बेग़म की हनुमान जी में अगाध आस्था हो गई और उन्होंने मन्नत के मुताबिक अलीगंज में पुराने हनुमान मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया जिसकी पुनर्प्रतिष्ठा पूरे विधि-विधान से 1798 में जेठ माह के मंगल के दिन हुई। इस अवसर पर यहाँ एक मेले का आयोजन और नगर में जगह जगह प्याऊ लगाकर गुड़ चना आदि प्रसाद का वितरण भी हुआ, बस इसी के बाद से लखनऊ में बड़ा मंगल दिव्य और भव्य रूप से मनाया जाने लगा। उल्लेखनीय है कि सम्भवतः यह दुनिया का इकलौता हनुमान मंदिर है जिसके गुम्मद के शीर्ष पर चाँद लगा दिखाई देता है। ज्ञातव्य है इस मंदिर में विराजमान हनुमान जी को ‘अली के बली’ के नाम से भी जाना जाता है।
तीसरी मान्यता या किंवदंती है कि बड़े मंगल और अलीगंज के पुराने हनुमान मन्दिर का इतिहास नवाब मोहम्मद अली से भी पहले अवध के शिया नवाब शुजा-उद-दौला के ज़माने से जुड़ा है जिनका शासनकाल 5 अक्टूबर सन 1754 से 26 जनवरी 1775 तक रहा। इस मत के अनुसार एक रात अवध के शिया नवाब शुजा-उद-दौला की पत्नी आलिया बेगम के स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और कहा कि अमुक स्थान पर धरती मे मेरी मूर्ति दफ़न है उसे निकालो। पहले तो बेग़म ने इस स्वप्न पर ध्यान नहीं दिया लेकिन बार बार यही स्वप्न आने पर वो चिंतित हुईं और उन्होंने वीर हनुमान द्वारा स्वप्न में बताए स्थान पर खुदाई शुरू करवाई ,काफी देर खुदाई होने के बाद भी कोई मूर्ति न निकलते देख वहां मौजूद कारिंदे और अन्य लोग दबी ज़बान बेगम साहिबा का मज़ाक उड़ाने लगे इससे बेगम साहिबा थोड़ा विचलित तो हुईं लेकिन उनके विश्वास में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने हाथ जोड़कर आँखे बन्द की और वीर बजरंगी का स्मरण करते हुए उनसे कहा “हे पवनपुत्र आप ही के आदेश पर मैंने ये खुदाई शुरू करवाई है, अब मेरे विश्वास के साथ ही आपकी इज़्ज़त भी दाँव पर है, अगर और कुछ देर में आप न प्रकट हुए तो मजबूरन मुझे ये खुदाई रोकनी पड़ेगी”।
कहते हैं इससे पहले कि बेगम साहिबा आँखे खोल पातीं, जय हनुमान…बीर बजरंगी के नारे गूँजने लगे। हनुमान जी की मूर्ति प्रकट हो चुकी थी। बेगम आलिया की आँखों में अब श्रद्धा के आंसू थे। प्रश्न उठा कि प्रकट हुई मूर्ति को स्थापित कहाँ किया जाय..? इस प्रश्न के उत्तर में बेगम आलिया ने कहा कि यह सम्पूर्ण अवधक्षेत्र श्री हनुमान जी की ही मिल्कियत है इसलिए इन्हें कहाँ स्थापित किया जाय इसका निर्धारण स्वयं वीर बजरंगी श्रीहनुमान जी ही करेंगे। उन्होंने एक हाथी मंगाया। प्रकट हुई हनुमान जी की मूर्ति को हाथी की पीठ पर रखवा कर आदेश दिया कि अब हाथी को आज़ाद छोड़ दिया जाय, विचरण करते हुए जहाँ भी यह हाथी रुक जायगा बस उसी स्थान पर हनुमान जी का मंदिर बनवा कर इन्हें स्थापित करवाया जाएगा। कहते हैं विचरण करते हुए यह हाथी अलीगंज में जिस स्थान पर जाकर रुक गया, बेगम साहिबा ने उसी स्थान पर मंदिर निर्माण करवाकर वीर हनुमान की मूर्ति स्थापित करवा दी। इसी मन्दिर को अलीगंज के पुराने हनुमान मन्दिर के रूप में जाना जाता है।
इस मन्दिर में हनुमानजी की प्राणप्रतिष्ठा ज्येष्ठ माह के मंगलवार के दिन हुई थी इसी उपलक्ष्य में तभी से अवधक्षेत्र में बड़ा मंगल के आयोजन की शुरुआत हुई। इनमें से जो भी कथा या मान्यता सही हो किन्तु सच यह है कि कालांतर में यह मेला अवध क्षेत्र में आस्था और कौमी एकता का प्रतिनिधि-प्रतीक बन गया। भारतीय संस्कृति-सभ्यता का साक्षत प्रमाण, सदियों पुरानी यह परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है। बड़े मंगल पर लखनऊ की इस विशिष्ट परम्परा की छटा देखते ही बनती है। आज के दौर में कपूरथला चौराहे से लेकर अलीगंज हनुमान मन्दिर तक पूरे ज्येष्ठ माह भर एक बड़ा मेला लगता है। शहर भर में जगह जगह प्याऊ एवं भंडारों का आयोजन होता है जहां पूड़ी सब्जी, छोला-भटूरा, छोला चावल, हलुआ, लड्डू बूँदी, से लेकर अनेकानेक प्रकार के व्यंजन-पकवान और शीतल पेय प्रसाद रूप में वितरित किये जाते हैं।
इन भंडारों में जाति-धर्म, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब का कोई भेदभाव नहीं होता। कोई भी राहगीर वो पैदल जा रहा हो या साइकिल से,स्कूटर से हो या के मोटरकार से ऐसे भंडारों के पास रुककर पूरे श्रद्धाभाव से यहाँ वितरित हो रहा प्रसाद ग्रहण कर स्वयं को धन्य मानता है। इसमे हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आदि का भी कोई भेद नहीं रह जाता। ऐसे में मेरे प्रिय मित्र रहे देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब के सशक्त प्रतिनिधि-कवि मरहूम वाहिद अली ‘वाहिद’ की ख़ूबसूरत पँक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं –
“जेठ की धूप में चैन मिले, बरसे जो मोहब्ब्त की बदली।
बदली बरसे जब राम गली, ख़ुश होके चलें रमजान अली।
रमजान अली नौरात्री जगें, अफ्तार कराती हैं राम गली।
तब वाहिद बोलते मौलाअली, बजरंगबली बजरंगबली।।जब पूजा अजान में भेद न हो, खिल जाती है भक्ति की प्रेम कली।
रहमान की, राम की एक सदा, घुलती मुख में मिसरी की डली।
जब सन्त फकीरों की राह मिली, सब भूल गए पिछली अगली ।
फिर वाहिद बोलते मौलाअली, बजरंगबली बजरंगबली।”
वाहिद भाई ने तो बस उन भावों की तस्दीक़ की थी जो सैकड़ों साल पहले गोस्वामी तुलसीदास जी कह गये थे –
प्रेम प्रतीतिह कपि भजै सदा धरै उर ध्यान
तेहि के कारज सकल शुभ सिद्धि करैं हनुमान।
श्री हनुमान जी के लिए किसी के प्रति किसी प्रकार का कोई भेद कहाँ..! वो तो हर उस व्यक्ति की कार्यसिद्धि करते हुए मनोकामना पूर्ण करते हैं जो प्रेम पूर्वक उनका ध्यान करता है।