शाश्वत स्वर : दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है

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नरेश मिश्र

भगवान बुद्ध के सबसे आत्मीय शिष्य थे आनंद। वे दानदाताओं से अधिक से अधिकतम दान लेते थे । उनके मठ में अन्न और वस्त्र का बड़ा भंडार था । एक राजा ने आनंद से पूछा, भदंत, आप इतने कपड़ों का दान लेते हैं तो इनका क्या उपयोग करते हैं । भदंत ने कहा, महाराज हमारे संघ में वस्त्रों का सदुपयोग किया जाता है । राजा ने पूछा वस्त्र एक दिन फट जाते हैं तो आप उनका क्या करते हैं। हम फटे हुए वस्त्रों का आसन बना लेते हैं आनंद ने कहा । आसन भी एक दिन फट जाते होंगे तो आप उनका क्या करते हैं। हम उन आसनों को मिट्टी में मिलाकरअच्छी तरह कूट लेते हैं।

इस तैयार मिट्टी का हम फिर आसन बना लेते हैं। हमारे संघ में जो दानी दान आता है उसका हम सदुपयोग करते हैं। दुरुपयोग का प्रश्न ही नहीं उठता। हममें से प्रत्येक भिक्षु अपनी आवश्यकता के अनुसार ही अन्न वस्त्र लेता है। आवश्यकता से अधिक लेने की लालसा कोई नहीं रखता । राजा ने संतुष्ट होकर कहा। भदंत आप मेरा सारा राजकोष ले लीजिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए। मेरा राजकोष प्रजा की सेवा समृद्धि के लिए ही है। आपसे अधिक सेवा और सदुपयोग का महत्व कौन समझ सकता है।

आनंद ने कहा महाराज मुझे राजकोष की आवश्यकता नहीं है। हम भिक्षुगण संसार का मायामोह त्याग कर निर्वाण के रास्ते पर चलते हैं। राजा को प्रजा की सेवा के लिए राजकोष व्यय करना चाहिए । एक सुभाषित सुनिए। दानं भोगो नाश: धनस्य त्रिविधा गति: यो न ददाति न भुक्ते तस्य त्रितिया गतिर्भवति। दान,भोग और नाश धन की ये तीनअवस्थाएं होती है। जो व्यक्ति धन का दान नहीं करता उसका सदुपयोग नहीं करता वह धन की तीसरी गति अर्थात नाश को प्राप्त होता है।

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